तलाक का आदेश(Decree of Divorce) : हिन्दू शादी एक्ट 1955 के तहत 

Author: Er. Kabir Khan B.E.(Civil Engg.) LLB, LLM

प्रस्तावना:

हिन्दू शादी एक्ट 1955 (Hindu Marriage Act, 1955) में तलाक का आदेश (Decree of Divorce),  हिंदू धर्म में विवाह और तलाक से संबंधित कानूनों को कंट्रोल करने वाला एक अहम  एक्ट है। इस एक्ट के तहत तलाक (Divorce) के लिए कई कानूनी आधार निर्धारित किए गए हैं, जिनके अनुसार पति या पत्नी अदालत में तलाक की याचिका दायर कर सकते हैं। यह एक्ट पति और पत्नी दोनों को विवाह को समाप्त करने का अधिकार देता है, यदि उनके बीच गंभीर विवाद, धोखाधड़ी, क्रूरता, परित्याग, या अन्य कानूनी आधारों पर विवाह संबंधी समस्याएँ उत्पन्न हो रही हों।

तलाक का आदेश (Divorce Decree) प्राप्त करने के लिए, विवाह के समाप्त होने के पीछे कुछ ठोस कोई ठोस वजह ज़रूरी होती है। ये आधार हिंदू विवाह एक्ट के धारा 13 में तफ़सील से दी गई हैं, जिनमें व्यभिचार (Adultery), मानसिक या शारीरिक क्रूरता (Cruelty), परित्याग (Desertion), और अन्य संगीन कारण शामिल हैं। इस अमल में तलाक की याचिका दायर करने, अदालत में सबूत पेश करना, और दोनों पक्षों की बात सुनी जाने जैसे अमल शामिल होते हैं।

इस लेख में हम तफ़सील से उन कानूनी आधारों और अमल पर चर्चा करेंगे, जो हिंदू विवाह एक्ट, 1955 के तहत तलाक का आदेश प्राप्त करने के लिए आवश्यक हैं।

For Students:

1.  Discuss the grounds for obtaining a decree of divorce. On what special grounds a Hindu wife can claim a decree of divorce against her husband under the provision of the Hindu Marriage Act 1955 ?

तलाक की डिक्री प्राप्त करने के आधारों पर चर्चा करें। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के प्रावधान के तहत एक हिंदू पत्नी अपने पति के खिलाफ तलाक की डिक्री का दावा किन विशेष आधारों पर कर सकती है?

or

Enumerate the various grounds upon which a party to a marriage may present a petition for a decree for judicial separation. Explain whether the court has power to award a decree of judicial separation on the petition for divorce presented by the petitioner ? 

उन विभिन्न आधारों को सूचीबद्ध करें जिन पर विवाह का कोई पक्ष न्यायिक पृथक्करण के लिए डिक्री हेतु याचिका प्रस्तुत कर सकता है। स्पष्ट करें कि क्या न्यायालय को याचिकाकर्ता द्वारा प्रस्तुत तलाक की याचिका पर न्यायिक पृथक्करण की डिक्री देने का अधिकार है?

तलाक का आदेश प्राप्त करने के आधार: हिन्दू शादी एक्ट 1955 के तहत 

कानूनी अलगाव (Judicial Separation) और तलाक (Divorce) दो अहम कानूनी उपाय हैं जो शादी से जुड़े विवादों को हल करने के लिए दिए गए हैं। दोनों ही मामलों में, पति या पत्नी में से कोई भी अदालत में आवेदन कर सकता है। हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 10 कानूनी अलगाव के बारे में और धारा 13 तलाक़ के बारे में बताती है।

कानूनी अलगाव  और विवाह विच्छेद के आधार पहले अलग-अलग थे, लेकिन हिंदू कानून (संशोधन) अधिनियम 1976 ने इन्हें एक जैसा बना दिया।

धारा 10 कानूनी अलगाव (Judicial Separation) के लिए और धारा 13 विवाह विच्छेद (Divorce) के लिए प्रावधान करती है। पहले इन दोनों के लिए अलग-अलग आधार थे, लेकिन 1976 में हुए संशोधन के बाद, इन दोनों के लिए आधार एक ही कर दिए गए हैं। इसका मतलब है कि अब कानूनी अलगाव और तलाक के लिए कानूनी कारण एक जैसे होते हैं।

धारा 10 : कानूनी अलगाव (हिन्दू शादी एक्ट 1955) : Judicial Separation

यह धारा कानूनी अलगाव (जुडिशियल सेपरेशन ) के प्रावधान करती है।

इसका उद्देश्य पति-पत्नी को एक दूसरे से अलग रहने की अनुमति देना है, शादी को पूरी तरह से समाप्त किए बग़ैर ।

कानूनी अलगाव का मतलब है कि विवाहिक रिश्ते को समाप्त किए बिना, पति-पत्नी को कानूनी रूप से अलग रखा जाता है।

