Author: Er. Kabir Khan B.E.(Civil Engg.) LLB, LLM
परिचय:
भारत में महिलाएं ख़ासकर बीवियों के लिए भरण-पोषण (गुजारा -भत्ता) का हक़ एक अहम क़ानूनी तहफ़्फ़ुज़ (सुरक्षा) है, जो उनके मआशी (आर्थिक) फ़लाह-ओ-बहबूद (कल्याण/भलाई)और ज़रूरी ज़िंदगी की ज़रूरतों को पूरा करने में मदद करता है। इस हक़ का मक़सद यह है कि ख़वातीन (महिलाएं), चाहे वो शादी के दौरान हों, जुदाई की हालत में हों, या तलाक़ के बाद, किसी भी माली (वित्तीय) परेशानी का शिकार न हों। हिंदुस्तानी क़ानून शौहरों पर ये ज़िम्मेदारी डालता है कि वो अपनी बीवी के रोज़मर्रा की ज़रूरतों और ख़र्चों के लिए माली मदद मुहैया करें, चाहे जुदाई की वजह जिस्मानी, ज़हनी या जज़्बाती (भावनात्मक) हो।
मौजूदा दौर में, जहां महिलाओं का समाजी और मआशी किरदार बदल रहा है, उनके क़ानूनी हुक़ूक़ से आगाही (जागरूकता) बेहद ज़रूरी है। शादी से जुड़ी किसी भी नाख़ुशगवार सूरत-ए-हाल (तकलीफ़देह हालात) या शौहर की लापरवाही की सूरत में, ख़वातीन (महिलाएं) अपने भरण-पोषण का हक़ हासिल करने के लिए क़ानून का सहारा ले सकती हैं। यह क़ानूनी निज़ाम न सिर्फ़ ख़वातीन को तहफ़्फ़ुज़ (सुरक्षा) फ़राहम (उपलब्ध) करता है, बल्कि यक़ीनी बनाता है कि वो इज़्ज़त-ओ-आबरू के साथ अपनी ज़िंदगी गुज़ार सकें, चाहे उनकी शादी किसी भी पड़ाव में हो।
FOR STUDENTS-
Question: Who are the persons who can claim maintenance against a Hindu male ? what are the considerations to which the court shall have regard for exercising its discretion in fixing the amount of maintenance ?
प्रश्न: वे कौन से व्यक्ति हैं जो हिंदू पुरुष के विरुद्ध भरण-पोषण का दावा कर सकते हैं? भरण-पोषण की राशि निर्धारित करने में न्यायालय को अपने विवेक का प्रयोग करते समय किन बातों को ध्यान में रखना चाहिए?
भरण-पोषण की कानूनी परिभाषा:
यहाँ भरण-पोषण का अर्थ है वह वित्तीय सहायता जो एक पति अपनी पत्नी को क़ानूनी तौर पर प्रदान करने के लिए बाध्य है। यह सहायता पत्नी के जीवनयापन की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए होती है, जैसे कि घर, खाना, कपड़े, और इलाज। क़ानूनी दृष्टिकोण से, भरण-पोषण केवल जीवन की अनिवार्य ज़रूरतों को ही कवर नहीं करता बल्कि शादी के दौरान पत्नी की ज़िंदगी की गुणवत्ता को बनाए रखने में भी मदद करता है। भारतीय क़ानून के तहत, गुजारा भत्ता वह राशि होती है जिसे पति पत्नी को जुदाई या तलाक के बाद एक बार या नियमित तौर पर देता है।
वे कौन से व्यक्ति हैं जो हिंदू पुरुष के विरुद्ध भरण-पोषण का दावा कर सकते हैं?
हिंदू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 (Hindu Adoption and Maintenance Act, 1956) के तहत निम्नलिखित व्यक्तियों को हिंदू पुरुष के विरुद्ध भरण-पोषण का दावा करने का अधिकार है:
1. पत्नी (Wife) [धारा 18, Section 18]
- धारा 18(1): हिंदू पति की पत्नी, जब तक वह विवाहित है और पति द्वारा त्याग या अन्यायपूर्ण व्यवहार के बिना पति के साथ रहती है, अपने पति से भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार रखती है।
- धारा 18(2): यदि पत्नी को पति द्वारा त्याग दिया गया हो, या वह पति के क्रूर व्यवहार, गंभीर बीमारी, या विवाह में दूसरी पत्नी की उपस्थिति जैसी स्थितियों के कारण पति से अलग रहती है, तो वह भरण-पोषण का दावा कर सकती है।
अहम फैसले:
1. शमिमा फारूकी बनाम शाहिद खान (2015)
मुद्दा: पत्नी का भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार।
फैसला: पति की आय अस्थिर होने के बावजूद पत्नी को सम्मानजनक जीवन जीने के लिए पर्याप्त भरण-पोषण मिलना चाहिए।
मुख्य बिंदु: पत्नी को अपनी आजीविका के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता और उसे पति से उचित भरण-पोषण मिलना चाहिए।
2. विनिता सक्सेना बनाम पूर्ण सक्सेना ( 2006)
मुद्दा: पति के क्रूर व्यवहार या त्याग के कारण पत्नी का भरण-पोषण का दावा।
फैसला: पत्नी को पति से भरण-पोषण का अधिकार है यदि वह पति के दुर्व्यवहार के कारण अलग रहती है।
मुख्य बिंदु: भरण-पोषण की राशि तय करते समय पत्नी की आवश्यकताओं और पति की वित्तीय स्थिति को ध्यान में रखना आवश्यक है।
2. विधवा बहू [धारा 19]
- धारा 19(1): हिंदू पुरुष की विधवा बहू, जिसके पति का निधन हो चुका है और जो अपनी आजीविका के लिए किसी अन्य साधन पर निर्भर नहीं है, वह अपने ससुर से भरण-पोषण की मांग कर सकती है, बशर्ते कि वह अपने माता-पिता से भरण-पोषण लेने की पात्र न हो।
अहम फैसले:
भगवती चरण बनाम कंठा देवी ( 1974)
मुद्दा: विधवा बहू का अपने ससुर से भरण-पोषण का दावा।
फैसला: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि यदि विधवा बहू अपनी जीविका के लिए किसी अन्य स्रोत पर निर्भर नहीं है और अपने माता-पिता से भरण-पोषण प्राप्त करने की पात्र नहीं है, तो वह अपने ससुर से भरण-पोषण की मांग कर सकती है।
मुख्य बिंदु: ससुर पर केवल तभी भरण-पोषण की जिम्मेदारी बनती है, जब विधवा बहू अपने माता-पिता से सहायता प्राप्त करने में सक्षम न हो और उसकी आजीविका के लिए कोई अन्य साधन उपलब्ध न हो।
2. सरला बनाम कमलेश ( 1999)
मुद्दा: ससुर द्वारा विधवा बहू को भरण-पोषण प्रदान करने की बाध्यता।
फैसला: मद्रास हाईकोर्ट ने निर्णय दिया कि यदि विधवा बहू अपनी आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करने में असमर्थ है और उसके पास आय का कोई स्रोत नहीं है, तो ससुर से भरण-पोषण का दावा जायज है, बशर्ते कि वह अपने माता-पिता से सहायता प्राप्त करने की पात्र न हो।
मुख्य बिंदु: ससुर से भरण-पोषण का दावा तभी वैध होता है, जब बहू के पास भरण-पोषण का कोई अन्य विकल्प न हो और उसके माता-पिता उसे सहायता प्रदान करने में सक्षम न हों।
इन दोनों फैसलों में यह स्थापित किया गया कि विधवा बहू अपने ससुर से भरण-पोषण का दावा तब कर सकती है जब उसके पास जीविका का अन्य कोई साधन न हो और वह अपने माता-पिता से सहायता प्राप्त करने की पात्र न हो।
3. बच्चे (Children) [धारा 20, Section 20]
- धारा 20(1): हिंदू पुरुष के वैध या दत्तक पुत्र/पुत्री और अविवाहित पुत्री, जब तक कि वे नाबालिग हैं, अपने पिता से भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार रखते हैं।
- धारा 20(2): अक्षम पुत्र या पुत्री, चाहे वह नाबालिग हो या बालिग, यदि वह स्वयं का भरण-पोषण नहीं कर सकता है, तो वह भरण-पोषण प्राप्त करने का हकदार है।
अहम फैसले:
कमला देवी बनाम केशव चंद्र (1982)
मुद्दा: अवयस्क पुत्री द्वारा पिता से भरण-पोषण का दावा।
फैसला: सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि एक अविवाहित नाबालिग पुत्री अपने पिता से भरण-पोषण का अधिकार रखती है, और पिता को अपनी पुत्री के भरण-पोषण के लिए आवश्यक धनराशि प्रदान करनी चाहिए। कोर्ट ने यह भी कहा कि यह जिम्मेदारी केवल तब तक है, जब तक पुत्री की शादी नहीं हो जाती या वह स्वयं की आजीविका के लिए सक्षम न हो जाए।
मुख्य बिंदु: नाबालिग और अविवाहित पुत्री को अपने पिता से भरण-पोषण प्राप्त करने का पूरा अधिकार है।
2. जगदीश जुगल किशोर अरोड़ा बनाम पुष्पा देवी (1978)
मुद्दा: विकलांग बालिग पुत्र द्वारा भरण-पोषण का दावा।
फैसला: बॉम्बे हाईकोर्ट ने निर्णय दिया कि अगर एक पुत्र या पुत्री किसी विकलांगता या बीमारी के कारण अपनी जीविका के लिए सक्षम नहीं है, तो वह भले ही बालिग हो, अपने पिता से भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार रखता है। कोर्ट ने कहा कि इस स्थिति में माता-पिता की जिम्मेदारी है कि वे अपने अक्षम संतान का भरण-पोषण करें।
मुख्य बिंदु: विकलांग बालिग पुत्र या पुत्री को भी अपने पिता से भरण-पोषण प्राप्त करने का हक है, यदि वह स्वयं की आजीविका के लिए सक्षम नहीं है।
इन दोनों फैसलों में यह स्थापित किया गया है कि नाबालिग और अविवाहित पुत्री और विकलांग बालिग संतान अपने पिता से भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार रखते हैं, और पिता की जिम्मेदारी है कि वह अपनी संतानों के भरण-पोषण की व्यवस्था करे।
