
📜 ताअर्रुफ़:
ग़ज़ल “अब पछताए क्या” वक़्त की अहमियत, इनसानी बेपरवाही और उन लम्हों की नाक़द्री पर एक पुर-असर नज़रिया पेश करती है। इस ग़ज़ल में शायर ने वक़्त के बदलते रंगों और इनसान की उससे बेख़बरी को अश’आर की सूरत में उकेरा है। “अभी वक़्त नहीं”, “थोड़ा और सँभल लें”, जैसे जुमले कैसे ज़िंदगी के कीमती लम्हों को ज़ाया कर देते हैं—इस हक़ीक़त को बेहद ख़ूबसूरती से बयां किया गया है। फ़िरऔन, नमरूद, यज़ीद और हिटलर जैसे तख़्तनशीनों की मिसालें वक़्त की ताक़त को उजागर करती हैं। ग़ज़ल हर उस शख़्स के लिए आईना है जो वक़्त से लड़ता रहा, और अब ख़ुद से ही हार बैठा है।
ग़ज़ल: “अब पछताए क्या”
मतला:
वक़्त को जो जान ना पाया, वो बसर क्या करता,
ख़ुद से उलझा रहा हर पल, मुक़द्दर क्या करता।-1
वो जो हर बात पे कहता था “अभी फ़ुर्सत नहीं”,
अब जो तन्हा है, तो महफ़िल में असर क्या करता।-2
घड़ी-घड़ी बदलता है वक़्त का चेहरा,
समझ न पाए जो उसको, खबर क्या करता।-3
वो जो लम्हों को समझता था खिलौना शायद,
अब जो टूटा तो ज़माने से गिला क्या करता।-4
“थोड़ा वक़्त दो”, ये जुमला बना मज़ाक़,
जब समय ने ही न पूछा, तो बसर क्या करता।-5
तर्ज़-ए-जीस्त वही है जो समय का हो रफ़ीक़,
जो अलग राह चला, फिर बचा क्या करता।-6
“अभी काम बहुत है”, कह के टाल दी मोहब्बत,
अब जो ख़ाली है दिल, वो क़मर क्या करता।-7
जिसने पल की न क़दर की, सदी से हारा,
क़ाफ़िला रुक गया, फिर क़ता क्या करता।-8
जिसे ख़्वाबों में ही गुज़ारनी थी दुनिया सारी,
वो हक़ीक़त से उलझा तो भला क्या करता।-9
“अब नहीं, फिर सही” हर बार यही कहता रहा,
अब जो वक़्त ही रुक गया, तो सफ़र क्या करता।-10
वक़्त की ना-फरमानी पर जो इतराता रहा,
वही शख़्स कल फ़ुज़ूलों में गिना जाता रहा।-11
अब न वो रौशनी, न सुबहों की आहट बाक़ी,
वक़्त से जो भी लड़ा, वो बचा क्या करता।-12
“थोड़ा और सँभल लें, फिर करेंगे बात”,
अब जो टूटा है रिश्ता, तो ख़बर क्या करता।-13
हर घड़ी उसको जगाती रही दुनिया लेकिन,
नींद का जो था बशर, वो तो सहर क्या करता।-14
क़ीमतें वक़्त की वो जान न पाया जब तक,
देर हो जाए अगर, फिर तो हुनर क्या करता।-15
इक तबस्सुम भी कभी वक़्त से माँग लिया कर,
जो न दे मुस्कुराहट, वो शजर क्या करता।-16
वक़्त के साथ जो बदला नहीं, टूट गया,
तू अगर खुरदुरा हो, तो भी शहर क्या करता।-17
कभी इस वक़्त ने फ़िरऔन भी रुला डाला,
तेरा ग़ुर्बत में अकड़ना, ये गुरूर क्या करता।-18
वक़्त ने जब नमरूद की शान को रौंदा,
तेरा छोटा सा तख़्त, फिर जादू क्या करता।-19
जिसने अँधेरों से सीखा न कोई रास्ता,
उसके हाथों में दिया हो तो नज़र क्या करता।-20
वो जो हर काम को कल पे टालता था सदा,
अब जो कल ही नहीं, तो क़दर क्या करता।-21
वक़्त के सामने हामान भी झुका आख़िर,
तू जो ग़ुरूर में था, तेरा सबर क्या करता।-22
जो न समझा कभी मौसम की तबदीली को,
अब जो पतझड़ है उसका, तो शजर क्या करता।-23
अब्राहा आया था क़ाबा गिराने की चाह में,
वक़्त ने उसे रेत कर डाला, मगर क्या करता।-24
कभी हिटलर की तक़रीरें भी काँपती थीं ज़मीं,
अब जो चुप है ज़माना, तो ग़ुबार क्या करता।-25
वक़्त ने जो कर्बला में भी तालीम दी सब्र की,
यज़ीद की ताक़त को फिर शरर क्या करता।-26
कभी वक़्त की चुप्पी में भी सबक़ था छुपा,
जिसने सुना ही नहीं, वो ख़ता क्या करता।-27
जिसे अपनी सल्तनत पे था गुरूर बेहिसाब,
वो शद्दाद भी मिट गया, फिर तू क्या करता।-28
वक़्त को समझ कर जीना ही है असल इल्म,
वरना तालीम से भी कोई हुनर क्या करता।-29
मक़ता:
वक़्त ने जब भी दर पे दस्तक दी ‘क़बीर’,
अब जो जागा है तू, नींद का गिला क्या करता।-30

(He who never understood the seasons’ turn…)
—A visual echo of the ghazal’s warning: “अब जो पतझड़ है उसका, तो शजर क्या करता” (What can the tree do, when its autumn arrives?).