इसके तहत किसी भी पति या पत्नी को कानूनी अलगाव के लिए अदालत में याचिका दायर करनी होती है।

कानूनी अलगाव के बाद भी शादी का रिश्ता वैध रहता है, लेकिन पति-पत्नी एक दूसरे से अलग रह सकते हैं।

कानूनी अलगाव के दौरान पति या पत्नी अपने व्यक्तिगत अधिकारों का दावा कर सकते हैं।

धारा 13:  तलाक का आदेश का कानूनी प्रावधान- Legal provisions of divorce decree

धारा 13 तलाक़ के लिए कानूनी प्रावधान करती है। इसके तहत :

पति या पत्नी को तलाक के लिए अदालत में याचिका दायर करनी होती है, जिसमें उन्हें तलाक़ के आधार का उल्लेख करना होता है।

वैध कानूनी आधार पर ही तलाक़ हासिल किया जा सकता है।

तलाक़ के बाद विवाह पूरी तरह से समाप्त हो जाता है, और दोनों पक्ष कानूनी रूप से अलग हो जाते हैं।

तलाक़ के बाद दोनों पक्ष स्वतंत्र रूप से नई शादी कर सकते हैं।

इन धाराओं के तहत कानूनी अमलऔर फैसले के लिए अदालत में सबूत पेश करने और कानूनी प्रावधानों का पालन करना आवश्यक होता है।

हिंदू कानून (संशोधन) अधिनियम 1976 : तलाक का आदेश और कानूनी अलगाव

हिंदू कानून (संशोधन) अधिनियम 1976 ने धारा 10 और धारा 13 के तहत कानूनी अलगाव और तलाक़ के आधारों को एक जैसा बना दिया।

यह धारा 10,  कानूनी अलगाव के लिए प्रावधान करती है। इसका मतलब है कि पति और पत्नी एक दूसरे से अलग रह सकते हैं, लेकिन शादी का रिश्ता पूरी तरह से समाप्त नहीं होता। धारा 13 तलाक के लिए प्रावधान करती है। इसमें शादी को पूरी तरह समाप्त करने की प्रक्रिया होती है। कानूनी अलगाव और  तलाक के लिए संक्षेप में मुख्य निम्नलिखित आधार हो सकते हैं:

क्रूरता (Cruelty)

व्यभिचार (Adultery)

परित्याग (Desertion)

मानसिक अस्वास्थ्य (Mental Illness)

सामान्य तलाक के आधार : हिंदू शादी एक्ट, 1955 के अनुसार 

हिंदू विवाह एक्ट, 1955 की धारा 13(1) के तहत तलाक़ के लिए सात सामान्य आधार निर्धारित किए गए हैं, जिन्हें विवाह के दोनों पक्षों द्वारा अपनाया जा सकता है। इनमें से कुछ आधार जैसे कि क्रूरता और परित्याग (desertion) पहले केवल न्यायिक अलगाव (judicial separation) के लिए उपलब्ध थे, लेकिन 1976 के संशोधन द्वारा इन्हें तलाक़ के आधार के रूप में भी शामिल किया गया।

इसके अतिरिक्त, धारा 13(2) में पत्नी के लिए चार विशेष आधार प्रदान किए गए हैं जो केवल पत्नी ही दावा कर सकती है। इसके अलावा, 1976 के संशोधन एक्ट के द्वारा धारा 13B जोड़ी गई, जो आपसी सहमति (mutual consent) से तलाक़  के लिए प्रावधान करती है।

इस प्रकार, ये धाराएं तलाक़ के विभिन्न आधारों को साफ़ करती हैं और विवाह को समाप्त करने के लिए विभिन्न कानूनी रास्ते प्रदान करती हैं।

1. धारा 13(1): तलाक का आदेश हासिल करने के लिए  पति और पत्नी दोनों के लिए तलाक के आधार।

 व्यभिचार (Adultery)- धारा 13(1)(i):

विवरण:

यदि पति या पत्नी ने विवाह के दौरान किसी अन्य व्यक्ति के साथ यौन संबंध बनाए हैं, तो तलाक़ के लिए याचिका दायर की जा सकती है। इस आधार पर तलाक़ प्राप्त करने के लिए, याचिकाकर्ता को यह साबित करना होता है कि उनका साथी व्यक्ति विवाह के बाद भी अपने जीवनसाथी के अलावा किसी अन्य व्यक्ति के साथ जिस्मानी मिलाप में शामिल था।

क्रूरता (Cruelty)- धारा 13(1)(i-a):

विवरण:

यदि पति या पत्नी ने दूसरे के साथ मानसिक या शारीरिक अत्याचार किया हो, तो तलाक का आधार बनता है। इसमें शारीरिक हिंसा, मानसिक दमन, अपमानजनक व्यवहार, या ऐसे किसी भी प्रकार की अत्याचार को शामिल किया जा सकता है, जिससे विवाहित जीवन असंभव हो जाता है।

