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“उम्मत का बंटवारा” एक ऐसी ग़ज़ल है जो महज़ अल्फ़ाज़ नहीं, बल्कि हमारे समाज की तारीख़ी ग़लतियों, बंटवारे की सियासत और मोहब्बत की शिकस्त की गवाही है। इस शायरी में हर शेर उस दर्द को बयान करता है जो उस वक़्त महसूस किया गया जब लोग मज़हब, तहज़ीब और सरहदों के नाम पर जुदा कर दिए गए। यह ग़ज़ल एक सवाल है — क्या वो बंटवारा वाक़ई नादान था, या मजबूरियों की साज़िश? पढ़िए और महसूस कीजिए उस दौर की खामोश चीखें, जो आज भी हवाओं में तैरती हैं।

ग़ज़ल: “उम्मत का बंटवारा”

जो ख़्वाब था हिजाज़ी, उसे सरहद बना दिया,
इक उम्मत के हिस्सों में नादान इंतिख़ाब हुआ।-1

जो कहते थे ‘सरज़मीं मेरी माँ है’, वो चुप रहे,
बटवारे की नीयत में ही नादान इंतिख़ाब हुआ।-2

सियासतें मुस्काईं, मोहब्बतें रो पड़ीं,
जो था दिलों का फ़ैसला, वहाँ नादान इंतिख़ाब हुआ।-3

नक़्शे बने सियासत से, दिलों के पुल टूटे,
तहज़ीब की तामीर में फिर नादान इंतिख़ाब हुआ।-4

जो लहू बहा था मिलकर फ़िरंगी से जंग में,
उसी को बाँटते हुए फिर नादान इंतिख़ाब हुआ।-5

जब शहर जलते रहे, ज़ुबाँओं पे ताले थे,
जहाँ सदा उठनी थी, वहाँ नादान इंतिख़ाब हुआ।-6

मुसलमान भी यहीं के थे, हिंदू भी इसी मिट्टी के,
मगर पहचान के नाम पर नादान इंतिख़ाब हुआ।-7

जो बाँटते नहीं थे कभी रोटी और आँसू,
उन्हीं के दरमियाँ फिर से नादान इंतिख़ाब हुआ।-8

मिलते थे मंदिरों में भी, मस्जिदों के आँगन में,
वहीं से फिर नफ़रतों का नादान इंतिख़ाब हुआ।-9

जिन्हें था जामे-जम्हूरियत पे एतबार,
वही रह गए पीछे, जब नादान इंतिख़ाब हुआ।-10

हिजरत की रुख़सतियों में बुझ गई चूल्हों की आग,
हर दस्तरख़्वान की दुआ में नादान इंतिख़ाब हुआ।-11

जो आज़ाद, नेहरू, गाँधी ने देखा था,
उन ख़्वाबों के नतीजे में नादान इंतिख़ाब हुआ।-12

कलमा भी हमने पढ़ा, तिरंगा भी उठाया,
मगर पहचान की जिद में नादान इंतिख़ाब हुआ।-13

‘क़बीर’ जो चाहता था मोहब्बत की ज़बान,
वो ख़ामोश हो गई जब नादान इंतिख़ाब हुआ।-14

"A digital artwork depicting a split, faded map of India and Pakistan divided by a jagged red line. Below the map, a torn book lies beneath a sword, symbolizing violence overshadowing wisdom. Colors are muted ochre and crimson, textures cracked and weathered."
“Where borders bleed and wisdom weeps—a visual elegy to division, where swords silence stories and maps memorialize fractures.”

ख़ात्मा (समापन):

“उम्मत का बंटवारा” कोई आम शायरी नहीं, बल्कि एक जज़्बाती दस्तावेज़ है, जो उस दौर की चीख़ को बयाँ करती है जहाँ मोहब्बतें सियासत की ठोकरों में दम तोड़ गईं। ये अश्आर उस दर्द को बयान करते हैं जब मज़हब, तहज़ीब और पहचान के नाम पर दिलों को बाँटा गया, रिश्तों में दरार पड़ी और इंसानियत हाशिये पर चली गई। ये ग़ज़ल उन तमाम ख़ामोश सवालों की आवाज़ है जो तालीम, यकजहती और मुहब्बत की जगह सियासी नज़रियों ने निगल लिए। लेकिन यही शायरी एक उम्मीद भी है—कि शायद अबकी बार कोई नादान इंतिख़ाब न हो। शायद अब सरहदें नहीं, दिल जुड़ें। शायद अब वो वक़्त आए जब हम मोहब्बत को फिर से बुनना सीखें, नफ़रत के ताने-बाने से नहीं, यकजहती के धागों से।

मुश्किल उर्दू अल्फ़ाज़ और उनके आसान हिंदी अर्थ:

उम्मत – समुदाय (ख़ास तौर पर इस्लामिक समुदाय), इंतिख़ाब – चुनाव / चयन, हिजाज़ी – हिजाज़ क्षेत्र (सऊदी अरब का इलाक़ा, इस्लाम की जन्मभूमि के प्रतीक), तहज़ीब – संस्कृति / सभ्यता, तामीर – निर्माण, हिजरत – पलायन / विस्थापन, रुख़सतियाँ – विदाइयाँ, चूल्हों की आग – जीवन का सामान्य क्रम / घरेलू शांति, दस्तरख़्वान – खाने की चादर / खाने की जगह (घरेलू जीवन और दुआओं का प्रतीक), कलमा – इस्लाम का मूल विश्वास वाचन (शहादा), तिरंगा – भारतीय राष्ट्रीय ध्वज, यकजहती – एकता, ख़ामोश – मौन / चुप।