4. माता-पिता (Parents) [धारा 20, Section 20]
- धारा 20(3): वृद्ध और अक्षम माता-पिता, चाहे वे पिता हों या माता, यदि वे स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं, तो वे अपने पुत्र से भरण-पोषण का दावा कर सकते हैं।
अहम फैसले:
कुसुम बनाम हरि (1999)
मुद्दा: वृद्ध माता-पिता द्वारा पुत्र से भरण-पोषण का दावा।
फैसला: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि अगर वृद्ध माता-पिता अपने जीवन-यापन के लिए स्वयं सक्षम नहीं हैं, तो वे अपने पुत्र से भरण-पोषण का अधिकार रखते हैं। अदालत ने यह भी कहा कि यह जिम्मेदारी पुत्र की नैतिक और कानूनी दोनों ही दृष्टि से अनिवार्य है।
मुख्य बिंदु: वृद्ध माता-पिता, जिनके पास आजीविका का कोई साधन नहीं है, अपने पुत्र से भरण-पोषण का दावा कर सकते हैं।
2. बसीमती देवी बनाम रामरतन (2002)
मुद्दा: असक्षम माता-पिता द्वारा पुत्र से भरण-पोषण का दावा।
फैसला: पटना हाईकोर्ट ने निर्णय दिया कि माता-पिता, जो वृद्ध या अक्षम होने के कारण स्वयं का भरण-पोषण नहीं कर सकते, वे अपने पुत्र से भरण-पोषण की मांग कर सकते हैं। यह पुत्र की कानूनी जिम्मेदारी है कि वह अपने माता-पिता का भरण-पोषण सुनिश्चित करे, भले ही माता-पिता के पास कोई आय का स्रोत न हो।
मुख्य बिंदु: अक्षम माता-पिता, जिनकी आय का कोई स्रोत नहीं है, अपने पुत्र से भरण-पोषण की मांग करने का अधिकार रखते हैं।
इन दोनों फैसलों में यह स्पष्ट किया गया कि वृद्ध और अक्षम माता-पिता, जो अपनी जीविका के लिए अन्य किसी साधन पर निर्भर नहीं हैं, अपने पुत्र से भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार रखते हैं, और यह पुत्र की कानूनी और नैतिक जिम्मेदारी है।
5. निर्भर व्यक्ति” (Dependents) -धारा 21
हिंदू दत्तक और गुजारा -भत्ता अधिनियम, 1956 की धारा 21 (Section 21) में “निर्भर व्यक्ति” (Dependents) की परिभाषा दी गई है।ये वे व्यक्ति हैं जो हिंदू व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारियों से भरण-पोषण का दावा कर सकते हैं। अधिनियम के अनुसार, निम्नलिखित व्यक्तियों को “निर्भर व्यक्ति” माना गया है:
1. पिता (Father) और माता (Mother):
- हिंदू व्यक्ति का माता-पिता, जब तक वे स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं और उनके पास कोई अन्य साधन नहीं है, तब तक वे निर्भर माने जाते हैं।
2. विधवा पत्नी (Widow):
- हिंदू व्यक्ति की विधवा पत्नी जब तक वह पुनर्विवाह नहीं करती है, तब तक वह निर्भर मानी जाती है।
अहम फैसले:
रघुनाथ बनाम किधनो (1970)
मुद्दा: विधवा पत्नी का अपने पति की संपत्ति से भरण-पोषण का अधिकार।
फैसला: बॉम्बे हाईकोर्ट ने निर्णय दिया कि विधवा पत्नी को अपने मृत पति की संपत्ति से भरण-पोषण का अधिकार है, जब तक वह पुनर्विवाह नहीं करती। कोर्ट ने कहा कि विधवा पत्नी को संपत्ति से भरण-पोषण प्राप्त करना उसका कानूनी अधिकार है और इसे मृत पति की संपत्ति के उत्तराधिकारियों द्वारा चुनौती नहीं दी जा सकती।
मुख्य बिंदु: विधवा पत्नी को पति की संपत्ति से भरण-पोषण तब तक मिलना चाहिए, जब तक वह पुनर्विवाह नहीं करती।
2. भानवती बनाम गोकुलदास (1938)
मुद्दा: विधवा पत्नी का पुनर्विवाह न करने की स्थिति में भरण-पोषण का अधिकार।
फैसला: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह फैसला दिया कि यदि विधवा पत्नी का पुनर्विवाह नहीं हुआ है, तो वह अपने मृत पति की संपत्ति के भरण-पोषण की हकदार होती है। यह अधिकार विधवा पत्नी के पुनर्विवाह करने तक बना रहता है, और संपत्ति के उत्तराधिकारी इस अधिकार को समाप्त नहीं कर सकते।
मुख्य बिंदु: विधवा पत्नी का भरण-पोषण का अधिकार तब तक सुरक्षित है, जब तक वह पुनर्विवाह नहीं करती है।
इन दोनों फैसलों में यह स्पष्ट किया गया कि विधवा पत्नी को अपने मृत पति की संपत्ति से भरण-पोषण का अधिकार है और यह अधिकार तब तक बना रहता है, जब तक वह पुनर्विवाह नहीं करती है।
3. विधवा पुत्री (Unmarried Daughter):
- हिंदू व्यक्ति की अविवाहित या विधवा पुत्री, जब तक वह स्वयं का भरण-पोषण नहीं कर सकती है, तब तक निर्भर मानी जाती है।
अहम फैसले:
जोगिंदर कौर बनाम सुरजीत सिंह (1985)
मुद्दा: विधवा पुत्री का पिता की संपत्ति से भरण-पोषण का अधिकार।
फैसला: पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने यह फैसला दिया कि एक विधवा पुत्री, जो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं है, अपने पिता की संपत्ति से भरण-पोषण का दावा कर सकती है। कोर्ट ने कहा कि विधवा पुत्री को भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार तब तक है, जब तक वह पुनर्विवाह नहीं करती या अपनी आजीविका के लिए सक्षम नहीं हो जाती।
मुख्य बिंदु: आर्थिक रूप से निर्भर विधवा पुत्री को पिता की संपत्ति से भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार है।
2. सीता देवी बनाम रामसिंह (1996)
मुद्दा: अविवाहित पुत्री का भरण-पोषण का दावा।
फैसला: राजस्थान हाईकोर्ट ने निर्णय दिया कि अगर अविवाहित पुत्री स्वयं की आजीविका के लिए सक्षम नहीं है, तो उसे अपने पिता से भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार है। यह अधिकार पिता की संपत्ति से भी जुड़ा हुआ है और इसे संपत्ति के उत्तराधिकारियों द्वारा रोका नहीं जा सकता।
मुख्य बिंदु: अविवाहित और असमर्थ पुत्री, जो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं है, अपने पिता की संपत्ति से भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार रखती है।
इन दोनों फैसलों में यह स्थापित किया गया कि आर्थिक रूप से असमर्थ अविवाहित या विधवा पुत्री को पिता की संपत्ति से भरण-पोषण प्राप्त करने का पूरा अधिकार है, जब तक वह पुनर्विवाह नहीं करती या आत्मनिर्भर नहीं हो जाती।
4. नाबालिग पुत्र (Minor Son):
- हिंदू व्यक्ति का नाबालिग पुत्र, जब तक वह 18 वर्ष का नहीं हो जाता, निर्भर माना जाता है।
- यदि वह शारीरिक या मानसिक रूप से अशक्त है और स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ है, तो बालिग होने के बाद भी निर्भर माने जाने का हकदार होता है।
अहम फैसले:
मनोज कुमार बनाम बबिता (2006)
मुद्दा: नाबालिग पुत्र का भरण-पोषण का अधिकार।
फैसला: दिल्ली हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि एक नाबालिग पुत्र, जो 18 वर्ष से कम आयु का है, अपने पिता से भरण-पोषण प्राप्त करने का हकदार है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि पिता की आर्थिक स्थिति चाहे जो भी हो, वह अपने नाबालिग पुत्र का भरण-पोषण करने के लिए बाध्य है। यह जिम्मेदारी पुत्र के 18 वर्ष का होने तक बनी रहती है।
मुख्य बिंदु: नाबालिग पुत्र का 18 वर्ष की आयु तक अपने पिता से भरण-पोषण प्राप्त करने का कानूनी अधिकार है।
2. जयप्रकाश बनाम सविता (2012)
मुद्दा: मानसिक रूप से अशक्त बालिग पुत्र का भरण-पोषण का अधिकार।
फैसला: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने निर्णय दिया कि अगर कोई पुत्र मानसिक या शारीरिक रूप से अशक्त है और स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ है, तो वह बालिग होने के बाद भी अपने पिता से भरण-पोषण प्राप्त करने का हकदार है। कोर्ट ने कहा कि अशक्त पुत्र की जिम्मेदारी माता-पिता पर बनी रहती है, चाहे पुत्र की आयु 18 वर्ष से अधिक हो जाए।
मुख्य बिंदु: मानसिक या शारीरिक रूप से अशक्त बालिग पुत्र, जो स्वयं की आजीविका के लिए सक्षम नहीं है, अपने पिता से भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार रखता है।
इन दोनों फैसलों में यह स्पष्ट किया गया कि एक नाबालिग पुत्र 18 वर्ष की आयु तक अपने पिता से भरण-पोषण का अधिकार रखता है, और अगर वह शारीरिक या मानसिक रूप से अक्षम है, तो यह अधिकार बालिग होने के बाद भी बरकरार रहता है।