 परित्याग (Desertion)- धारा 13(1)(i-b):

विवरण:

यदि पति या पत्नी ने एक साल या उससे अधिक समय तक बिना किसी उचित कारण के एक दूसरे को छोड़ दिया हो, तो तलाक के लिए याचिका दायर की जा सकती है। परित्याग (Desertion) का मतलब है कि कोई साथी बिना किसी उचित कारण के अपनी पत्नी या पति से अलग हो गया हो।

धार्मिक परिवर्तन (Conversion)- धारा 13(1)(ii):

विवरण: यदि पति या पत्नी ने शादी के दौरान अपने धर्म को बदल लिया है और किसी अन्य धर्म को अपना लिया है, तो इसके आधार पर तलाक़ प्राप्त किया जा सकता है। यह तलाक़ का आधार तब लागू होता है जब एक व्यक्ति ने अपने धर्म को बदलकर विवाहिक जीवन को नामुमकिन बना दिया हो।

 मानसिक अस्वास्थ्य (Unsoundness of Mind)- धारा 13(1)(iii):

विवरण: यदि पति या पत्नी मानसिक रोग के शिकार हैं और उनका इलाज संभव नहीं है, तो तलाक़ के लिए याचिका दायर की जा सकती है। इस आधार पर तलाक़ हासिल करने के लिए, यह साबित करना होता है कि मानसिक हालत ठीक न होने की वजह से शादी शुदा ज़िन्दगी पर असर पड़ रहा है।

 कुष्ठ रोग (Leprosy)- धारा 13(1)(iv):

विवरण:

यदि पति या पत्नी कोढ़ (leprosy) रोग के शिकार हैं, तो इसके आधार पर तलाक़ हासिल किया जा सकता है। कोढ़ रोग एक गंभीर और संक्रामक बीमारी है, जो शादी शुदा ज़िन्दगी पर प्रतिकूल असर डाल सकती है।

NOTE: प्रतिकूल- यदि किसी व्यक्ति की सेहत प्रतिकूल होने का मतलब है कि उनकी हालत बिगड़ रही है या उनकी सेहत पर बुरा असर पड़ रहा है।

संक्रामक रोग (Venereal Disease of Communicable Form)- धारा 13(1)(v):

विवरण:

यदि पति या पत्नी संक्रामक रूप में यौन संचारित रोग (venereal disease) से पीड़ित हैं, तो इसके आधार पर तलाक़ प्राप्त किया जा सकता है। यह आधार तब लागू होता है जब रोग इतना संक्रामक हो कि शादी शुदा ज़िन्दगी में रुकावट पैदा हो रही हो।

NOTE: संक्रामक रूप में यौन संचारित रोग (STIs) वे बीमारियाँ हैं जो यौन संबंधों के जरिए एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलती हैं। ये रोग बैक्टीरिया, वायरस, या परजीवी से होते हैं और आमतौर पर असुरक्षित यौन संबंधों के दौरान फैलते हैं।

धार्मिक आदेश में प्रवेश (Renunciation of the World by Entering a Religious Order)- धारा 13(1)(vi):

विवरण:

यदि पति या पत्नी ने मज़हबी हुक्म में दाख़िल हो कर दुनिया से किनारा कशी कर ली हो। , तो तलाक़ हासिल किया जा सकता है। इसका मतलब है कि एक व्यक्ति ने पूर्ण रूप से धर्मिक जीवन अपनाया है और इससे शादी शुदा ज़िन्दगी मुमकिन नहीं है।

मौत की आशंका (Presumption of Death)- धारा 13(1)(vii):

विवरण:

यदि पति या पत्नी की मृत्यु की आशंका हो और उनका कोई पता न हो, तो तलाक़ के लिए याचिका दायर की जा सकती है। इसका मतलब है कि किसी व्यक्ति की लंबे समय से अनुपस्थिति के कारण यह माना जाता है कि उनकी मृत्यु हो गई है और इस आधार पर तलाक की प्रक्रिया की जा सकती है।

अहम् फ़ैसले: तलाक का आदेश हासिल करने के लिए के सन्दर्भ में

1. नविन कोहली बनाम नीलू कोहली (2006)

मुख्य बिंदु:

1.इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने क्रूरता (Cruelty) को तलाक का आधार माना। न्यायालय ने कहा कि मानसिक और शारीरिक क्रूरता दोनों ही तलाक के पर्याप्त आधार हो सकते हैं।

2.यह निर्णय स्पष्ट करता है कि यदि एक पक्ष दूसरे पक्ष के साथ मानसिक या शारीरिक क्रूरता करता है, तो दूसरा पक्ष तलाक की मांग कर सकता है।

3.इस केस में अदालत ने माना कि लगातार अपमानजनक व्यवहार, तिरस्कार, और भावनात्मक उत्पीड़न भी क्रूरता के दायरे में आता है।

3. सावित्री देवी बनाम कृष्ण मोहन (1996)

मुख्य बिंदु:

1. इस मामले में परित्याग (Desertion) को तलाक के आधार के रूप में स्वीकार किया गया। न्यायालय ने कहा कि यदि पति या पत्नी में से कोई एक पक्ष जानबूझकर दूसरे को छोड़कर चला जाता है और कम से कम दो वर्षों तक वापस नहीं आता है, तो यह तलाक का आधार होगा।

2. परित्याग के लिए यह साबित करना आवश्यक होता है कि छोड़ने वाला पक्ष अपने साथी को बिना किसी वाजिब कारण के छोड़कर गया है और उसे पुनः अपनाने की कोई इच्छा नहीं है।

3. सरला मुद्गल बनाम भारत संघ (1995)

मुख्य बिंदु:

1. इस मामले में धर्म परिवर्तन (Conversion) को तलाक़ का आधार माना गया।

न्यायालय ने कहा कि यदि पति या पत्नी में से कोई एक व्यक्ति धर्म परिवर्तन करता है।

इस स्थिति में दूसरा पक्ष तलाक़ के लिए याचिका दाखिल कर सकता है।

2. इस मामले में, पति ने इस्लाम धर्म ग्रहण करके दूसरी शादी की थी।

जबकि पहला विवाह हिंदू कानून के तहत था।

न्यायालय ने यह कहा कि धर्म परिवर्तन के बाद भी हिंदू विवाह कानून लागू रहता है।

और धर्म परिवर्तन तलाक़ का वैध आधार हो सकता है।

इन तीनों फैसलों ने धारा 13(1) के तहत तलाक़ के आधारों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया है। क्रूरता, परित्याग, और धर्म परिवर्तन तलाक़ के वैध आधार माने गए हैं और इन निर्णयों के माध्यम से अदालत ने संबंधित पहलुओं को विस्तार से समझाया है।

2. धारा 13(2): केवल पत्नी के लिए विशेष तलाक के आधार

धारा 13(2)(i): हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के पूर्व किया गया बहुविवाह :

विवरण:

इस आधार पर पत्नी तलाक़ के लिए याचिका दायर कर सकती है।

यदि उसका पति हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 लागू होने से पहले बहुविवाह कर चुका था।

अगर पति ने पहले से शादी की थी और फिर दूसरी शादी की हो।

तो पत्नी तलाक़ प्राप्त कर सकती है।

यह प्रावधान विशेष रूप से उन स्थितियों के लिए है।

जब पति ने बहुविवाह किया हो।

इससे पत्नी की वैवाहिक स्थिति पर बुरा असर पड़ा हो।

धारा 13(2)(ii): पति द्वारा बलात्कार,अप्राकृतिक यौन संबंध या पशुगमन(Husband Guilty of Committing Rape, Sodomy or Bestiality)

विवरण:

यदि पति ने बलात्कार (rape) किया है, तो पत्नी तलाक़ की याचिका दायर कर सकती है।

अप्राकृतिक यौन संबंध (sodomy) भी एक आधार हो सकता है।

या अगर पति ने पशुगमन (bestiality) जैसे गंभीर यौन अपराध किए हैं, तब भी तलाक़ की याचिका संभव है।

यह प्रावधान पत्नी को गंभीर यौन अपराधों से सुरक्षा देता है।

ऐसे अपराध विवाहिक जीवन को असहनीय बना सकते हैं।

इस आधार पर तलाक़ पाने के लिए पत्नी को साबित करना होगा कि पति ने इनमें से कोई एक अपराध किया है।

NOTE: पशुगमन- पारंपरिक रूप से, इसका उपयोग उस समय किया जाता है

जब किसी का आचरण या सोचने का तरीका अत्यधिक निम्नस्तरीय या अमानवीय हो।

धारा 13(2)(iii): भरण-पोषण का आदेश या निर्णय

विवरण:

यदि पत्नी को भरण-पोषण (maintenance) के लिए अदालत से आदेश मिल चुका है।

तब वह तलाक़ की याचिका दायर कर सकती है।

इसका मतलब यह है कि पत्नी को भरण-पोषण का आदेश मिला है।

लेकिन पति इसका पालन नहीं कर रहा है।

या पति भरण-पोषण देने में असमर्थ है। ऐसी स्थिति में पत्नी तलाक़ के लिए आवेदन कर सकती है।

यह उन मामलों के लिए है। जब पति भरण-पोषण के आदेश का पालन न करे।

धारा 13(2)(iv): किशोरावस्था का विकल्प (Option of Puberty)

विवरण:

इस प्रावधान के तहत, पत्नी तलाक़ के लिए याचिका दायर कर सकती है।

यदि उसने विवाह के समय किशोरावस्था (puberty) का विकल्प चुना हो।

और अब वह इसे स्वीकार नहीं कर रही है।

इसका मतलब है कि अगर पत्नी ने विवाह के समय किशोरावस्था के विकल्प के रूप में शादी की थी।

