
तआर्रुफ़:
ग़ज़ल “आराम की तलाश” उस ज़िंदगी की दास्तान है जो फ़र्ज़, जज़्बात, रिश्ते और हालात के बीच पिसती रही। यह शायरी उस इंसान की आवाज़ है जिसने अपनी तमाम ख़्वाहिशों को दूसरों के लिए कुर्बान कर दिया, और जब थोड़ी राहत का वक़्त आया तो मर्ज़, तन्हाई, और ग़म ने उसे घेर लिया। हर शेर एक अलग ज़िन्दगी की परत को खोलता है—बचपन की मासूमियत, जवानी की जद्दोजहद, और बुज़ुर्गी की तन्हाई। यह ग़ज़ल न सिर्फ़ एक सफ़र है, बल्कि एक एहसास भी है, जो हर पाठक को उसकी अपनी थकान, उसकी अपनी तलाश और उसके अपने अधूरे ख्वाबों से जोड़ देती है। ‘क़बीर’ ने बेहद संजीदगी से उन सन्नाटों को आवाज़ दी है जिन्हें आम तौर पर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।
ग़ज़ल: “आराम की तलाश”
मतला:
आराम की चाह थी, फ़र्ज़ निभाने में उम्र गई,
अब जो वक़्त मिला है, मर्ज़ों ने घेर लिया।
जज़्बात को दबाया, ख़्वाहिश को मार दिया,
जब दिल थोड़ा संभला तो ज़ख़्मों ने घेर लिया।-1
बच्चों की मुस्कान में सब कुछ कुर्बान किया,
बुज़ुर्गी के सफ़र में तन्हाई ने घेर लिया।-2
मंज़िल की तलाश में कांटे भी चूमे हमने,
अब जो बैठे हैं ठहरे, फ़ासलों ने घेर लिया।-3
वक़्त से लड़ते रहे, हालात से उलझे रहे,
थोड़ी राहत जो मिली, सोचों ने घेर लिया।-4
नाम था, शोहरत थी, हर एक चीज़ पास थी,
जब चाहा सुकून-ए-दिल, यादों ने घेर लिया।-5
रिश्तों की भीड़ में भी हम ख़ुद को ढूँढते रहे,
अब जो आइना देखा, शक्लों ने घेर लिया।-6
दर्द को सीने में रख मुस्कान बाँटी हमने,
अब जो टूटे तो ग़मगीन लम्हों ने घेर लिया।-7
जीते रहे औरों के लिए सारी ज़िंदगी,
अब जो खुद से मिले, इल्ज़ामों ने घेर लिया।-8
हर साँस में इम्तिहान, हर क़दम पर कसौटी,
जो ठहरे दो पल तो हालातों ने घेर लिया।-9
ख़्वाब थे आँखों में, जलते रहे हर पल,
अब जो जागे तो हकीकतों ने घेर लिया।-10
ख़ुद को साबित करने में उम्र बीत गई,
अब जो थमे तो सवालों ने घेर लिया।-11
जो भी थे अपने, किसी मोड़ पर छूट गए,
अब जो पलटे तो अजनबियों ने घेर लिया।-12
मक़्ता:
‘क़बीर’ अब शिकवा नहीं है इस ज़िंदगी से,
जिसने भी जिया जैसे, अंजाम ने घेर लिया।
ख़ातमा:
आराम की तलाश कोई आम ग़ज़ल नहीं, बल्कि वह आईना है जिसमें हर पाठक को अपनी शक्ल नज़र आती है—थकी हुई, मगर ज़िंदा। इस ग़ज़ल का मक़्ता बड़ी ख़ामोशी से ज़िंदगी की सच्चाई बयान करता है: “जिसने भी जिया जैसे, अंजाम ने घेर लिया।” यहां शिकवा नहीं, बल्कि एक गहरी समझ है कि ज़िंदगी का हासिल क्या है। हर शेर जैसे किसी भूले हुए एहसास को जगाता है, किसी दबे हुए दर्द को अल्फ़ाज़ देता है। यह ग़ज़ल रिश्तों की भीड़ में गुम हुए इंसान की तलाश है, जिसे आखिर में सिर्फ़ यादें, सवाल और तन्हाई मिलती है। ‘क़बीर’ की यह पेशकश एक भावनात्मक दस्तावेज़ बन जाती है—जो थकावट में राहत नहीं, मगर तसल्ली ज़रूर देती है।
कठिन उर्दू अल्फ़ाज़ का अर्थ:
दास्तान = कहानी, आवाज़ = अभिव्यक्ति/वाणी, कुर्बान = बलिदान, परत = तह/स्तर, अहसास = भावना, सन्नाटा = ख़ामोशी, संजीदगी = गम्भीरता, नज़रअंदाज़ = अनदेखा करना, मक़्ता = ग़ज़ल का आख़िरी शेर, समापन = अंत, ख़ामोशी = चुप्पी, हासिल = प्राप्ति/नतीजा, अल्फ़ाज़ = शब्द, दबा हुआ दर्द = छिपा हुआ दुख, बीड़ = समूह/भीड़, रुहानी = आत्मिक/भावनात्मक, दस्तावेज़ = प्रमाण-पत्र/लिखित रिकॉर्ड, तसल्ली = सांत्वना, अभिव्यक्ति = ज़ाहिर करना, थकावट = थकान