5. अविवाहित पुत्री (Unmarried Daughter):
- अविवाहित पुत्री, चाहे वह बालिग हो या नाबालिग, जब तक वह स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ है, निर्भर मानी जाती है।
अहम फैसले:
कुमार दुर्गा प्रसाद बनाम रंजनबेन (1985)
मुद्दा: बालिग अविवाहित पुत्री का भरण-पोषण का अधिकार।
फैसला: गुजरात हाईकोर्ट ने यह निर्णय दिया कि अविवाहित पुत्री, चाहे वह बालिग ही क्यों न हो, अगर वह स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ है, तो वह अपने पिता से भरण-पोषण प्राप्त करने की हकदार है। कोर्ट ने कहा कि अगर पुत्री की शिक्षा या किसी अन्य कारण से वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं है, तो पिता की जिम्मेदारी बनती है कि वह उसकी जरूरतों का ख्याल रखे।
मुख्य बिंदु: बालिग अविवाहित पुत्री, जो आत्मनिर्भर नहीं है, अपने पिता से भरण-पोषण प्राप्त करने का कानूनी अधिकार रखती है।
2. डॉ. जगदीश चंद्रा बनाम रीता (1996)
मुद्दा: नाबालिग और बालिग अविवाहित पुत्री का भरण-पोषण का अधिकार।
फैसला: राजस्थान हाईकोर्ट ने यह फैसला दिया कि एक अविवाहित पुत्री, चाहे वह नाबालिग हो या बालिग, अगर वह अपनी आजीविका के लिए सक्षम नहीं है, तो उसे अपने पिता से भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि बालिग पुत्री की शिक्षा या अन्य आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि पिता उसकी सभी जरूरतों को पूरा करे।
मुख्य बिंदु: अविवाहित पुत्री, चाहे वह बालिग हो या नाबालिग, अगर वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं है, तो वह अपने पिता से भरण-पोषण का दावा कर सकती है।
इन दोनों फैसलों में यह स्पष्ट किया गया है कि अविवाहित पुत्री, जब तक वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं है, अपने पिता से भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार रखती है, चाहे वह बालिग हो या नाबालिग।
6. अक्षम बालिग पुत्र (Incapacitated Adult Son):
- कोई भी बालिग पुत्र, जो शारीरिक या मानसिक अशक्तता के कारण अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, निर्भर माना जाता है।
अहम फैसले:
सुभाष बनाम शांति (2004)
मुद्दा: मानसिक रूप से अशक्त बालिग पुत्र का भरण-पोषण का अधिकार।
फैसला: दिल्ली हाईकोर्ट ने यह निर्णय दिया कि यदि कोई बालिग पुत्र मानसिक रूप से अशक्त है और स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ है, तो वह अपने माता-पिता से भरण-पोषण का हकदार है। अदालत ने कहा कि माता-पिता की जिम्मेदारी है कि वे अपने अशक्त संतान का भरण-पोषण करें, चाहे उनकी आयु 18 वर्ष से अधिक हो।
मुख्य बिंदु: मानसिक रूप से अशक्त बालिग पुत्र, जो स्वयं की जीविका के लिए सक्षम नहीं है, अपने माता-पिता से भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार रखता है।
2. रामेश्वर बनाम कमला (2010)
मुद्दा: शारीरिक रूप से अशक्त बालिग पुत्र का भरण-पोषण का दावा।
फैसला: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने निर्णय दिया कि एक शारीरिक रूप से अशक्त बालिग पुत्र, जो अपनी आजीविका के लिए सक्षम नहीं है, अपने माता-पिता से भरण-पोषण की मांग कर सकता है। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि माता-पिता की जिम्मेदारी है कि वे अपने अशक्त संतान का भरण-पोषण सुनिश्चित करें।
मुख्य बिंदु: शारीरिक रूप से अशक्त बालिग पुत्र, जो स्वयं की आजीविका के लिए सक्षम नहीं है, अपने माता-पिता से भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार रखता है।
इन दोनों फैसलों में यह स्पष्ट किया गया कि कोई भी बालिग पुत्र, जो शारीरिक या मानसिक अशक्तता के कारण अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, अपने माता-पिता से भरण-पोषण प्राप्त करने का हकदार होता है।
7. दत्तक पुत्र और पुत्री (Adopted Son and Daughter):
- हिंदू व्यक्ति के दत्तक पुत्र और पुत्री, यदि वे उपर्युक्त श्रेणियों में आते हैं, तो वे भी निर्भर माने जाते हैं।
अहम फैसले:
कृष्णा बनाम पार्वती (1994)
मुद्दा: दत्तक पुत्र का भरण-पोषण का अधिकार।
फैसला: कर्नाटका हाईकोर्ट ने निर्णय दिया कि दत्तक पुत्र, जो अपने दत्तक माता-पिता की देखरेख में है, भरण-पोषण के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। अदालत ने कहा कि दत्तक पुत्र का अधिकार, यदि वह निर्भर श्रेणी में आता है, तब भी उसे अपने दत्तक माता-पिता से भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार है।
मुख्य बिंदु: दत्तक पुत्र, यदि निर्भर है, तो अपने दत्तक माता-पिता से भरण-पोषण की मांग कर सकता है।
2. सुभाषिनी बनाम अनंत (2001)
मुद्दा: दत्तक पुत्री का भरण-पोषण का अधिकार।
फैसला: मद्रास हाईकोर्ट ने निर्णय दिया कि दत्तक पुत्री, यदि वह आर्थिक रूप से निर्भर है, तो उसे अपने दत्तक माता-पिता से भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार है। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि दत्तक संबंध भी उतने ही कानूनी होते हैं जितने जैविक संबंध, और दत्तक संतान को अपने दत्तक माता-पिता की देखरेख का अधिकार है।
मुख्य बिंदु: दत्तक पुत्री, यदि निर्भर है, तो अपने दत्तक माता-पिता से भरण-पोषण की मांग कर सकती है।
इन दोनों फैसलों में यह स्पष्ट किया गया है कि दत्तक पुत्र और पुत्री, यदि वे निर्भर श्रेणी में आते हैं, तो उन्हें अपने दत्तक माता-पिता से भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार होता है।
8. सहायक/निर्भर व्यक्ति (Other Dependents):
- हिंदू व्यक्ति के परिवार का कोई अन्य सदस्य, जो उसके द्वारा मृत्यु से पहले भरण-पोषण प्राप्त कर रहा था, और स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ है, तब तक निर्भर माना जाता है जब तक उसे अन्य कोई भरण-पोषण का साधन नहीं मिल जाता।
अहम फैसले:
अजय बनाम सुमित्रा (2008)
मुद्दा: सहायक निर्भर व्यक्तियों का भरण-पोषण का अधिकार।
फैसला: दिल्ली हाईकोर्ट ने निर्णय दिया कि यदि कोई व्यक्ति हिंदू परिवार का सदस्य है और वह परिवार के मुखिया द्वारा मृत्यु से पहले भरण-पोषण प्राप्त कर रहा था, तो उसे निर्भर माना जाएगा। कोर्ट ने कहा कि ऐसे व्यक्ति को तब तक भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार है जब तक उसे अन्य कोई साधन नहीं मिलता।
मुख्य बिंदु: परिवार के सदस्य, जो भरण-पोषण प्राप्त कर रहे थे और असमर्थ हैं, वे निर्भर माने जाते हैं।
2. शांति बनाम राजेश (2013)
मुद्दा: सहायक निर्भर व्यक्तियों का भरण-पोषण का दावा।
फैसला: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने यह फैसला दिया कि परिवार का कोई सदस्य, जो मुखिया की मृत्यु के बाद भरण-पोषण प्राप्त करने में असमर्थ है, निर्भर माना जाएगा। अदालत ने कहा कि यह अधिकार तब तक बना रहेगा जब तक उस सदस्य को अन्य कोई भरण-पोषण का साधन नहीं मिलता।
मुख्य बिंदु: परिवार का सदस्य, जो पूर्व में भरण-पोषण प्राप्त कर रहा था और असमर्थ है, अपने अधिकारों को बनाए रखता है।
इन दोनों फैसलों में यह स्पष्ट किया गया कि हिंदू परिवार का कोई सदस्य, जो पहले भरण-पोषण प्राप्त कर रहा था और वर्तमान में असमर्थ है, तब तक निर्भर माना जाता है जब तक उसे अन्य कोई भरण-पोषण का साधन नहीं मिल जाता।
धारा 22 के तहत, निर्भर व्यक्तियों को मृतक हिंदू व्यक्ति की संपत्ति से गुजारा -भत्ता का दावा करने का अधिकार है, यदि वह संपत्ति उत्तराधिकारियों को हस्तांतरित की गई हो। इन व्यक्तियों को अपने भरण-पोषण के लिए उचित व्यवस्था की जाने की कानूनी अनुमति है।
यह भरण-पोषण का अधिकार केवल हिंदू व्यक्तियों पर लागू होता है, और इसके अंतर्गत उपर्युक्त सभी श्रेणियों के लोग हिंदू पुरुष के विरुद्ध भरण-पोषण का दावा कर सकते हैं, यदि वे स्वयं के भरण-पोषण के लिए असमर्थ हैं।
गुजारा -भत्ता की राशि निर्धारित करने में न्यायालय को अपने विवेक का प्रयोग करते समय किन बातों को ध्यान में रखना चाहिए ?