और अब वह मानती है कि उसने किशोरावस्था में पूरी समझ के बिना शादी की थी।

तो वह तलाक़ के लिए आवेदन कर सकती है। यह प्रावधान उन स्थितियों के लिए है।

जब पत्नी शादी के समय अपनी पूरी समझ नहीं रखती थी।

और अब वह इस स्थिति को अस्वीकार करती है।

अहम् फ़ैसले: तलाक का आदेश हासिल करने के लिए के सन्दर्भ में

चंद्रमा बनाम कमला (AIR 1965 SC 364)

मुख्य बिंदु:

1. इस मामले में धारा 13(2)(i) के तहत पत्नी को तलाक़ का अधिकार मिला।

क्योंकि पति ने दूसरी शादी की थी, जबकि पहली पत्नी जीवित थी।

2. न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यदि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 से पहले पति ने दूसरा विवाह किया है।

तो पत्नी को तलाक़ का अधिकार है।

3. अदालत ने इस आधार पर तलाक़ की अनुमति दी और दूसरी शादी को अवैध घोषित किया।

2. शारदा बनाम धर्मपाल (2003 AIR SC 3450)

मुख्य बिंदु:

1. इस मामले में धारा 13(2)(ii) के तहत पत्नी ने तलाक़ की याचिका दायर की, जिसमें पति पर बलात्कार और यौन हिंसा के आरोप थे।

2.अदालत ने कहा कि अगर पति द्वारा इस प्रकार का अपराध साबित होता है, तो यह तलाक के लिए पर्याप्त आधार है।

3. इस फैसले में न्यायालय ने यह सुनिश्चित किया कि पत्नी को इस आधार पर तलाक मिल सकता है।

क्योंकि यह उसके सम्मान और सुरक्षा का उल्लंघन है।

3. रेणु बनाम राधेश्याम (AIR 1991 Raj 156)

मुख्य बिंदु:

1. इस मामले में धारा 13(2)(iii) के तहत पत्नी ने तलाक के लिए याचिका दायर की, जब पति के खिलाफ भरण-पोषण (maintenance) का आदेश जारी होने के बावजूद पति ने उसे वापस घर नहीं बुलाया।

2. न्यायालय ने यह कहा कि अगर पति अदालत के आदेश के बावजूद पत्नी को पुनः साथ रखने में असफल रहता है, तो यह तलाक का आधार है।

3. यह निर्णय पत्नी के आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण मिसाल के रूप में देखा गया।

इन तीन ऐतिहासिक फैसलों में, अदालत ने धारा 13(2) के तहत पत्नी को दिए गए विशिष्ट तलाक के अधिकारों को स्पष्ट किया है। इनमें बहुविवाह, यौन हिंसा, और भरण-पोषण से संबंधित आधारों पर पत्नी को तलाक का अधिकार दिया गया है। यह प्रावधान महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा और उनके सम्मान को बनाए रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

3.धारा 13B: आपसी सहमति (Mutual Consent) 

धारा 13B हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 में 1976 के संशोधन के तहत जोड़ी गई थी। इस धारा के तहत, पति और पत्नी दोनों मिलकर विवाह का अंत करने के लिए अदालत में याचिका दायर कर सकते हैं। यहाँ धारा 13B के तहत तलाक प्राप्त करने की प्रक्रिया और शर्तें विस्तार से दी गई हैं:

धारा 13B का विवरण:

1. आपसी सहमति से तलाक की प्रक्रिया:

सहमति की आवश्यकता: इस धारा के तहत तलाक प्राप्त करने के लिए, पति और पत्नी को इस पर पूर्ण सहमति प्रकट करनी होती है कि वे विवाह को समाप्त करना चाहते हैं। दोनों को एक संयुक्त याचिका दायर करनी होती है जिसमें वे अपने निर्णय को स्पष्ट रूप से बताएं।

याचिका दायर करना: पति और पत्नी को एक याचिका दायर करनी होती है जिसमें वे यह प्रमाणित करें कि वे एक दूसरे से अलग होना चाहते हैं और विवाह को समाप्त करने के लिए सहमत हैं।

2. अवधि की आवश्यकता:

पहले याचिका दायर करने की तारीख से छह महीने का समय: एक बार जब याचिका दायर की जाती है, तो अदालत पति-पत्नी को कम से कम छह महीने का समय देती है, ताकि वे अपनी स्थिति पर पुनर्विचार कर सकें और सुनिश्चित कर सकें कि वे इस निर्णय पर स्थिर हैं।

मूल्यांकन अवधि: इस छह महीने की अवधि के दौरान, अगर पति और पत्नी का मन बदलता है और वे पुनः एक साथ रहना चाहते हैं, तो वे अदालत से अनुरोध कर सकते हैं कि याचिका को वापस ले लिया जाए।

3. अंतिम आदेश:

अंतरिम आदेश: यदि छह महीने की अवधि के बाद भी पति और पत्नी के बीच कोई विवाद नहीं होता है और वे अपने निर्णय पर अडिग हैं, तो अदालत तलाक का अंतिम आदेश देती है।

अंतिम तलाक का आदेश: अदालत द्वारा अंतिम आदेश जारी करने के बाद, विवाह समाप्त हो जाता है और दोनों पति-पत्नी कानूनी रूप से स्वतंत्र हो जाते हैं।

धारा 13B के प्रमुख लाभ:

सहमति पर आधारित: यह धारा पति-पत्नी को आपसी सहमति से तलाक लेने की अनुमति देती है, जिससे विवादों और कानूनी संघर्षों को कम किया जा सकता है।

समय की अवधि: छह महीने की अवधि का प्रावधान पति-पत्नी को तलाक के निर्णय पर पुनर्विचार का अवसर प्रदान करता है, जो उनकी स्थिति को स्पष्ट करने में मदद करता है।

सहज प्रक्रिया: इस प्रक्रिया के तहत तलाक लेना अधिक सरल और कम विवादास्पद होता है, क्योंकि यह पति-पत्नी के आपसी सहमति पर आधारित होता है।

इस प्रकार, धारा 13B तलाक की एक अधिक सौहार्दपूर्ण और सहमति आधारित विधि प्रदान करती है, जो दोनों पक्षों के बीच शांति और सहमति को बढ़ावा देती है।

अहम् फ़ैसले: तलाक का आदेश हासिल करने के लिए के सन्दर्भ में

संजय अग्रवाल बनाम नीतू अग्रवाल (2006)

मुख्य बिंदु:

1. इस मामले में, आपसी सहमति से तलाक लेने की याचिका के बाद, पति ने छः महीने की अवधि के बाद सहमति वापस ले ली थी।

2. न्यायालय ने कहा कि धारा 13B(2) के तहत तलाक के लिए दोनों पक्षों की सहमति अंतिम आदेश तक बनी रहनी चाहिए।

3. इस मामले में अदालत ने स्पष्ट किया कि अगर कोई पक्ष छः महीने की प्रतीक्षा अवधि के बाद सहमति वापस लेता है, तो तलाक की प्रक्रिया जारी नहीं रह सकती।

2. सुरेखा बनाम दीपक (2007)

मुख्य बिंदु:

1. इस मामले में आपसी सहमति से तलाक की याचिका दायर की गई, लेकिन पति-पत्नी के बीच पुनर्विचार के बाद फिर से एक साथ रहने का निर्णय हुआ।

2. सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि आपसी सहमति के तलाक की प्रक्रिया के दौरान अगर दोनों पक्ष अपनी सहमति वापस ले लेते हैं, तो विवाह को समाप्त करने का आदेश नहीं दिया जा सकता।

3.यह निर्णय आपसी सहमति से तलाक के महत्व और सहमति की स्थिरता को स्पष्ट करता है।

3. अमित कुमार बनाम सुमन कुमारी (2011)

मुख्य बिंदु:

1. इस मामले में, पति-पत्नी के बीच तलाक की याचिका आपसी सहमति से दायर की गई थी, लेकिन पति ने दूसरी शादी करने की इच्छा से यह तलाक की याचिका डाली।

2. न्यायालय ने कहा कि आपसी सहमति से तलाक में किसी एक पक्ष द्वारा छिपी मंशा के आधार पर तलाक लेना अनुचित है।

3. इस मामले में अदालत ने स्पष्ट किया कि तलाक का उद्देश्य ईमानदारी और पारदर्शिता पर आधारित होना चाहिए, न कि किसी व्यक्तिगत लाभ के लिए।

इन फैसलों ने यह स्पष्ट किया है कि आपसी सहमति से तलाक के मामलों में दोनों पक्षों की सहमति अंतिम आदेश तक बनी रहनी चाहिए। अगर किसी भी पक्ष की सहमति समाप्त हो जाती है, तो तलाक का आदेश नहीं दिया जा सकता। साथ ही, तलाक की प्रक्रिया के दौरान पारदर्शिता और ईमानदारी अनिवार्य हैं।

धारा 13(1A): हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 

धारा 13(1A) हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत पति और पत्नी को न्यायिक पृथक्करण (Judicial Separation) या वैवाहिक अधिकारों की पुनः स्थापना (Restitution of Conjugal Rights) के आदेश के बावजूद एक वर्ष तक साथ न रहने पर तलाक की याचिका दायर करने का अधिकार देती है। इसका मतलब है कि यदि अदालत ने न्यायिक पृथक्करण या वैवाहिक अधिकारों की पुनः स्थापना का आदेश दिया हो और उसके बावजूद भी पति-पत्नी एक साल तक साथ न रह सकें, तो दोनों में से कोई भी तलाक की मांग कर सकता है।

अहम् फ़ैसले: तलाक का आदेश हासिल करने के लिए के सन्दर्भ में

यहाँ कुछ अहम् फ़ैसले  दिए गए हैं जो धारा 13(1A) की व्याख्या करते हैं:

