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🖋️  तआर्रुफ़:

ग़ज़ल “इज़हार-ए-खौफ़” जज़्बातों की उस नाज़ुक सरहद पर खड़ी है जहाँ मोहब्बत तो है, लेकिन बयान करने का हौसला नहीं। हर शेर दिल के उस दर्द को उभारता है जिसमें अपने एहसास को छुपाने की कोशिश भी एक सज़ा बन जाती है। शायर “कबीर” ने एक ऐसा माहौल रचा है जिसमें हर ख़ामोशी, हर चुप्पी, और हर बेरुख़ी को भी इकरार या इनकार समझ लिए जाने का डर है। यह ग़ज़ल उन दिलों के लिए है जो चाहकर भी मुहब्बत नहीं कह पाते, और हर लफ़्ज़ कहने से पहले सोचते हैं कि कहीं सामने वाला कुछ और न समझ ले। यह ग़ज़ल एक सच्चे आशिक़ की जद्दोजहद और उसकी अदृश्य लड़ाई की झलक है।

🌹 ग़ज़ल: इज़हार-ए-खौफ़

मतला:

कहता हूँ “छोड़ दूँ” मगर खदशा है मुझे,
कहीं वो मेरी बेरुख़ी को भी इक़रार न समझे।

चुप रहकर देखता हूँ उसे दूर जाते हुए,
ख़ौफ़ ये है कि मेरी चुप्पी को इंकार न समझे।-1

हर लम्हा सोचा कि अब तो दूर हो जाऊँ,
मगर क्या करूँ, वो इसे भी तकरार न समझे।-2

लौट कर जब भी आए, दिल से लगाऊँगा उसे,
बस वो मेरे सुकून को तकरार न समझे।-3

उसे देख कर भी नज़रें चुरा लेता हूँ मैं,
डरता हूँ कहीं वो नज़रें भी इज़हार न समझे।-4

अब तो खुद से भी छुपाने लगा हूँ दिल की बात,
कहीं ये साया भी मेरी तरफ़ इज़हार न समझे।-5

उसके सवालों में कुछ ऐसा असर होता है,
मैं जवाब न दूँ कहीं वो इनकार न समझे।-6

कभी जो मेरी आंखों में नमी मिल जाए,
वो मेरी हर आह को फ़रियाद न समझे।-7

जो चिट्ठियाँ नहीं भेजीं उसे बरसों से मैंने,
क्या पता वो इन ख़ामुशियों को इंतज़ार न समझे।-8

अबके जो टूटा हूँ तो मुकम्मल ही बिखर गया,
वो इस शिकस्त को भी तैयार न समझे।-9

वक़्त बदल गया है मगर जज़्बात वही हैं,
डर है कोई इस बदलते वक़्त को इन्कार न समझे।

लौट आने की सदा हर रात देता हूँ ख़ुद को,
वो अगर ना आए, इसे मेरा इंतेज़ार न समझे।

बिछड़ कर भी उसका एहतराम करता हूँ,
ख़ौफ़ है, कहीं वो इसे दिखावा न समझे।

वक़्त की गर्द ने चेहरा बदल डाला है मेरा,
आइना भी अब मुझे वफ़ादार न समझे।

हर शख़्स यहाँ मुख़्तसर-सा लगता है,
कोई भी मेरी तन्हाई को ख़ुमार न समझे।

मैंने जलते हुए दिल से दुआ माँगी है,
अब कोई भी मेरी बद्दुआ को शिकार न समझे।

कभी कभी दिल ये कह देता है बे-सबब,
कि वो मेरी सज़ा को भी इनाम न समझे।

मेरे हर नक्श में उसकी ही तस्वीर है,
वो मेरे फन को कोई फरेब-ए-कार न समझे।

अब तो लफ़्ज़ भी जुदा होने लगे हैं मुझसे,
वो इस सन्नाटे को भी इश्तेहार न समझे।

लौट कर जब भी आए, दिल से लगाऊँगा उसे,
बस वो मेरे सुकून को तकरार न समझे।

मक़्ता:

“कबीर” तन्हा रहा, मगर बदगुमाँ न हुआ,
ख़ुदा करे, कोई मेरी वफ़ा को बेकार न समझे।

A solitary poet sits in a candlelit room, his fractured reflection visible in a broken mirror. He trembles as he writes, then crushes the paper in despair, avoiding the gaze of a portrait on the wall—his unspoken love heavy in the air.

ख़ातमा:

ग़ज़ल “इज़हार-ए-खौफ़” का हर शेर एक ना कही दास्ताँ है—ऐसी दास्ताँ जो तन्हाई में गूंजती है मगर भीड़ में भी सुनाई नहीं देती। “कबीर” ने उस दर्द को अल्फ़ाज़ में ढाला है जो अक्सर मुहब्बत में ग़लतफहमियों की शक्ल में जन्म लेता है। यह ग़ज़ल ना सिर्फ़ दिल को छूती है बल्कि उस इंसानी फ़ितरत को भी बयान करती है जो रिश्तों में जज़्बातों के गलत मायनों से डरती है। इस रचना में हर तर्क एक एहसास है, और हर एहसास एक तर्क। मक़्ता इस बात पर परदा डालता है कि सच्ची वफ़ा कभी भी बेकार नहीं जाती, भले ही वह तन्हा ही क्यों न रहे। यह ग़ज़ल उन सभी के लिए है जिन्होंने चुप रहकर भी मोहब्बत की है।

उर्दू शब्दों के आसान हिंदी अर्थ:

तआर्रुफ़ = परिचय, ग़ज़ल = उर्दू कविता की एक विधा, जज़्बात = भावनाएँ, नाज़ुक सरहद = कोमल सीमा, इज़हार = भावनाओं का इज़हार, खदशा = डर, बेरुख़ी = दूरी या उदासी, इक़रार = स्वीकार करना, चुप्पी = खामोशी, इंकार = मना करना, तकरार = बहस या झगड़ा, सुकून = शांति या चैन, नज़रें चुराना = आँखें मिलाने से बचना, साया = परछाईं, फ़रियाद = शिकायत या विनती,

ख़ामुशियाँ = लंबी खामोशी, इंतज़ार = प्रतीक्षा, शिकस्त = हार, इन्कार = नकारना, इंतेज़ार = इंतज़ार करना, एहतराम = सम्मान, दिखावा = बनावटीपन, गर्द = धूल या समय का असर, वफ़ादार = सच्चा और निष्ठावान, मुख़्तसर = छोटा या संक्षिप्त, तन्हाई = अकेलापन, ख़ुमार = प्रेम का नशा, बद्दुआ = बुरा चाहना, शिकार = नुकसान उठाने वाला, इनाम = पुरस्कार, फरेब-ए-कार = धोखेबाज़ी, इश्तेहार = प्रचार या विज्ञापन, मक़्ता = ग़ज़ल का अंतिम शेर, बदगुमाँ = शक करने वाला, बेकार = व्यर्थ, वफ़ा = निष्ठा, सच्चा प्यार