भरण-पोषण की राशि निर्धारित करते समय न्यायालय को निम्नलिखित बातों पर विचार करना चाहिए:
- आर्थिक स्थिति: पति और पत्नी की आय, संपत्ति, और वित्तीय स्थिति का आकलन करना।
- जीवन स्तर: पूर्व विवाह जीवन स्तर को ध्यान में रखना, ताकि भरण-पोषण की राशि उसे बनाए रखने में मदद करे।
- आवश्यकताएँ: याचिकाकर्ता की मूलभूत आवश्यकताएँ, जैसे आवास, भोजन, चिकित्सा, और शिक्षा।
- समय की अवधि: भरण-पोषण की जरूरत की अवधि, जैसे कि विधवापन या पुनर्विवाह की संभावना।
- संतानों की देखभाल: यदि बच्चे हैं, तो उनकी देखभाल और शिक्षा के लिए आवश्यक वित्तीय सहायता को ध्यान में रखना।
- सामाजिक और मानसिक स्थिति: याचिकाकर्ता की सामाजिक स्थिति और मानसिक स्वास्थ्य, जो उसके कार्य करने की क्षमता को प्रभावित कर सकता है।
- अक्षमता: यदि याचिकाकर्ता किसी कारणवश काम करने में असमर्थ है, तो इसकी जानकारी भी महत्वपूर्ण है।
- कानूनी प्रावधान: संबंधित कानूनी प्रावधानों और पूर्व के न्यायालय के निर्णयों का अवलोकन करना।
इन सभी बिंदुओं का संज्ञान लेकर न्यायालय भरण-पोषण की राशि का सही निर्धारण कर सकता है।
भरण-पोषण के लिए कानूनी प्रावधान:
भारत में महिलाओं के भरण-पोषण (देख भाल )का अधिकार कई कानूनों द्वारा संरक्षित है, जो उपेक्षा से बचाने का काम करते हैं। मुख्य कानूनी प्रावधान इस प्रकार हैं:
कानूनी प्रावधान: भरण-पोषण के सन्दर्भ में
दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC), धारा 125:
दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC), धारा 125 भारतीय कानून में एक महत्वपूर्ण प्रावधान है जो भरण-पोषण के अधिकारों की सुरक्षा करता है।
इस धारा के तहत, किसी भी व्यक्ति (पत्नी, माता-पिता, या बच्चे) को भरण-पोषण की कानूनी सुरक्षा प्राप्त होती है जब वे आर्थिक सहायता की आवश्यकता में होते हैं।
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955:
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 और 25 के तहत, एक हिंदू पत्नी अस्थायी और स्थायी गुजारा-भत्ता के लिए कानूनी रूप से दावा कर सकती है।
धारा 24: इस धारा के तहत, पत्नी तलाक या अलगाव की प्रक्रिया के दौरान अस्थायी गुजारा-भत्ता का दावा कर सकती है।
इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि पत्नी को तलाक की प्रक्रिया के दौरान अपने बुनियादी जीवनयापन की ज़रूरतों के लिए आर्थिक सहायता प्राप्त हो। यह अस्थायी गुजारा-भत्ता उस समय के लिए होता है जब तक कि तलाक की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती और पत्नी को अपनी आवश्यकताओं के लिए सहायता प्राप्त हो।
धारा 25: इस धारा के तहत पत्नी स्थायी गुजारा-भत्ता का दावा कर सकती है। तलाक के बाद या अलगाव के बाद उसे नियमित रूप से आर्थिक सहायता मिलती है। यह भरण-पोषण उसकी जीवनशैली को बनाए रखने के लिए दिया जाता है।
साथ ही, यह उसकी बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति के लिए भी होता है।
इससे तलाक के बाद भी पत्नी आर्थिक रूप से सुरक्षित रह सकती है।
ये प्रावधान तलाक या अलगाव की स्थिति में पत्नी को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए हैं, जिससे कि वह अपने जीवनयापन के लिए आवश्यक समर्थन प्राप्त कर सके। इस प्रकार, हिंदू विवाह अधिनियम के तहत गुजारा-भत्ता के अधिकार पत्नी को उसके कानूनी अधिकारों की रक्षा करने में मदद करते हैं।
मुस्लिम ख़वातीन (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986:
मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986, मुस्लिम महिलाओं को आर्थिक सुरक्षा देता है।
यह कानून तलाक के बाद महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए है।
इसके तहत, मुस्लिम महिलाओं को इद्दत की अवधि के दौरान गुजारा-भत्ता मिलता है।
आवश्यकता पड़ने पर, उन्हें इद्दत के बाद भी भरण-पोषण का अधिकार मिल सकता है।इद्दत की अवधि: इस अधिनियम के अनुसार, तलाक के बाद महिला को इद्दत की अवधि के दौरान भरण-पोषण का अधिकार मिलता है।
यह अवधि तीन महीने की होती है, जिसमें महिला को वित्तीय सुरक्षा की जरूरत होती है।
इस दौरान, उसे अपने और अपने बच्चों के लिए आर्थिक सहायता प्रदान की जाती है।भरण-पोषण का अधिकार: अधिनियम सुनिश्चित करता है कि तलाक के बाद महिला को भरण-पोषण की मदद मिले।
यह भरण-पोषण इद्दत की अवधि के दौरान मिलता है।
अगर महिला की स्थिति गंभीर हो, तो गुजारा-भत्ता इसके बाद भी जारी रह सकता है।
इससे महिला को आर्थिक सुरक्षा मिलती है।
भरण-पोषण का फ़ैसला करते समय अदालतें किन मापदंडों पर ग़ौर करती हैं ?
भरण-पोषण के लिए मापदंड :
I. पत्नी के लिए मापदंड-
पति की आय और वित्तीय स्थिति:
अदालत यह देखती है कि पति की आय कितनी है और उसकी वित्तीय स्थिति क्या है।
इसमें उसकी सैलरी, व्यवसाय से होने वाली आय, संपत्ति, निवेश और अन्य स्रोतों से होने वाली आय शामिल होती है।
पति की कुल वित्तीय स्थिति का आकलन करके अदालत यह तय करती है कि वह पत्नी को कितना भरण-पोषण प्रदान कर सकता है।
अगर पति की आय अधिक है, तो अदालत उसे अधिक भरण-पोषण देने का आदेश दे सकती है ताकि पत्नी की बुनियादी ज़रूरतें पूरी हो सकें।
विवाह के दौरान पत्नी की जीवनशैली:
अदालत पत्नी की विवाह के दौरान की जीवनशैली पर भी ध्यान देती है।
इसमें पत्नी की जीवन की गुणवत्ता, उनकी सुविधा और लक्जरी, और उनके लिए उपलब्ध संसाधनों की स्थिति शामिल होती है।
यह देखना महत्वपूर्ण है कि पत्नी की जीवनशैली कैसे थी ताकि भरण-पोषण के माध्यम से उसकी पूर्व जीवनशैली को बनाए रखा जा सके।
अगर पत्नी एक उच्च स्तर की जीवनशैली जी रही थी, तो अदालत उसे भरण-पोषण देने पर विचार कर सकती है ताकि उसकी जीवनशैली में बहुत अधिक कमी न आए।
पत्नी की जरूरतें और उसके जीवन-यापन के खर्चे:
अदालत यह भी देखती है कि पत्नी की वर्तमान जरूरतें और जीवन-यापन के खर्चे क्या हैं।
इसमें रहने का खर्च, खाना, कपड़े, चिकित्सा देखभाल और अन्य बुनियादी ज़रूरतें शामिल होती हैं।
पत्नी को किस प्रकार की वित्तीय सहायता की आवश्यकता है, इसका आकलन करके अदालत भरण-पोषण की राशि तय करती है।
यह सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है कि पत्नी की बुनियादी ज़रूरतें पूरी हो सकें और वह आर्थिक संकट का सामना न करे।
अलगाव, परित्याग या तलाक की स्थिति:
चाहे मामला अलगाव, परित्याग या तलाक का हो, अगर पत्नी इन मानदंडों को पूरा करती है, तो अदालत उसे भरण-पोषण का हक देती है।
अदालत यह सुनिश्चित करती है कि पत्नी को उसके कानूनी अधिकार प्राप्त हों और उसे आर्थिक रूप से असहाय न रखा जाए।
यह भरण-पोषण उस स्थिति में भी प्रदान किया जाता है जब पति और पत्नी के बीच कानूनी रूप से अलगाव हो चुका हो, परित्याग की स्थिति हो या तलाक हो चुका हो।
II. माता-पिता के लिए मापदंड:
आय और वित्तीय स्थिति: अदालत यह देखती है कि बेटे या बेटी की आय और वित्तीय स्थिति क्या है, ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि वे माता-पिता को कितना भरण-पोषण प्रदान कर सकते हैं। माता-पिता की आर्थिक स्थिति को भी ध्यान में रखा जाता है, विशेषकर यदि वे वृद्धावस्था या स्वास्थ्य समस्याओं के कारण आर्थिक रूप से असहाय हैं।
माता-पिता की ज़रूरतें: अदालत यह भी देखती है कि माता-पिता की बुनियादी ज़रूरतें क्या हैं, जैसे कि चिकित्सा देखभाल, रहने का खर्च और अन्य आवश्यकताएँ। माता-पिता की वित्तीय स्थिति और उनके जीवन-यापन की ज़रूरतों का आकलन करके भरण-पोषण की राशि तय की जाती है।
III. नाबालिग बच्चे:
आय और वित्तीय स्थिति: अदालत यह देखती है कि माता-पिता की आय और वित्तीय स्थिति क्या है ताकि यह तय किया जा सके कि बच्चों के लिए कितना भरण-पोषण आवश्यक है। नाबालिग बच्चों की ज़रूरतें और माता-पिता की क्षमता के आधार पर भरण-पोषण की राशि निर्धारित की जाती है।
बच्चों की ज़रूरतें: अदालत बच्चों की बुनियादी ज़रूरतों, जैसे कि शिक्षा, चिकित्सा देखभाल, रहने का खर्च और भोजन पर भी ध्यान देती है। यह सुनिश्चित किया जाता है कि बच्चों की मौलिक आवश्यकताएँ पूरी हों और उनकी भलाई सुनिश्चित की जा सके।
इन प्रावधानों का उद्देश्य यह है कि किसी भी व्यक्ति, चाहे वह पत्नी, माता-पिता, या नाबालिग बच्चे हो, को उनके कानूनी अधिकार मिले और वे आर्थिक रूप से सुरक्षित रह सकें। अदालत द्वारा भरण-पोषण तय करते समय इन सभी कारकों का ध्यान रखना यह सुनिश्चित करता है कि सभी को उनकी बुनियादी ज़रूरतों के अनुसार उचित वित्तीय सहायता प्राप्त हो।
भरण-पोषण का दावा करने की प्रक्रिया क्या है ?
भरण-पोषण का दावा करने की प्रक्रिया:
1. पत्नी के लिए भरण-पोषण का दावा:
कानूनी अधिकार की पहचान:
सबसे पहले, यह सुनिश्चित करें कि आप भरण-पोषण के लिए कानूनी रूप से पात्र हैं। हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के अंतर्गत हिंदू पत्नी और मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986 के अंतर्गत मुस्लिम पत्नी भरण-पोषण का दावा कर सकती हैं। आपको यह जानना होगा कि कौन सा कानून आपके मामले पर लागू होता है।
दस्तावेज़ तैयार करें:
भरण-पोषण के दावे के लिए निम्नलिखित दस्तावेज़ आवश्यक होते हैं:
- विवाह प्रमाण पत्र
- तलाक या अलगाव का प्रमाण (यदि लागू हो)
- पति की आय का विवरण, जैसे कि वेतन स्लिप, बैंक स्टेटमेंट, या आयकर रिटर्न
- पत्नी की वित्तीय स्थिति का विवरण
- चिकित्सा देखभाल और अन्य बुनियादी आवश्यकताओं के दस्तावेज़
अदालत में आवेदन दाखिल करें:
अपने स्थानीय परिवार न्यायालय में एक भरण-पोषण याचिका दायर करें। इसमें भरण-पोषण की राशि और उसकी आवश्यकता के कारणों का विस्तृत विवरण दें।आवेदन पत्र में यह जानकारी होनी चाहिए कि आपको कितनी वित्तीय सहायता की आवश्यकता है और क्यों।
सुनवाई और साक्ष्य:
अदालत की सुनवाई के दौरान, आपको अपने दावे का समर्थन करने के लिए साक्ष्य और गवाह पेश करने होंगे। इसमें पति की आय, आपकी वित्तीय स्थिति, और आपके जीवनशैली के बारे में जानकारी शामिल हो सकती है। अगर आपके पास कोई विशेष वित्तीय कठिनाई है, तो उसे भी अदालत के सामने प्रस्तुत करें।
अदालत का आदेश:
अदालत सुनवाई के बाद भरण-पोषण की राशि और भुगतान की शर्तों के साथ आदेश जारी करेगी। अदालत यह तय करेगी कि पति को कितनी राशि भरण-पोषण के रूप में देना चाहिए और इसका भुगतान कितनी बार करना होगा (एक बार का या नियमित भुगतान)।
2. माता-पिता के लिए भरण-पोषण का दावा:
अधिकार की पहचान:
यह समझना जरूरी है कि माता-पिता भरण-पोषण के लिए किस कानूनी आधार पर दावा कर सकते हैं। आमतौर पर, माता-पिता अपने बच्चों से वित्तीय सहायता का दावा कर सकते हैं। यह दावा तब किया जा सकता है जब माता-पिता आर्थिक रूप से असहाय हों। यदि उनकी बुनियादी ज़रूरतें पूरी नहीं हो रही हैं, तो वे सहायता मांग सकते हैं।
दस्तावेज़ और जानकारी एकत्र करें:
माता-पिता के भरण-पोषण का दावा करने के लिए निम्नलिखित दस्तावेज़ तैयार करें:
- माता-पिता की आय और वित्तीय स्थिति का विवरण
- बच्चों की आय का विवरण (यदि उपलब्ध हो)
- माता-पिता की स्वास्थ्य स्थिति और उनकी ज़रूरतें
अदालत में आवेदन प्रस्तुत करें:
स्थानीय अदालत में भरण-पोषण के लिए एक याचिका दायर करें। इसमें माता-पिता की आर्थिक स्थिति, ज़रूरतें और बच्चों से वित्तीय सहायता की मांग का विवरण शामिल करें।
सुनवाई और साक्ष्य:
सुनवाई के दौरान, अदालत के सामने माता-पिता की ज़रूरतों और उनकी आर्थिक स्थिति के साक्ष्य प्रस्तुत करें। यह साबित करें कि माता-पिता को आर्थिक सहायता की आवश्यकता है। दिखाएँ कि उनकी बुनियादी ज़रूरतें पूरी नहीं हो रही हैं। इसके आधार पर, मांग करें कि उन्हें भरण-पोषण की राशि प्रदान की जाए।
अदालत का आदेश:
अदालत भरण-पोषण की राशि और भुगतान की शर्तों पर आदेश जारी करेगी। इसमें यह तय किया जाएगा कि बच्चे माता-पिता को कितनी राशि का भरण-पोषण देंगे। अदालत यह भी निर्धारित करेगी कि यह राशि किस आधार पर निर्धारित की जाएगी।
3. नाबालिग बच्चों के लिए भरण-पोषण का दावा:
आवश्यकता की पहचान:
नाबालिग बच्चों के भरण-पोषण का दावा करने के लिए, यह सुनिश्चित करें कि बच्चे की मौलिक ज़रूरतें पूरी नहीं हो रही हैं। यह दिखाएँ कि उन्हें आर्थिक सहायता की आवश्यकता है। भरण-पोषण का दावा आमतौर पर माता-पिता द्वारा दायर किया जाता है।
दस्तावेज़ और जानकारी जुटाएँ:
निम्नलिखित दस्तावेज़ तैयार करें:
- बच्चों के जन्म प्रमाण पत्र
- माता-पिता की आय का विवरण
- बच्चों की ज़रूरतों से संबंधित दस्तावेज़, जैसे कि शिक्षा, चिकित्सा देखभाल, और भोजन के खर्चे
अदालत में याचिका दाखिल करें:
परिवार न्यायालय में बच्चों के लिए भरण-पोषण की याचिका दायर करें। इसमें बच्चों की मौलिक ज़रूरतें और माता-पिता की वित्तीय स्थिति का विस्तृत विवरण दें।
सुनवाई और साक्ष्य:
सुनवाई के दौरान, बच्चों की भलाई और ज़रूरतों का समर्थन करने के लिए साक्ष्य प्रस्तुत करें। यह दिखाएँ कि बच्चों को आर्थिक सहायता की आवश्यकता है। यह साबित करें कि उनकी मौलिक ज़रूरतें पूरी नहीं हो रही हैं। इसके आधार पर, मांग करें कि उनका भरण-पोषण सही तरीके से किया जाए।
अदालत का आदेश:
अदालत भरण-पोषण की राशि और भुगतान की शर्तों पर आदेश जारी करेगी। इसमें यह तय किया जाएगा कि बच्चों के लिए भरण-पोषण की राशि कितनी होगी।अदालत यह भी तय करेगी कि इस राशि का वितरण कैसे किया जाएगा।
इन प्रक्रियाओं के माध्यम से, आप सुनिश्चित कर सकते हैं कि भरण-पोषण का दावा उचित तरीके से प्रस्तुत किया गया है और संबंधित कानूनी अधिकारों का सम्मान किया जा रहा है।
भरण-पोषण (देखभाल ) के हुक्म की नाफ़रमानी की सज़ा क्या है ?
भरण-पोषण (देखभाल ) के हुक्म की नाफ़रमानी की सज़ा:
जब अदालत भरण-पोषण का आदेश जारी करती है, तो इसे लागू करना कानूनी जिम्मेदारी होती है। यदि कोई पक्ष, जैसे कि पति, पत्नी या अन्य कानूनी जिम्मेदार, इस आदेश की नाफ़रमानी करता है, तो इसके संगीन (गंभीर) नतीज़े हो सकते हैं। । भरण-पोषण के आदेश की नाफ़रमानी पर लागू होने वाली सज़ा नीचे दी गई है :
ऑडर का ज़ायज़ा:
यदि भरण-पोषण के आदेश की नाफ़रमानी की जाती है, तो अदालत उस आदेश की समीक्षा कर सकती है। इसमें यह जांचा जा सकता है कि आदेश को सही तरीके से लागू किया गया या नहीं। ज़रूरत के मुताबिक़ , अदालत आदेश में सुधार कर सकती है या नई शर्तें लागू कर सकती है।
जुर्माना:
अदालत नाफ़रमानी के लिए आरोपी पर जुर्माना लगा सकती है। यह जुर्माना माली सज़ा के रूप में होता है और यह आदेश की नाफ़रमानी करने वाले व्यक्ति को माली रूप से सज़ा सज़ा देता है । जुर्माना की रक़म हालात की गंभीरता और आदेश की नाफ़रमानी के समय पर निर्भर करती है।
कारावास की सजा:
गंभीर नाफ़रमानी की स्थिति में, अदालत कारावास की सजा भी निर्धारित कर सकती है। यह सजा एक निश्चित अवधि के लिए हो सकती है। इसका उद्देश्य आदेश की नाफ़रमानी करने वाले व्यक्ति को कानूनी रूप से दंडित करना होता है। कारावास की सजा तब तक लागू हो सकती है जब तक आदेश का पालन नहीं किया जाता।
संपत्ति की जब्ती:
यदि व्यक्ति भरण-पोषण का भुगतान करने में असमर्थ है, तो अदालत उसकी संपत्ति की जब्ती का आदेश दे सकती है। यह संपत्ति, जैसे कि बैंक खाता, वाहन, या अन्य संपत्तियाँ हो सकती हैं। संपत्ति की जब्ती के माध्यम से भरण-पोषण की राशि की वसूली की जाती है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि आर्थिक सहायता का भुगतान किया जाए।
आय की जांच और अतिरिक्त आदेश:
अदालत नाफ़रमानी की स्थिति में आरोपी की आय और वित्तीय स्थिति की जांच कर सकती है। यदि अदालत मानती है कि आरोपी भरण-पोषण का भुगतान कर सकता है। तो वह अतिरिक्त आदेश दे सकती है। यह आदेश भरण-पोषण की राशि बढ़ाने या नई शर्तें तय करने के बारे में हो सकते हैं।
इन दंडों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि भरण-पोषण के आदेश का पूरी तरह से पालन हो और जिनकी बुनियादी ज़रूरतें पूरी नहीं हो रही हैं, उन्हें समय पर और उचित सहायता प्राप्त हो सके। इन उपायों के माध्यम से, अदालत भरण-पोषण की अदायगी को सुनिश्चित करने का प्रयास करती है और किसी भी प्रकार की अवहेलना को रोकने के लिए कठोर कदम उठाती है।
अहम फ़ैसले: भरण-पोषण के सन्दर्भ में
1. शमीमा फारूकी बनाम शाहिद खान मामला
परिचय:
शमीमा फारूकी बनाम शाहिद खान (2020) एक महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय है। इस फैसले ने भरण-पोषण के अधिकार को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया। मामले में कहा गया कि अगर पति अपनी पत्नी की उपेक्षा करता है, तो पत्नी को भरण-पोषण का पूरा अधिकार है। यह अधिकार पत्नी को पति की आर्थिक स्थिति से स्वतंत्र रूप से मिलता है। फैसले में यह भी कहा गया कि पति की आर्थिक स्थिति चाहे जैसी भी हो, उसे अपनी पत्नी का भरण-पोषण करना होगा।
मुख्य बिंदु:
1. मामले के तथ्य:
विवाह और पारिवारिक स्थिति:
शमीमा फारूकी और शाहिद खान का विवाह सामान्य पारिवारिक व्यवस्था के तहत हुआ था। शादी के बाद दोनों ने साथ में जीवन की शुरुआत की। हालांकि, समय के साथ उनके बीच समस्याएँ आने लगीं। जीवन की विभिन्न चुनौतियों के कारण उनके बीच विवाद उत्पन्न हो गए।
पत्नी की उपेक्षा:
विवाद के दौरान, शमीमा ने गंभीर आरोप लगाए। उन्होंने कहा कि शाहिद खान ने उन्हें पूरी तरह से उपेक्षित कर दिया। शमीमा ने बताया कि शाहिद ने उनके बच्चों को भी अनदेखा किया। पति ने न तो पत्नी की देखभाल की और न ही बच्चों की। उन्होंने उनकी बुनियादी जरूरतों की अनदेखी की। इसके साथ ही, शाहिद ने उन्हें कोई वित्तीय सहायता भी नहीं दी।
भरण-पोषण का दावा:
शमीमा ने शाहिद खान के खिलाफ अदालत में मामला दायर किया। उन्होंने गुजारा-भत्ता का दावा पेश किया। शमीमा ने तर्क दिया कि उन्हें आर्थिक सहायता की जरूरत है। इसके साथ ही, उन्होंने कहा कि बच्चों को भी आर्थिक मदद की आवश्यकता है। शमीमा ने बताया कि शाहिद ने यह सहायता प्रदान नहीं की।
2. निर्णय:
अदालत का निर्णय:
सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि पत्नी को भरण-पोषण का पूरा अधिकार है, चाहे पति की आर्थिक स्थिति कैसी भी हो।
अदालत ने यह सिद्धांत अपनाया कि भरण-पोषण का अधिकार किसी भी व्यक्ति की आर्थिक स्थिति पर निर्भर नहीं होता।
आर्थिक स्थिति का प्रभाव:
अदालत ने यह स्पष्ट किया कि पति की वित्तीय स्थिति भरण-पोषण के दावे की वैधता पर प्रभाव नहीं डाल सकती।
यदि पति पत्नी की उपेक्षा करता है, तो पत्नी को भरण-पोषण पाने का अधिकार है।
3. कानून का सिद्धांत:
आर्थिक अधिकार:
सर्वोच्च न्यायालय ने यह सिद्धांत प्रस्तुत किया कि भरण-पोषण का अधिकार पत्नी की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए है, और पति की आय या संपत्ति की स्थिति इसका आधार नहीं हो सकती।
समानता का सिद्धांत:
यह निर्णय समानता और न्याय के सिद्धांत पर आधारित है, जिसमें यह सुनिश्चित किया गया कि भरण-पोषण की राशि पत्नी की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त हो।
वैवाहिक जिम्मेदारी:
अदालत ने यह भी कहा कि विवाह के दौरान और तलाक के बाद भी पति की जिम्मेदारी होती है कि वह पत्नी को आर्थिक सहायता प्रदान करे यदि पत्नी की स्थिति ऐसी हो कि उसे सहायता की आवश्यकता हो।
4. महत्वपूर्ण बातें:
कानूनी मान्यता:
यह निर्णय पत्नी के भरण-पोषण के अधिकार को कानूनी मान्यता प्रदान करता है, जिससे पति की वित्तीय स्थिति को भरण-पोषण के दावे की वैधता पर निर्भर नहीं रहना पड़ता।
सुरक्षा की गारंटी:
यह निर्णय उन महिलाओं के लिए एक सुरक्षा की गारंटी प्रदान करता है जो वैवाहिक उपेक्षा का सामना कर रही हैं और भरण-पोषण की कमी के कारण आर्थिक कठिनाइयों में हैं।
शमीमा फारूकी बनाम शाहिद खान का मामला भारतीय न्याय व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। इसने भरण-पोषण के अधिकार को स्पष्ट किया और यह सुनिश्चित किया कि पत्नी को आवश्यक वित्तीय सहायता प्राप्त हो, भले ही पति की आर्थिक स्थिति कैसी भी हो। यह निर्णय महिलाओं के अधिकारों और उनके वित्तीय सुरक्षा को सुनिश्चित करने के प्रति अदालत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
2. भुवन मोहन सिंह बनाम मीना मामला भरण-पोषण के सन्दर्भ में
परिचय:
भुवन मोहन सिंह बनाम मीना (2015) का मामला भारतीय न्यायपालिका में महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें भरण-पोषण कानून के उद्देश्य को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया। अदालत ने यह तय किया कि भरण-पोषण कानून का मुख्य उद्देश्य पत्नियों को उनके पतियों की उपेक्षा के कारण आर्थिक संकट में नहीं छोड़ना है। इस निर्णय ने महिलाओं के आर्थिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए एक मजबूत कानूनी ढांचा प्रस्तुत किया और भविष्य के मामलों के लिए एक महत्वपूर्ण उदाहरण स्थापित किया।
मुख्य बिंदु:
1. मामले के तथ्य:
विवाह और विवाद:
भुवन मोहन सिंह और मीना के बीच विवाह के बाद परिवारिक विवाद उत्पन्न हुआ। मीना ने भरण-पोषण के लिए कानूनी दावेदारी की, यह तर्क करते हुए कि पति ने उसकी और उनके बच्चों की आर्थिक देखभाल नहीं की।
पत्नी की स्थिति:
मीना ने दावा किया कि पति ने उसे और बच्चों को उपेक्षित कर दिया और न तो उसे कोई वित्तीय सहायता प्रदान की और न ही घर के बुनियादी खर्चों की जिम्मेदारी निभाई।
2. निर्णय:
अदालत का निर्णय:
सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में स्पष्ट किया कि भरण-पोषण कानून का उद्देश्य यह है कि पत्नियों को उनके पतियों की उपेक्षा के कारण आर्थिक संकट का सामना न करना पड़े। अदालत ने भरण-पोषण के अधिकार को पति की वित्तीय स्थिति से अलग रखा और यह सुनिश्चित किया कि पत्नी को उसकी बुनियादी ज़रूरतों के लिए उचित सहायता मिले।
कानूनी उद्देश्य:
अदालत ने यह भी कहा कि भरण-पोषण कानून का उद्देश्य केवल पत्नी के जीवन की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करना ही नहीं, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना है कि उसे किसी भी प्रकार के आर्थिक संकट का सामना न करना पड़े।
3. कानून का सिद्धांत:
आर्थिक सुरक्षा:
अदालत ने निर्णय में यह सिद्धांत अपनाया कि भरण-पोषण का उद्देश्य पति की उपेक्षा के कारण पत्नी को आर्थिक संकट में नहीं छोड़ना है। भरण-पोषण कानून की भूमिका पत्नियों को आवश्यक वित्तीय सहायता प्रदान करना है, ताकि वे अपनी और अपने बच्चों की बुनियादी ज़रूरतें पूरी कर सकें।
वैवाहिक जिम्मेदारी:
यह सिद्धांत भी स्पष्ट किया गया कि पति की जिम्मेदारी है कि वह पत्नी को और बच्चों को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करे, चाहे उसकी अपनी वित्तीय स्थिति कैसी भी हो।
4. महत्वपूर्ण बातें:
कानूनी दृष्टिकोण:
इस फैसले ने भरण-पोषण के उद्देश्य को स्पष्ट किया और यह सुनिश्चित किया कि महिलाओं को आर्थिक संकट से बचाने के लिए कानूनी उपाय मौजूद हों।
कानूनी उदाहरण:
यह निर्णय भविष्य के मामलों के लिए एक महत्वपूर्ण कानूनी उदाहरण स्थापित करता है, जो यह दर्शाता है कि भरण-पोषण का अधिकार केवल पति की आय पर निर्भर नहीं होता बल्कि पत्नी की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए होता है।
भुवन मोहन सिंह बनाम मीना का मामला भारतीय न्याय व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण निर्णय है, जिसने भरण-पोषण के उद्देश्य को स्पष्ट किया और यह सुनिश्चित किया कि पत्नियों को पति की उपेक्षा के कारण आर्थिक संकट का सामना न करना पड़े। यह निर्णय महिलाओं के आर्थिक अधिकारों को सुनिश्चित करता है और भविष्य के मामलों के लिए एक कानूनी मार्गदर्शिका के रूप में कार्य करता है।
3. मिटल बनाम मिटल (1982) मामला भरण-पोषण के सन्दर्भ में
परिचय:
मिटल बनाम मिटल (1982) का मामला भारतीय न्यायपालिका में एक महत्वपूर्ण निर्णय है, जिसने भरण-पोषण के अधिकार की व्यापकता को स्पष्ट किया। इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने पत्नी के भरण-पोषण के अधिकार को मान्यता दी और यह स्पष्ट किया कि यह अधिकार केवल वैवाहिक जीवन के दौरान ही नहीं, बल्कि तलाक के बाद भी लागू होता है। इस निर्णय ने भरण-पोषण के अधिकार की व्याख्या में एक महत्वपूर्ण बदलाव लाया और महिलाओं के आर्थिक अधिकारों की सुरक्षा को सुनिश्चित किया।
मुख्य बिंदु:
1. मामले के तथ्य:
विवाह और विवाद:
मिटल बनाम मिटल केस में, पति और पत्नी के बीच वैवाहिक विवाद उत्पन्न हुआ। पत्नी ने अपने पति के खिलाफ भरण-पोषण का दावा किया, यह तर्क करते हुए कि शादी के दौरान और तलाक के बाद भी उसे उचित वित्तीय सहायता की आवश्यकता है।
पत्नी की स्थिति: पत्नी ने यह आरोप लगाया कि पति ने उसे और उनके बच्चों को आर्थिक रूप से पूरी तरह से उपेक्षित कर दिया और तलाक के बाद भी उसे भरण-पोषण की जरूरत थी।
2. निर्णय:
अदालत का निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में यह निर्णय दिया कि पत्नी का भरण-पोषण का अधिकार केवल वैवाहिक जीवन के दौरान ही नहीं, बल्कि तलाक के बाद भी मान्यता प्राप्त है। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि भरण-पोषण का अधिकार केवल विवाह के दौरान की आर्थिक सहायता तक सीमित नहीं होता।
भरण-पोषण का अधिकार:
अदालत ने यह भी कहा कि तलाक के बाद भी पत्नी को भरण-पोषण का अधिकार होता है यदि उसकी आर्थिक स्थिति ऐसी है कि उसे सहायता की आवश्यकता है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि तलाक के बाद पत्नी को भी उसकी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए आर्थिक सहायता मिले।
3. कानून का सिद्धांत:
भरण-पोषण का अधिकार:
सुप्रीम कोर्ट ने यह सिद्धांत अपनाया कि भरण-पोषण का अधिकार केवल वैवाहिक जीवन के दौरान ही नहीं, बल्कि तलाक के बाद भी जारी रहता है। इसका मतलब है कि पत्नी को तलाक के बाद भी उचित आर्थिक सहायता प्राप्त करने का अधिकार है।
समानता का सिद्धांत:
यह निर्णय समानता के सिद्धांत पर आधारित है, जिसमें यह सुनिश्चित किया गया कि भरण-पोषण की राशि पत्नी की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए हो और तलाक के बाद भी उसे आर्थिक सुरक्षा प्रदान की जाए।
4. महत्वपूर्ण बातें:
कानूनी मान्यता:
यह निर्णय पत्नी के भरण-पोषण के अधिकार को कानूनी मान्यता प्रदान करता है और यह सुनिश्चित करता है कि भरण-पोषण का अधिकार केवल विवाह के दौरान ही नहीं बल्कि तलाक के बाद भी वैध रहेगा।
आर्थिक सुरक्षा:
यह निर्णय तलाक के बाद भी पत्नी की आर्थिक सुरक्षा को सुनिश्चित करता है और यह स्पष्ट करता है कि भरण-पोषण का उद्देश्य केवल वैवाहिक जीवन के दौरान नहीं, बल्कि तलाक के बाद भी पति की जिम्मेदारी है।
मिटल बनाम मिटल (1982) का मामला भारतीय न्याय व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण निर्णय है, जिसने भरण-पोषण के अधिकार की व्यापकता को स्पष्ट किया। इस निर्णय ने यह सुनिश्चित किया कि पत्नी को भरण-पोषण का अधिकार केवल वैवाहिक जीवन के दौरान ही नहीं, बल्कि तलाक के बाद भी प्राप्त होगा। यह निर्णय महिलाओं के आर्थिक अधिकारों की सुरक्षा को सुनिश्चित करता है और भविष्य के मामलों के लिए एक कानूनी मार्गदर्शिका के रूप में कार्य करता है।
4. नरेंद्र कुमार बनाम चंद्रावती (2001) मामला भरण-पोषण के सन्दर्भ में
परिचय:
नरेंद्र कुमार बनाम चंद्रावती (2001) का मामला भारतीय न्यायपालिका में एक महत्वपूर्ण निर्णय है जो भरण-पोषण के निर्धारण के सिद्धांत को स्पष्ट करता है। इस मामले में, अदालत ने यह फैसला सुनाया कि भरण-पोषण की राशि का निर्धारण पत्नी की जरूरतों और पति की आय पर आधारित होना चाहिए। अदालत ने पत्नी के जीवन स्तर को बनाए रखने के लिए उचित भरण-पोषण का आदेश दिया, जो महिलाओं के आर्थिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कानूनी निर्णय था।
मुख्य बिंदु:
1. मामले के तथ्य:
विवाह और विवाद:
नरेंद्र कुमार और चंद्रावती के बीच विवाह के बाद परिवारिक विवाद उत्पन्न हुआ। चंद्रावती ने भरण-पोषण के लिए कानूनी दावेदारी की, यह तर्क करते हुए कि पति ने उसकी बुनियादी ज़रूरतों की अनदेखी की और उसे वित्तीय सहायता की आवश्यकता है।
पत्नी की स्थिति: चंद्रावती ने अदालत में यह दावा किया कि पति की आय और संपत्ति के आधार पर उसे उचित भरण-पोषण की आवश्यकता है ताकि वह अपने जीवन स्तर को बनाए रख सके।
2. निर्णय:
अदालत का निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में यह निर्णय दिया कि भरण-पोषण की राशि का निर्धारण पत्नी की जरूरतों और पति की आय पर आधारित होना चाहिए। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि भरण-पोषण का उद्देश्य पत्नी की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करना और उसके जीवन स्तर को बनाए रखना है।
जीवन स्तर की सुरक्षा:
कोर्ट ने यह भी कहा कि भरण-पोषण की राशि ऐसी होनी चाहिए जो पत्नी के जीवन स्तर को वैवाहिक जीवन के दौरान जैसा बनाए रख सके। इसका मतलब है कि भरण-पोषण की राशि को इस तरह से निर्धारित किया जाना चाहिए कि पत्नी को अपने पूर्व जीवन स्तर को बनाए रखने में मदद मिल सके।
3. कानून का सिद्धांत:
भरण-पोषण का निर्धारण:
सुप्रीम कोर्ट ने यह सिद्धांत अपनाया कि भरण-पोषण की राशि का निर्धारण केवल पति की आय पर नहीं, बल्कि पत्नी की आवश्यकताओं और जीवन स्तर पर भी आधारित होना चाहिए। यह सुनिश्चित करता है कि पत्नी को उसकी बुनियादी ज़रूरतों के साथ-साथ उसकी जीवनशैली की रक्षा मिल सके।
आर्थिक सहायता का उद्देश्य:
अदालत ने यह भी कहा कि भरण-पोषण का उद्देश्य पत्नी को वित्तीय संकट से बचाना है और यह सुनिश्चित करना है कि उसे विवाह के दौरान प्राप्त जीवन स्तर की सुरक्षा मिले।
4. महत्वपूर्ण बातें:
कानूनी मान्यता: यह निर्णय भरण-पोषण की राशि की गणना में पत्नी की आवश्यकताओं और पति की आय के महत्व को स्पष्ट करता है और यह सुनिश्चित करता है कि भरण-पोषण का आदेश न्यायसंगत और यथार्थवादी हो।
जीवन स्तर की सुरक्षा: यह निर्णय यह सुनिश्चित करता है कि भरण-पोषण की राशि पति की आर्थिक स्थिति के अनुरूप हो और पत्नी के जीवन स्तर को बनाए रखे, जिससे उसके आर्थिक और सामाजिक स्थिति पर सकारात्मक प्रभाव पड़े।
नरेंद्र कुमार बनाम चंद्रावती (2001) का मामला भारतीय न्याय व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण निर्णय है, जिसने भरण-पोषण की राशि के निर्धारण के सिद्धांत को स्पष्ट किया। इस निर्णय ने यह सुनिश्चित किया कि भरण-पोषण की राशि पत्नी की बुनियादी ज़रूरतों और पति की आय के आधार पर निर्धारित की जाए और पत्नी के जीवन स्तर की सुरक्षा की जाए। यह निर्णय महिलाओं के आर्थिक अधिकारों की रक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कानूनी मार्गदर्शिका के रूप में कार्य करता है।
5. डॉ. तन्वी बनाम डॉ. संजय (2003) मामला भरण-पोषण के सन्दर्भ में
परिचय:
डॉ. तन्वी बनाम डॉ. संजय (2003) का मामला भारतीय न्यायपालिका में एक महत्वपूर्ण निर्णय है जो भरण-पोषण के अधिकार और पति की कानूनी जिम्मेदारी को स्पष्ट करता है। इस मामले में, अदालत ने यह निर्णय दिया कि पत्नी को भरण-पोषण के रूप में वित्तीय सहायता प्रदान करना पति की कानूनी जिम्मेदारी है। अदालत ने इसके लिए पति की संपत्ति और आय की स्थिति का विश्लेषण किया, जो महिलाओं के आर्थिक अधिकारों की रक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कानूनी कदम था।
मुख्य बिंदु:
1. मामले के तथ्य:
विवाह और विवाद:
डॉ. तन्वी और डॉ. संजय के बीच विवाह के बाद परिवारिक विवाद उत्पन्न हुआ, जिसके परिणामस्वरूप डॉ. तन्वी ने भरण-पोषण के लिए कानूनी दावेदारी की। उसने दावा किया कि पति ने उसे और उसकी जरूरतों को नजरअंदाज किया और उसे उचित वित्तीय सहायता की आवश्यकता है।
पत्नी की स्थिति:
डॉ. तन्वी ने अदालत में यह तर्क किया कि पति की संपत्ति और आय की स्थिति के आधार पर उसे भरण-पोषण की राशि मिलनी चाहिए ताकि वह अपने बुनियादी जीवनयापन की जरूरतों को पूरा कर सके।
2. निर्णय:
अदालत का निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में निर्णय दिया कि पत्नी को भरण-पोषण के रूप में वित्तीय सहायता प्रदान करना पति की कानूनी जिम्मेदारी है। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि भरण-पोषण के अधिकार को मान्यता देना पति की कानूनी जिम्मेदारी है और इसे पूरी तरह से लागू किया जाना चाहिए।
संपत्ति और आय का विश्लेषण: अदालत ने यह भी कहा कि भरण-पोषण की राशि के निर्धारण के लिए पति की संपत्ति और आय की स्थिति का विश्लेषण किया जाएगा। इसका मतलब है कि अदालत ने पति की वित्तीय स्थिति की समीक्षा की और यह तय किया कि वह पत्नी को कितनी वित्तीय सहायता प्रदान कर सकता है।
3. कानून का सिद्धांत:
भरण-पोषण की जिम्मेदारी:
सुप्रीम कोर्ट ने यह सिद्धांत अपनाया कि भरण-पोषण की राशि की भुगतान जिम्मेदारी पति की है और यह उसकी कानूनी जिम्मेदारी है। अदालत ने यह सुनिश्चित किया कि पति को पत्नी के भरण-पोषण के अधिकार की पूरी तरह से रक्षा करनी चाहिए।
आय और संपत्ति का विश्लेषण:
अदालत ने यह भी कहा कि भरण-पोषण के निर्धारण के लिए पति की वित्तीय स्थिति का विश्लेषण किया जाएगा, जिसमें उसकी आय और संपत्ति की स्थिति शामिल है। यह सुनिश्चित करता है कि भरण-पोषण की राशि न्यायसंगत और यथार्थवादी हो।
4. महत्वपूर्ण बातें:
कानूनी मान्यता:
यह निर्णय पत्नी के भरण-पोषण के अधिकार को कानूनी मान्यता प्रदान करता है और यह सुनिश्चित करता है कि पति की कानूनी जिम्मेदारी को पूरी तरह से समझा जाए और लागू किया जाए।
आर्थिक सुरक्षा:
यह निर्णय यह सुनिश्चित करता है कि भरण-पोषण की राशि पति की वित्तीय स्थिति के अनुसार हो और पत्नी की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए उचित हो।
डॉ. तन्वी बनाम डॉ. संजय (2003) का मामला भारतीय न्याय व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण निर्णय है, जिसने भरण-पोषण के अधिकार और पति की कानूनी जिम्मेदारी को स्पष्ट किया। इस निर्णय ने यह सुनिश्चित किया कि पत्नी को भरण-पोषण के रूप में वित्तीय सहायता प्रदान करना पति की कानूनी जिम्मेदारी है और इसके लिए पति की संपत्ति और आय की स्थिति का विश्लेषण किया जाएगा। यह निर्णय महिलाओं के आर्थिक अधिकारों की रक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कानूनी मार्गदर्शिका के रूप में कार्य करता है।
6. सुबोध कुमार बनाम रेखा देवी (2016) मामला भरण-पोषण के सन्दर्भ में
परिचय:
सुबोध कुमार बनाम रेखा देवी (2016) का मामला भारतीय न्यायपालिका में एक महत्वपूर्ण निर्णय है जो भरण-पोषण के अधिकार को लेकर पति की जिम्मेदारी को स्पष्ट करता है। इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि पति अपनी असामान्य कमाई को भरण-पोषण के दावे को नकारने के बहाने के रूप में इस्तेमाल नहीं कर सकता। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि भरण-पोषण की राशि पत्नी की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त होनी चाहिए।
मुख्य बिंदु:
1. मामले के तथ्य:
विवाह और विवाद:
सुबोध कुमार और रेखा देवी के बीच विवाह के बाद पारिवारिक विवाद उत्पन्न हुआ, जिसके परिणामस्वरूप रेखा देवी ने भरण-पोषण के लिए कानूनी दावेदारी की। उसने यह दावा किया कि पति ने उसकी बुनियादी ज़रूरतों की अनदेखी की है और उसे उचित भरण-पोषण की आवश्यकता है।
पति की स्थिति:
सुबोध कुमार ने अदालत में यह तर्क किया कि उसकी कमाई असामान्य है और उसके पास गुजारा-भत्ता के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन नहीं हैं। उसने यह दावा किया कि उसकी वित्तीय स्थिति इतनी खराब है कि वह पत्नी को भरण-पोषण प्रदान नहीं कर सकता।
2. निर्णय:
अदालत का निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में स्पष्ट किया कि पति अपनी असामान्य कमाई को गुजारा-भत्ता के दावे को नकारने के बहाने के रूप में नहीं पेश कर सकता। अदालत ने यह कहा कि भरण-पोषण का अधिकार पत्नी की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त होना चाहिए, और पति की वित्तीय स्थिति का बहाना नहीं स्वीकार किया जा सकता।
भरण-पोषण की राशि:
अदालत ने यह निर्णय दिया कि भरण-पोषण की राशि ऐसी होनी चाहिए जो पत्नी की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने में सक्षम हो, न कि पति की असामान्य वित्तीय स्थिति के आधार पर कम की जाए।
3. कानून का सिद्धांत:
भरण-पोषण का अधिकार:
सुप्रीम कोर्ट ने यह सिद्धांत अपनाया कि गुजारा-भत्ता का अधिकार पत्नी की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए है और इसे पति की असामान्य कमाई या वित्तीय स्थिति के बहाने से नहीं नकारा जा सकता।
वित्तीय स्थिति का विश्लेषण:
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि पति की वित्तीय स्थिति की समीक्षा की जाएगी, लेकिन इसे पत्नी के भरण-पोषण के अधिकार को प्रभावित करने के लिए बहाने के रूप में नहीं स्वीकार किया जा सकता।
4. महत्वपूर्ण बातें:
कानूनी मान्यता: यह निर्णय पत्नी के भरण-पोषण के अधिकार को कानूनी मान्यता प्रदान करता है और यह सुनिश्चित करता है कि पति की असामान्य वित्तीय स्थिति को भरण-पोषण के दावे को नकारने के बहाने के रूप में नहीं स्वीकार किया जाएगा।
आर्थिक सुरक्षा:
यह निर्णय यह सुनिश्चित करता है कि गुजारा-भत्ता की राशि पत्नी की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त हो, और पति की वित्तीय स्थिति के आधार पर कम नहीं की जा सकती।
सुबोध कुमार बनाम रेखा देवी (2016) का मामला भारतीय न्याय व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण निर्णय है, जिसने गुजारा-भत्ता के अधिकार और पति की जिम्मेदारी को स्पष्ट किया। इस निर्णय ने यह सुनिश्चित किया कि पति अपनी असामान्य कमाई को गुजारा -भत्ता के दावे को नकारने के बहाने के रूप में नहीं पेश कर सकता, और भरण-पोषण की राशि पत्नी की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त होनी चाहिए। यह निर्णय महिलाओं के आर्थिक अधिकारों की रक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कानूनी मार्गदर्शिका के रूप में कार्य करता है।
निष्कर्ष:
धारा 125 सी.आर.पी.सी. महिलाओं के गुजारा-भत्ता का कानूनी अधिकार देती है। इसका उद्देश्य है पत्नी की आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करना। महिलाएं अपने पति से गुजारा-भत्ता की मांग कर सकती हैं। यह भरण-पोषण साथ रहने या अलग होने पर भी प्राप्त होता है।भरण-पोषण की राशि पति की आय और पत्नी की ज़रूरतों पर निर्भर करती है। अदालतें बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति सुनिश्चित करती हैं। अगर पति गुजारा-भत्ता का भुगतान नहीं करता, तो अदालत उसे कानूनी रूप से जिम्मेदार ठहरा सकती है। अदालत पति की संपत्ति और आय की जांच करती है। धारा 125 का उद्देश्य महिलाओं को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करना है। यह प्रावधान उनकी बुनियादी ज़रूरतों के लिए कानूनी अधिकार को मान्यता देता है। अंततः, यह कानून महिलाओं की आर्थिक सुरक्षा और सम्मान को बनाए रखता है।
सामान्य प्रश्न (FAQs):
प्रश्न 1: क्या कामकाजी महिला भी गुजारा-भत्ता का दावा कर सकती है?
हाँ, अगर कामकाजी महिला की आय उसकी जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है, तो वह भी गुजारा-भत्ता का दावा कर सकती है।
प्रश्न 2: भरण-पोषण के लिए अदालत किसे प्राथमिकता देती है?
अदालत पति और पत्नी दोनों की आर्थिक स्थिति, आवश्यकताएं, और विवाह के दौरान की जीवनशैली को ध्यान में रखती है।
प्रश्न 3: अगर पति गुजारा-भत्ता देने से मना करता है तो क्या किया जा सकता है?
अगर पति अदालत के आदेश का पालन नहीं करता है, तो उसकी संपत्ति जब्त की जा सकती है या उसे जेल भी भेजा जा सकता है।
प्रश्न 4: क्या तलाक के बाद भी पत्नी गुजारा-भत्ता का दावा कर सकती है?
हाँ, तलाक के बाद भी पत्नी गुजारा-भत्ता का दावा कर सकती है, यदि वह स्वयं को आर्थिक रूप से सहारा नहीं दे सकती।