1. धनवल्लभ बनाम गोविंदबाई (1979)

मुख्य बिंदु:

1. इस मामले में, न्यायालय ने धारा 13(1A) के तहत तलाक के अधिकार को स्पष्ट किया।

2. न्यायालय ने कहा कि यदि न्यायिक पृथक्करण का आदेश पारित हो जाता है।

और एक वर्ष तक पति-पत्नी एक साथ नहीं रहते हैं।

तो कोई भी पक्ष तलाक़ के लिए याचिका दायर कर सकता है।

यहां पर गलती की कोई भी बात नहीं होती।

न्यायिक पृथक्करण के आदेश के समय किसकी गलती थी, इसका असर नहीं पड़ता।

3. यह निर्णय महत्वपूर्ण है क्योंकि यह स्पष्ट करता है कि तलाक के लिए गलती का सवाल इस धारा के तहत महत्वहीन हो जाता है।

2. कृष्णा बनाम भीम सिंह (1980)

मुख्य बिंदु:

1. इस फैसले में, न्यायालय ने माना कि न्यायिक पृथक्करण का आदेश प्राप्त होने के बाद भी अगर दोनों पति-पत्नी एक साल तक अलग रहते हैं, तो यह तलाक का वैध आधार है।

2. अदालत ने कहा कि यह धारा पति और पत्नी दोनों को एक वर्ष के पृथक्करण के बाद पुनर्विचार करने का मौका देती है, और अगर वे एक साथ नहीं आ सकते, तो तलाक के लिए याचिका दायर की जा सकती है।

3.यह निर्णय आपसी सहमति के बिना भी तलाक की प्रक्रिया को आसान बनाता है।

3. सुरेश बनाम विमला (1982)

मुख्य बिंदु:

1. इस मामले में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धारा 13(1A) के तहत तलाक का अधिकार एक ऐसा अधिकार है जो न्यायिक पृथक्करण या वैवाहिक अधिकारों की पुनः स्थापना के आदेश के एक वर्ष बाद प्राप्त होता है।

2. अदालत ने कहा कि इस प्रावधान का उद्देश्य यह है कि यदि अदालत के आदेश के बावजूद पति-पत्नी एक साथ नहीं आ पाते हैं, तो उनके विवाह को समाप्त करना उनके हित में हो सकता है।

3.इस फैसले में धारा 13(1A) को वैवाहिक जीवन में सुधार और शांति के साधन के रूप में देखा गया।

धारा 13(1A) के तहत तलाक के लिए याचिका दायर करने का अधिकार उन परिस्थितियों में दिया जाता है जब पति और पत्नी न्यायिक पृथक्करण या वैवाहिक अधिकारों की पुनः स्थापना के आदेश के बावजूद एक साथ नहीं रहते हैं। यह प्रावधान यह सुनिश्चित करता है कि यदि विवाह को बचाया नहीं जा सकता है, तो इसे समाप्त करने का अवसर दोनों पक्षों को दिया जाए।

धारा 13A: तलाक की कार्यवाही में वैकल्पिक राहत 

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत धारा 13A में  एक महत्वपूर्ण प्रावधान है।

यह अदालत को तलाक की याचिका पर सुनवाई करते समय वैकल्पिक राहत देने का अधिकार प्रदान करता है।

इस धारा के अनुसार, अगर अदालत को लगता है कि तलाक के बजाय न्यायिक पृथक्करण (Judicial Separation) का आदेश देना उचित होगा।

तो वह ऐसा कर सकती है।

अदालत को तलाक की याचिका पर वैकल्पिक राहत देने का अधिकार :

मुख्य बिंदु:

1. वैकल्पिक राहत का प्रावधान: धारा 13A का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है।

कि तलाक की याचिका पर सुनवाई के दौरान अदालत वैवाहिक जीवन को एक और अवसर दे सके।

इसके तहत अदालत को यह अधिकार प्राप्त है।

अदालत तलाक के बजाय न्यायिक पृथक्करण का आदेश दे सकती है।

2. न्यायिक विवेक: इस धारा के तहत अदालत को स्वतंत्रता दी गई है।

अदालत परिस्थितियों का आकलन कर सकती है।

वह तय कर सकती है कि क्या तलाक के बजाय न्यायिक पृथक्करण (judicial separation) एक बेहतर विकल्प हो सकता है।

इससे पति-पत्नी के संबंधों को सुधारने का अवसर मिल सकता है।

3. अधिकार का प्रयोग: जब कोई तलाक की याचिका दायर करता है।

तो अदालत पूरी स्थिति का आकलन करती है।

अदालत यह देखती है कि क्या विवाह को बचाने की संभावना है।

यदि अदालत को लगता है कि तलाक के बजाय न्यायिक पृथक्करण (judicial separation) एक बेहतर समाधान हो सकता है।