ख़त्मा:
“अब पछताए क्या” सिर्फ़ एक ग़ज़ल नहीं, बल्कि वक़्त के साथ होने वाली बेवफ़ाई का एहसास है। जब इनसान वक़्त को हल्के में लेता है, तो वक़्त भी उसे बे-रुख़ी से जवाब देता है। इस ग़ज़ल में जो लहजा है, वो शिकायत से ज़्यादा इब्तिदा-ए-तौबा का दरवाज़ा खोलता है। ‘क़बीर’ का मक़ता इस बात की गवाही देता है कि जागना अभी भी मुमकिन है, बशर्ते नींद से मोहब्बत छोड़ी जाए। यह ग़ज़ल हर उस दिल तक पहुँचना चाहती है जो वक़्त को हलाल करता रहा और अब तन्हाई का लुत्फ़ भी बोझ बन गया है। आख़िर में यही सवाल रह जाता है—अब जब वक़्त ही नहीं रहा, तो पछतावे से क्या हासिल?
कठिन उर्दू अल्फ़ाज़ का मतलब:
ताअर्रुफ़ – परिचय, अहमियत – महत्व, बेपरवाही – लापरवाही, नाक़द्री – क़द्र न करना, शायर – कवि, अश’आर – शेर (कविता की पंक्तियाँ), उकेरा – चित्रित किया, जुमले – वाक्य, ज़ाया – बर्बाद, तख़्तनशीनों – शासक, मिसालें – उदाहरण, ताक़त – शक्ति, आईना – दर्पण, मतला – ग़ज़ल का पहला शेर, बसर – जीवन बिताना, मुक़द्दर – किस्मत, महफ़िल – सभा, असर – प्रभाव, ख़बर – जानकारी, गिला – शिकायत, मज़ाक़ – मज़ाक, तर्ज़-ए-जीस्त – जीवनशैली, रफ़ीक़ – साथी, क़मर – चाँद (प्रेमी), क़ता – ग़ज़ल का हिस्सा, ख़्वाबों – सपनों, हक़ीक़त – सच्चाई, सफ़र – यात्रा, ना-फरमानी – अवज्ञा, फ़ुज़ूलों – बेकार लोग, आहट – पदचाप, सहर – सुबह, क़ीमतें – मूल्य, तबस्सुम – मुस्कान, शजर – पेड़ (यहाँ: ज़रिया), खुरदुरा – रुख़ा, शहर – समाज, ग़ुर्बत – ग़रीबी, गुरूर – घमंड, शान – रुतबा, नज़र – दृष्टि, झुका – समर्पित, सबर – धैर्य, तबदीली – बदलाव, पतझड़ – सूखा मौसम (गिरावट), अब्राहा – काबा गिराने वाला यमनी शासक, ग़ुबार – धूल या भ्रम, तालीम – शिक्षा, सबक़ – सीख, ख़ता – ग़लती, सल्तनत – शासन/राज्य, इल्म – ज्ञान, हुनर – योग्यता, मक़ता – अंतिम शेर जिसमें शायर का नाम आता है, गिला – शिकायत