Author: Kabir Khan B.E. (Civil Eng.), LLB, LLM
परिचय: हिंदू पहचान का आधार
इस ब्लॉग का उद्देश्य हिंदू पहचान को कानूनी दृष्टिकोण से समझना है। यह देखा जाएगा कि भारतीय कानून में ‘हिंदू’ की परिभाषा क्या है। इसके साथ ही, इसका सामाजिक और कानूनी परिप्रेक्ष्य में क्या महत्व है, यह भी समझा जाएगा। हिंदू पहचान की कानूनी परिभाषा और अधिकारों की व्याख्या पर चर्चा की जाएगी। हम जानने की कोशिश करेंगे कि कानूनी प्रावधान किस प्रकार हिंदू पहचान को परिभाषित करते हैं। इसके साथ ही, न्यायिक निर्णय कैसे इस पहचान को प्रभावित करते हैं, यह भी समझा जाएगा।
हिंदू पहचान की कानूनी परिभाषा का समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। यह न केवल व्यक्तिगत अधिकारों और कर्तव्यों को निर्धारित करती है। बल्कि, यह सामाजिक संरचना और कानूनी प्रथाओं को भी प्रभावित करती है।
इस ब्लॉग में, हम कानूनी परिभाषाओं की संक्षिप्त चर्चा करेंगे। इसके साथ ही, उनके सामाजिक प्रभावों पर भी ध्यान देंगे।
हमारा उद्देश्य यह है कि पाठक समझ सकें कि कानूनी दृष्टिकोण से हिंदू पहचान को कैसे परिभाषित किया जाता है। इसके साथ ही, हम यह भी समझाएंगे कि इसका समाज में क्या महत्व है।
हिंदू पहचान: क्या है इसका अर्थ और कौन हैं हिंदू?
हिंदू पहचान और ‘हिंदू’ शब्द की परिभाषा
यह’ शब्द ‘हिंदू’ एक अत्यंत प्रसिद्ध और आम शब्द है, जिसे लगभग हर व्यक्ति जानता है।
हालांकि, यह चिंता की बात है कि इस शब्द की आधिकारिक परिभाषा अब तक नहीं की गई है।
हम यह तो कह सकते हैं कि कोई व्यक्ति हिंदू है, लेकिन बहुत कम लोग समझते हैं कि वास्तव में वह हिंदू क्यों है?
हिंदू’ शब्द की उत्पत्ति और हिंदू पहचान:
सिंधु घाटी का संदर्भ:
यह शब्द उन लोगों से आया जो सिंधु घाटी के किनारे रहते थे।
पहले, सिंधु घाटी में रहने वाले लोगों को ‘हिंदू’ कहा जाता था।
बाद में, ‘हिंदू’ शब्द का उपयोग केवल सिंधु घाटी तक सीमित नहीं रहा।
यह शब्द अब उन लोगों के लिए भी प्रयोग किया जाने लगा जो सिंधु घाटी से बाहर रहते थे।
जब मुस्लिम राज्यों की स्थापना हुई, ‘हिंदू’ शब्द का उपयोग न तो राष्ट्रीयता को दर्शाने के लिए किया गया, न ही क्षेत्रीय पहचान के लिए।
कुछ समय के लिए, ‘हिंदू’ शब्द का उपयोग उन लोगों के लिए किया गया जो हिंदू धर्म का पालन करते थे।
हालांकि, यह पहचान लंबे समय तक कायम नहीं रही, क्योंकि उस समय ‘हिंदू’ होना केवल धार्मिक पहचान तक सीमित नहीं था।
वर्तमान स्थिति: हिंदू पहचान का परिदृश्य
1.हिंदू विवाह अधिनियम, 1955:
इस अधिनियम के अनुसार, “हिंदू” का मतलब उन व्यक्तियों से है जो हिंदू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, या सिख धर्म के अनुयायी हैं।
2.हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956:
इस अधिनियम में हिंदू की परिभाषा दी गई है।
यह परिभाषा यह स्पष्ट करती है कि संपत्ति के अधिकारों के संदर्भ में कौन लोग हिंदू कानून के तहत आते हैं।
“इस अधिनियम के संदर्भ में, ‘हिंदू’ का अर्थ है एक व्यक्ति जो हिंदू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, या सिख धर्म का अनुयायी है।
यह परिभाषा उन व्यक्तियों को शामिल करती है जो किसी भी अन्य निजी कानून के अंतर्गत नहीं आते हैं।”
हिंदू पहचान से जुड़े अहम् फ़ैसले:
चार अहम् फैसलों का उल्लेख:
1. डॉ. रमेश यशवंत प्रभु V/S प्रभाकर काशीनाथ कुंटे (A.I.R. 1996 S.C. 1113)
मामले का सार:
इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के संदर्भ में ‘हिंदू’ शब्द की परिभाषा पर प्रकाश डाला।
यह मामला संपत्ति के अधिकार और उत्तराधिकार से संबंधित था।
‘हिंदू’ की परिभाषा:
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ‘हिंदू’ शब्द में शामिल हैं:
वे लोग जो हिंदू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, और सिख धर्म का पालन करते हैं।
यह परिभाषा केवल पारंपरिक हिंदू प्रथाओं का पालन करने वालों तक सीमित नहीं है।
इसमें वे भी शामिल हैं जो हिंदू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, या सिख धर्म से संबंधित हैं।
इसके अलावा, इसमें वे लोग भी आते हैं जो इन धर्मों के व्यक्तिगत कानूनों के तहत आते हैं।
मुख्य बिंदु:
-
कोर्ट ने यह भी कहा कि ‘हिंदू’ शब्द में केवल वे लोग नहीं आते जो पारंपरिक हिंदू धर्म का पालन करते हैं।
इसमें वे लोग भी आते हैं जो हिंदू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, या सिख धर्म से संबंधित व्यक्तिगत कानूनों के अंतर्गत आते हैं।
2. मनोहर जोशी बनाम नितिन भाउसर पाटिल (A.I.R. 1996 S.C. 796)
मामले का सार:
इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने संपत्ति और उत्तराधिकार के मामलों में हिंदू कानूनों की प्रवृत्ति को स्पष्ट किया।
कोर्ट ने यह भी देखा कि कौन-कौन से लोग हिंदू कानूनों के अंतर्गत आते हैं।
‘हिंदू’ की परिभाषा:
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि ‘हिंदू’ शब्द में शामिल हैं: वे लोग जो हिंदू, जैन, बौद्ध, या सिख धर्म का पालन करते हैं।
कोर्ट ने यह भी माना कि कानूनी दृष्टिकोण से ‘हिंदू’ शब्द उन व्यक्तियों को शामिल करता है जो इन धर्मों के व्यक्तिगत कानूनों के तहत आते हैं।
मुख्य बिंदु:
कोर्ट ने यह पुष्टि की कि ‘हिंदू’ शब्द का मतलब व्यापक है। इसमें वे लोग भी शामिल हैं जो हिंदू व्यक्तिगत कानूनों के तहत आते हैं।
भले ही वे धार्मिक प्रथाओं का पूरी तरह पालन नहीं करते।
निष्कर्ष
इन दोनों मामलों में, भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने ‘हिंदू’ शब्द की एक व्यापक और समावेशी परिभाषा को स्वीकार किया।
यह परिभाषा उन व्यक्तियों को शामिल करती है जो हिंदू धर्म के अनुयायी हैं।
इसके साथ ही, इसमें जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म के अनुयायी भी शामिल हैं।
ये सभी लोग समान व्यक्तिगत कानूनों के अंतर्गत आते हैं।
हिंदू पहचान का दायरा : कौन व्यक्ति हिंदू कानून के तहत आते हैं?
हिंदू कानून उन व्यक्तियों पर लागू होता है जो नीचे दी गई श्रेणियों में आते हैं:
1.जन्म से हिंदू, जैन, बौद्ध या सिख:
- वे लोग जो जन्म से हिंदू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, या सिख धर्म के अनुयायी होते हैं।
2.धर्म के आधार पर हिंदू, जैन, बौद्ध या सिख:
- वे लोग जो अपने धर्म के अनुसार हिंदू, जैन, बौद्ध, या सिख धर्म का पालन करते हैं।
3.जो मुस्लिम, ईसाई, पारसी या यहूदी नहीं हैं:
वे लोग जो मुस्लिम, ईसाई, पारसी या यहूदी धर्म का पालन नहीं करते हैं, और जिन पर इन धर्मों के व्यक्तिगत कानून लागू नहीं होते हैं।
इस प्रकार, हिंदू कानून की परिभाषा में केवल वे लोग शामिल होते हैं जो हिंदू धर्म और संबंधित धर्मों के अनुयायी हैं और जो मुस्लिम, ईसाई, पारसी या यहूदी धर्म के अनुयायी नहीं हैं।
(अ) जन्म से हिंदू व्यक्ति: Persons who are Hindu by birth
भारतीय कानून में “जन्म से हिंदू व्यक्ति” का अर्थ उन व्यक्तियों से है जो हिंदू माता-पिता के घर में जन्म लेते हैं। ये लोग हिंदू धर्म की परंपराओं और रीति-रिवाजों के अनुसार पालन-पोषण पाते हैं। इस प्रकार के व्यक्ति को हिंदू कानून के तहत स्वाभाविक रूप से हिंदू माना जाता है।
प्राचीन धर्म शास्त्रों के अनुसार-
हिन्दू माता-पिता से जन्मा बच्चा ही हिन्दू कहला सकता है, धर्म परिवर्तन से हिन्दू जैसी कोई बात नहीं थी। इसलिए कहा गया कि, “हिन्दू पैदा होता है, बनाया नहीं जाता”
प्रमुख निर्णय:
माया देवी बनाम उत्तरम (1861) 8 एम.आई.ए. 406
मुख्य बिंदु:
इस महत्वपूर्ण मामले में, प्रिवी काउंसिल ने निर्णय दिया कि यदि कोई व्यक्ति हिंदू माता-पिता के घर में जन्म लेता है, तो वह स्वाभाविक रूप से हिंदू माना जाएगा। यह निर्णय व्यक्ति की जन्मभूमि और परिवार की धार्मिक पृष्ठभूमि को आधार मानता है।
इस मामले में यह भी कहा गया कि व्यक्ति का धर्मांतरण तब तक मान्य नहीं होगा जब तक वह स्पष्ट रूप से किया गया हो।
इसके अलावा, धर्मांतरण को पूरी निष्ठा के साथ किया जाना चाहिए।
महत्व:
यह निर्णय हिंदू कानून में जन्म से हिंदू होने की अवधारणा को मजबूत करता है।
यह सुनिश्चित करता है कि जन्म के आधार पर ही व्यक्ति की धार्मिक पहचान को मान्यता दी जाए।
पेरुमल नादर (मृत) एलआरएस बनाम पोन्नुस्वामी (1970) 1 एससीसी 605
मुख्य बिंदु:
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्थापित किया कि हिंदू माता-पिता से जन्म लेने वाला व्यक्ति जन्म से हिंदू माना जाएगा।
यह स्थिति तब तक बनी रहेगी जब तक कि व्यक्ति किसी अन्य धर्म में स्पष्ट रूप से परिवर्तित न हो जाए।
कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि धर्मांतरण की प्रक्रिया को पूरी निष्ठा के साथ किया जाना आवश्यक है।
महत्व:
इस निर्णय ने यह सिद्ध किया कि जन्म से मिली धार्मिक पहचान तब तक नहीं बदलती जब तक व्यक्ति किसी अन्य धर्म को अपनाने का स्पष्ट प्रयास न करे।
इसके साथ ही, धर्मांतरण का प्रयास निष्ठावान होना चाहिए।
शास्त्री यज्ञपुरुषदासजी बनाम मूलदास भुदरदास वैश्य (1966) 3 एससीआर 242
मुख्य बिंदु:
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हिंदू धर्म की पहचान जन्म के साथ ही होती है।
यह पहचान किसी विशेष संप्रदाय या पंथ तक सीमित नहीं है।
हिंदू धर्म की व्यापकता और समावेशी प्रकृति पर बल दिया गया।
महत्व:
यह निर्णय हिंदू धर्म की समावेशी प्रकृति को स्पष्ट करता है और इसे हिंदू माता-पिता से जन्मे व्यक्ति के अधिकारों को मजबूत करता है।
लिली थॉमस बनाम भारत संघ (2000) 6 एससीसी 224
मुख्य बिंदु:
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि धर्म परिवर्तन केवल तभी मान्य होगा जब वह सत्यनिष्ठा के साथ किया गया हो।
यह भी स्पष्ट किया गया कि धर्म परिवर्तन के बाद भी व्यक्ति की कानूनी स्थिति को बदलने के लिए एक निश्चित प्रक्रिया का पालन करना आवश्यक है।
महत्व:
इस निर्णय ने यह स्थापित किया कि केवल जन्म से मिली धार्मिक पहचान को बदलना आसान नहीं है।
इसके लिए स्पष्ट और निष्ठावान प्रक्रिया की आवश्यकता होती है।
निष्कर्ष:
इन महत्वपूर्ण निर्णयों ने हिंदू कानून में जन्म से हिंदू होने की अवधारणा को मजबूत किया है।
कानून यह सुनिश्चित करता है कि हिंदू माता-पिता से जन्मे व्यक्ति को स्वाभाविक रूप से हिंदू माना जाए।
उसकी धार्मिक पहचान तब तक बनी रहेगी जब तक वह स्पष्ट रूप से और पूरी निष्ठा के साथ किसी अन्य धर्म को न अपना ले।
यह अवधारणा हिंदू कानून के अंतर्गत विवाह, उत्तराधिकार, और अन्य व्यक्तिगत मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
(ब ) धार्मिक आधार पर हिंदू व्यक्ति: Person who are Hindu by Religion
भारतीय कानूनी व्यवस्था में “धार्मिक आधार पर हिंदू व्यक्ति” से तात्पर्य उन व्यक्तियों से है जो हिंदू धर्म के अनुयायी होते हैं।
यह व्यक्ति का जन्म हिंदू परिवार में हुआ हो या नहीं, इस पर निर्भर नहीं करता। इन व्यक्तियों को हिंदू कानून के अंतर्गत अधिकार प्राप्त होते हैं।
प्रमुख निर्णय:
ए.एम.के.एम. नादर बनाम तमिलनाडु राज्य (1988)
मुख्य बिंदु:
इस मामले में अदालत ने कहा कि धार्मिक पहचान का निर्धारण उस धर्म के अनुसरण पर होता है, न कि केवल जन्म के आधार पर। यदि कोई व्यक्ति हिंदू धर्म के अनुयायी हैं, तो उसे हिंदू माना जाएगा।
महत्व:
यह निर्णय यह पुष्टि करता है कि धार्मिक पहचान और अधिकार उस व्यक्ति के धर्म के अनुसरण पर निर्भर करते हैं।
निष्कर्ष:
भारतीय कानून में “धार्मिक आधार पर हिंदू व्यक्ति” का मतलब उन व्यक्तियों से है जो हिंदू धर्म के अनुयायी हैं।
यह महत्वपूर्ण नहीं है कि उनका जन्म हिंदू परिवार में हुआ हो या नहीं।
प्रमुख निर्णय जैसे ए.एम.के.एम. नादर बनाम तमिलनाडु राज्य (1988) ने यह स्पष्ट किया है कि धार्मिक पहचान व्यक्ति की धार्मिक आस्थाओं और अनुसरण पर निर्भर करती है।
इसे कानूनी मान्यता भी मिलती है।
(स) वे व्यक्ति जो मुस्लिम, पारसी, ईसाई या यहूदी नहीं हैं:
भारतीय कानूनी प्रणाली में, कुछ धार्मिक पहचानें विशेष रूप से हिंदू कानून के दायरे में आती हैं। यदि व्यक्ति मुस्लिम, पारसी, ईसाई, या यहूदी नहीं है, तो उसे हिंदू कानून के तहत मान्यता प्राप्त होती है। इस प्रकार के व्यक्तियों की धार्मिक पहचान और उनके अधिकारों के बारे में कुछ महत्वपूर्ण निर्णय हुए हैं।
प्रमुख निर्णय:
श्रीमती शकुंतला देवी बनाम भारत संघ (1962) एआईआर एससी 1638
मुख्य बिंदु:
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि वे व्यक्ति जो मुस्लिम, पारसी, ईसाई या यहूदी नहीं हैं, वे हिंदू कानून के तहत आ सकते हैं।
कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि किसी व्यक्ति की धार्मिक पहचान इन धर्मों से मेल नहीं खाती, तो वह हिंदू कानून के अंतर्गत आता है।
महत्व:
यह निर्णय यह स्पष्ट करता है कि हिंदू कानून उन व्यक्तियों पर लागू होता है जो मुस्लिम, पारसी, ईसाई या यहूदी नहीं हैं।
यह कानूनी पहचान को भी निर्दिष्ट करता है।
निष्कर्ष:
भारतीय कानून में, यदि व्यक्ति मुस्लिम, पारसी, ईसाई, या यहूदी नहीं है, तो उसे हिंदू कानून के तहत मान्यता प्राप्त होती है।
प्रमुख निर्णय जैसे शकुंतला देवी बनाम भारत संघ ने यह स्पष्ट किया है कि हिंदू कानून उन व्यक्तियों पर लागू होता है जो इन प्रमुख धर्मों से संबंधित नहीं हैं।
ऐसे व्यक्तियों को कानूनी अधिकार प्राप्त होते हैं।
राज कुमार बनाम वारवाड़ा [ए.आई.आर. 1989, कलकत्ता 165]
इस मामले में कोलकाता हाई कोर्ट ने धार्मिक पहचान और उसके कानूनी प्रभाव को लेकर महत्वपूर्ण निर्णय दिया।
इस केस में विवाद था कि एक व्यक्ति की धार्मिक पहचान क्या होगी। यह विशेष रूप से तब उठता है जब वह मुस्लिम, पारसी, ईसाई या यहूदी नहीं है।
मामले का विवरण:
इस मामले में राज कुमार ने दावा किया कि वह हिंदू कानून के तहत आता है, क्योंकि वह मुस्लिम, पारसी, ईसाई या यहूदी धर्म से संबंधित नहीं है। मामले में यह स्पष्ट करना था कि क्या व्यक्ति की धार्मिक पहचान उसके अधिकारों को प्रभावित करती है।
कोर्ट का निर्णय:
कोर्ट ने निर्णय दिया कि यदि कोई व्यक्ति मुस्लिम, पारसी, ईसाई, या यहूदी नहीं है, तो वह हिंदू कानून के तहत आ सकता है। इस फैसले में यह भी स्पष्ट किया गया कि धार्मिक पहचान केवल धर्म के अनुसरण पर निर्भर करती है, और व्यक्ति की कानूनी स्थिति इस पर आधारित होती है कि वह इन धर्मों से संबंधित नहीं है।
महत्व:
इस निर्णय ने यह सिद्ध किया कि भारतीय कानून में, हिंदू कानून उन व्यक्तियों पर लागू होता है जो प्रमुख धर्मों जैसे मुस्लिम, पारसी, ईसाई, या यहूदी से संबंधित नहीं हैं।
निष्कर्ष:
राज कुमार बनाम वारवारा मामले में कोलकाता हाई कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि वे लोग जो मुस्लिम, पारसी, ईसाई, या यहूदी नहीं हैं, वे हिंदू कानून के दायरे में आते हैं।
इस निर्णय ने यह स्थापित किया कि धार्मिक पहचान और कानूनी अधिकार धार्मिक अनुयायिता पर आधारित होते हैं।
व्यक्ति की कानूनी स्थिति इस पर निर्भर करती है कि वह इन प्रमुख धर्मों से संबंधित नहीं है।
इस निर्णय को समझते हुए, कहा जा सकता है कि: सभी वे व्यक्ति जो मुस्लिम, पारसी, ईसाई या यहूदी नहीं हैं, हिंदू माने जाते हैं और उन पर हिंदू कानून लागू होता है। ये व्यक्ति निम्नलिखित में से किसी भी श्रेणी में हो सकते हैं:
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नास्तिक (आस्था न रखने वाले),
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वे जो सभी धर्मों में विश्वास रखते हैं, या
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वे जो सभी धर्मों का मिश्रण मानते हैं।”
इस प्रकार, यदि कोई व्यक्ति उपरोक्त धर्मों में से किसी भी धर्म से संबंधित नहीं है, तो उसे हिंदू मानते हुए उस पर हिंदू कानून लागू होता है।
हिंदू पहचान के सामाजिक विवादों का विवरण एवं निपटारा:
I. हिंदू पिता और ईसाई माता से उत्पन्न संतान:
Children born to a Hindu father and Christian mother:
भारत में विवाह और उत्तराधिकार के मामले में संतान की धार्मिक पहचान का प्रश्न तब जटिल हो जाता है, जब माता-पिता अलग-अलग धर्मों के होते हैं। यदि पिता हिंदू और माता ईसाई हैं, तो बच्चे की धार्मिक पहचान और उस पर लागू होने वाले कानून को लेकर कई सवाल उठते हैं।
प्रमुख निर्णय:
1. सपना जैकब बनाम जोसेफ जैकब (2010)
मुख्य बिंदु:
इस मामले में बॉम्बे हाई कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि जब माता-पिता अलग-अलग धर्मों के होते हैं, तो बच्चे की धार्मिक पहचान इस बात पर निर्भर करेगी कि माता-पिता ने बच्चे को किस धर्म में पाला है।
यदि हिंदू पिता और ईसाई माता अपने बच्चे को हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार पालते हैं, तो वह बच्चा हिंदू माना जाएगा।
महत्व:
इस निर्णय ने यह स्पष्ट किया कि बच्चे की धार्मिक पहचान उसकी परवरिश पर निर्भर करती है, न कि केवल माता-पिता के धर्म पर।
2. अब्राहम बनाम अब्राहम (1863) 9 एमआईए 195
मुख्य बिंदु:
इस प्रिवी काउंसिल के फैसले में यह स्पष्ट किया गया कि यदि एक ईसाई महिला हिंदू पुरुष से विवाह करती है और उनके बच्चों की परवरिश हिंदू धर्म के अनुसार होती है, तो वे बच्चे हिंदू माने जाएंगे।
महत्व:
यह निर्णय हिंदू कानून के अंतर्गत उन बच्चों की धार्मिक पहचान को स्पष्ट करता है जिनके माता-पिता अलग-अलग धर्मों से होते हैं।
3. एम. एम. गांगुली बनाम चकबंदी निदेशक (1982)
मुख्य बिंदु:
इस मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा कि जब एक हिंदू पिता और ईसाई माता से उत्पन्न बच्चे को हिंदू धर्म के अनुसार पाला गया हो, तो वह बच्चा हिंदू कानून के तहत उत्तराधिकार और अन्य अधिकारों का हकदार होगा।
महत्व:
इस निर्णय ने यह स्थापित किया कि बच्चे की परवरिश और पालन-पोषण का तरीका उसकी धार्मिक पहचान को निर्धारित करता है, और यह उसे हिंदू कानून के तहत अधिकार दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
4. सुनीता क्रिश्चियन बनाम राम मोहन हिंदू (1991)
मुख्य बिंदु:
इस मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने यह कहा कि माता-पिता के धर्म अलग-अलग होने की स्थिति में, बच्चे की धार्मिक पहचान को लेकर कोई विवाद हो तो, अदालत बच्चे के हितों को सर्वोपरि मानते हुए निर्णय लेगी।
महत्व:
इस निर्णय ने यह सिद्ध किया कि अदालत बच्चों के मामले में सबसे पहले उनके हितों को देखेगी, चाहे उनके माता-पिता का धर्म कुछ भी हो।
निष्कर्ष:
भारत में जब माता-पिता के धर्म अलग-अलग होते हैं, तो बच्चे की धार्मिक पहचान उसकी परवरिश और पालन-पोषण पर निर्भर करती है।
अदालतें इस बात पर ध्यान देती हैं कि बच्चे को किस धर्म के रीति-रिवाजों और परंपराओं के अनुसार पाला गया है।
अगर हिंदू पिता और ईसाई माता के बच्चे की परवरिश हिंदू धर्म के अनुसार की गई हो, तो वह बच्चा हिंदू कानून के तहत माना जाएगा और उसे उसी के अनुसार अधिकार प्राप्त होंगे।
II. मुस्लिम पिता और हिन्दू मां की संतान
श्रीमती अनीस बेगम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1958) एआईआर सभी 88
मुख्य बिंदु:
इस मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया जिसमें यह तय किया गया कि यदि एक मुस्लिम पिता और हिंदू माता से जन्मा बच्चा हिंदू धर्म के अनुसार पालन-पोषण किया जाता है, तो उस बच्चे को हिंदू के रूप में मान्यता दी जाएगी।
मामले की पृष्ठभूमि:
इस मामले में एक मुस्लिम पिता और हिंदू माता के बीच का विवाह था, और उनके संतान की धार्मिक पहचान पर विवाद उत्पन्न हो गया। मामला तब सामने आया जब बच्चे की धार्मिक पहचान को लेकर कानूनी प्रश्न उठे। विशेषकर, यह प्रश्न था कि बच्चे की पहचान किस धर्म के तहत की जाएगी और उसके अधिकार क्या होंगे।
कोर्ट का निर्णय:
धार्मिक पहचान:
कोर्ट ने यह निर्णय लिया कि धार्मिक पहचान केवल माता-पिता के धर्म पर निर्भर नहीं होती।
बल्कि, बच्चे की परवरिश जिस धर्म के अनुसार की जाती है, वही बच्चे की धार्मिक पहचान को निर्धारित करता है।
परवरिश का महत्व:
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि बच्चे को हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार पाला जाता है और उसकी परवरिश हिंदू धर्म के अनुसार की जाती है, तो उसे हिंदू माना जाएगा, भले ही उसके माता-पिता अलग-अलग धर्मों से हों।
निष्कर्ष:
“श्रीमती अनीस बेगम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य” ने यह स्पष्ट किया कि धार्मिक पहचान माता-पिता के धर्म पर निर्भर नहीं होती। इसके बजाय, यह बच्चे की परवरिश पर निर्भर करती है। यह निर्णय सुनिश्चित करता है कि बच्चे की कानूनी और धार्मिक पहचान उसके पालन-पोषण के आधार पर तय की जाएगी। इससे विभिन्न धर्मों के माता-पिता से उत्पन्न बच्चों के मामलों में स्पष्टता मिलती है।
निष्कर्ष:
“हिंदू पहचान: कानून की नजर में” पर आधारित इस विश्लेषण ने यह स्पष्ट किया है कि भारतीय कानून के तहत ‘हिंदू’ की परिभाषा केवल धार्मिक प्रथाओं या जन्म पर निर्भर नहीं करती।
इसके बजाय, यह व्यक्ति की धार्मिक आस्थाओं और पालन-पोषण पर आधारित होती है।
कानूनी दृष्टिकोण से, ‘हिंदू’ शब्द का दायरा व्यापक है। इसमें उन व्यक्तियों को भी शामिल किया जाता है जो हिंदू धर्म के अनुयायी हैं।
यह महत्व नहीं रखता कि उनका जन्म हिंदू परिवार में हुआ हो या नहीं।
इसके साथ ही, यह भी स्थापित किया गया है कि धर्मांतरण के लिए स्पष्ट और निष्ठावान प्रक्रिया की आवश्यकता होती है।
प्रमुख न्यायालयीय निर्णयों ने यह सुनिश्चित किया है कि धार्मिक पहचान और कानूनी स्थिति का निर्धारण बच्चे की परवरिश पर निर्भर करता है, न कि केवल माता-पिता के धर्म पर।
इस प्रकार, हिंदू कानून उन व्यक्तियों पर लागू होता है जो मुस्लिम, पारसी, ईसाई, या यहूदी नहीं हैं।
इसमें विभिन्न धर्मों के माता-पिता से उत्पन्न बच्चों की पहचान को भी मान्यता दी जाती है। यह मान्यता तब होती है जब वे हिंदू धर्म के अनुसार पालन-पोषण पाते हैं।
इस प्रकार, भारतीय कानूनी व्यवस्था ने यह सुनिश्चित किया है कि धार्मिक पहचान और कानूनी अधिकारों का निर्धारण केवल जन्म और धार्मिक प्रथाओं पर निर्भर नहीं करता, बल्कि व्यक्ति की वास्तविक धार्मिक आस्थाओं और पालन-पोषण पर आधारित होता है।