तो वह तलाक की याचिका को निरस्त कर सकती है। और

न्यायिक पृथक्करण का आदेश दे सकती है।

धारा 13A एक वैकल्पिक राहत प्रदान करने वाला प्रावधान है, जो अदालत को तलाक की कार्यवाही के दौरान न्यायिक पृथक्करण का आदेश देने का अधिकार देता है, अगर वह यह समझती है कि यह वैवाहिक जीवन को सुधारने का एक बेहतर अवसर हो सकता है। इस प्रावधान का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि तलाक के कठोर परिणाम से पहले वैवाहिक संबंधों को सुधारने का हर संभव प्रयास किया जाए।

अहम् फ़ैसले: तलाक का आदेश हासिल करने के लिए के सन्दर्भ में

धारा 13A:  के तहत दिए गए तीन महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय नीचे दिए गए हैं, जो इस धारा के उपयोग और महत्व को स्पष्ट करते हैं:

1. कैलाशवती बनाम अयोध्या प्रसाद (1977)

मुख्य बिंदु:

1. इस मामले में, पति ने तलाक की याचिका दायर की थी, लेकिन अदालत ने पाया कि उनके बीच विवाह को पूरी तरह से समाप्त करने की आवश्यकता नहीं थी।

2. सुप्रीम कोर्ट ने धारा 13A के तहत यह आदेश दिया कि तलाक के बजाय न्यायिक पृथक्करण का आदेश दिया जाना चाहिए, ताकि दोनों पक्षों को अपने संबंधों को सुधारने का एक और अवसर मिल सके।

3. यह निर्णय बताता है कि तलाक के स्थान पर न्यायिक पृथक्करण का आदेश दिया जा सकता है, अगर अदालत को लगता है कि विवाह को सुधारने का कोई मौका है।

2. रोशन लाल बनाम विमला देवी (1980)

मुख्य बिंदु:

1. इस मामले में, पति ने अपनी पत्नी के खिलाफ तलाक की याचिका दायर की, लेकिन अदालत ने तलाक देने के बजाय न्यायिक पृथक्करण का आदेश दिया।

2. न्यायालय ने कहा कि धारा 13A का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि विवाह को समाप्त करने से पहले उसे सुधारने का अवसर दिया जाए।

3. अदालत ने तलाक के बजाए न्यायिक पृथक्करण को प्राथमिकता दी, ताकि दोनों पक्षों को अपने रिश्ते पर विचार करने का समय मिल सके।

3. सुरेश कुमार बनाम माया देवी (1990)

मुख्य बिंदु:

1. इस फैसले में, न्यायालय ने तलाक की याचिका पर सुनवाई करते समय पाया कि दंपति के बीच मतभेद गंभीर थे, लेकिन उनका विवाह पूरी तरह से असफल नहीं हुआ था।

2. अदालत ने तलाक की याचिका खारिज करते हुए धारा 13A के तहत न्यायिक पृथक्करण का आदेश दिया, जिससे दोनों पक्षों को अपने वैवाहिक जीवन को सुधारने का एक अवसर मिला।

3.इस मामले में, न्यायालय ने तलाक के बजाय विवाह को सुधारने के लिए न्यायिक पृथक्करण को एक बेहतर विकल्प के रूप में माना।

इन निर्णयों ने यह स्पष्ट किया कि धारा 13A अदालत को तलाक की प्रक्रिया में एक वैकल्पिक राहत प्रदान करने का अधिकार देती है। अदालत तलाक के बजाय न्यायिक पृथक्करण का आदेश दे सकती है, जिससे पति-पत्नी को अपने संबंधों को सुधारने का अवसर मिलता है।

निष्कर्ष: 

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत तलाक प्राप्त करने के लिए विभिन्न कानूनी आधार निर्धारित किए गए हैं।

धारा 13(1) के तहत पति और पत्नी दोनों के लिए सामान्य आधार होते हैं।

धारा 13(2) के तहत पत्नी के लिए विशेष आधार निर्धारित हैं।

इसके अतिरिक्त, धारा 13B के तहत आपसी सहमति से तलाक का प्रावधान है।

तलाक की प्रक्रिया में अदालत सभी परिस्थितियों और तथ्यों की गहन समीक्षा करती है।

विवाह की समाप्ति से पहले, वैवाहिक जीवन को सुधारने के सभी प्रयासों पर विचार किया जाता है।

यदि विवाह को जारी रखना असंभव हो जाए, तो अदालत तलाक का आदेश देती है।

इस प्रक्रिया का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि पति-पत्नी के बीच न्यायपूर्ण समाधान प्राप्त हो।

दोनों पक्षों के अधिकारों और हितों की रक्षा की जाती है।

तलाक प्राप्त करने की प्रक्रिया जटिल हो सकती है।

इसलिए उचित कानूनी सलाह लेना महत्वपूर्ण है।

यह सुनिश्चित करता है कि कानूनी अधिकारों की जानकारी के साथ सही कदम उठाए जा सकें।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *