Author: Er. Kabir Khan B.E.(Civil Engg.) LLB, LLM
प्रस्तावना:
हमारे समाज में हिन्दू धर्म और उसकी परंपराओं के प्रति समर्पण और विश्वास की कोई कमी नहीं है। लेकिन जब बात कट्टर हिन्दू या कट्टरवाद की होती है, तो यह सवाल खड़ा होता है कि क्या यह समर्पण और विश्वास समाज के व्यापक और विविध दृष्टिकोणों के साथ मेल खाता है, या फिर यह किसी संकीर्ण सोच और स्वार्थ से प्रेरित है।
यह ब्लॉग इस विषय पर विचार करने का एक प्रयास है, जहाँ हम कट्टर हिन्दू विचारधारा का गहन विश्लेषण करेंगे। क्या कट्टरपंथी हिन्दू अपनी धार्मिक मान्यताओं को आत्मसात करते हुए समाज में तटस्थता और भाईचारे की भावना को बढ़ावा दे रहे हैं, या फिर वे अपनी स्वार्थी इच्छाओं और राजनीतिक एजेंडों के तहत धर्म का इस्तेमाल कर रहे हैं?
स्वार्थ और सच्चाई के आईने में कट्टर हिन्दू की पहचान, उनके दृष्टिकोण, और उनके कार्यों को समझने का यह एक प्रयास है। क्या धर्म और आस्था के नाम पर हम स्वार्थ को सही ठहराने का प्रयास कर रहे हैं, या क्या सच्चाई और विवेक का पालन करते हुए हम एक अधिक समावेशी समाज की ओर बढ़ रहे हैं? इस ब्लॉग के माध्यम से हम इस गहन प्रश्न का उत्तर खोजेंगे और समझने की कोशिश करेंगे कि कट्टर हिन्दू का अस्तित्व समाज और देश के लिए किस दिशा में योगदान कर रहा है।
कट्टर शब्द का क्या अर्थ है?
कट्टर शब्द का अर्थ होता है “सख्त”, “हठी” या “निर्दयी”। यह विशेष रूप से उस व्यक्ति के लिए उपयोग किया जाता है जो किसी विचार, सिद्धांत या विश्वास पर अत्यधिक दृढ़ और अडिग होता है, बिना किसी लचीलापन या समझौते के। कट्टर व्यक्ति किसी विशेष धार्मिक, राजनीतिक या सामाजिक दृष्टिकोण को बिना किसी समझौते के मानने वाला होता है, और वह किसी अन्य दृष्टिकोण या विचार के लिए खुला नहीं होता।
उदाहरण के रूप में:
- कट्टरवादी – जो अपने विचारों या विश्वासों में अत्यधिक सख्त होते हैं और दूसरों के विचारों को स्वीकार नहीं करते।
- कट्टर धार्मिक – जो अपने धार्मिक विश्वासों और आस्थाओं में अडिग होते हैं और उन्हें दूसरों पर थोपने की कोशिश करते हैं।
यह शब्द आमतौर पर नकारात्मक संदर्भ में इस्तेमाल किया जाता है, क्योंकि यह किसी व्यक्ति के संकुचित दृष्टिकोण या समझ की कमी को दर्शाता है।
कौन समाज के लिए बेहतर है: कट्टर हिन्दू या सच्चा हिन्दू?
हिन्दू धर्म में बहुत सारी विचारधाराएँ और परंपराएँ हैं, जिनमें से दो मुख्य शब्द अक्सर चर्चा में आते हैं – “कट्टर हिन्दू” और “सच्चा हिन्दू”। ये दोनों एक दूसरे से अलग हैं, और हमें यह समझना जरूरी है कि इनमें से कौन समाज के लिए बेहतर है।
कट्टर हिन्दू
कट्टर हिन्दू वह लोग होते हैं जो अपने धर्म को बहुत सख्ती से मानते हैं और अपनी धार्मिक सोच को दूसरों पर थोपने की कोशिश करते हैं। वे अपने धर्म में अडिग रहते हैं और दूसरों के विचारों या विश्वासों को स्वीकार नहीं करते। कट्टरता का मतलब है किसी विचारधारा में बिल्कुल अडिग रहना और उसे दूसरों पर भी लागू करना।
कट्टर हिन्दू विचारधारा के नुकसान:
- सहिष्णुता की कमी: कट्टर हिन्दू अपने विचारों को दूसरों पर थोपते हैं और दूसरे धर्मों का सम्मान नहीं करते। इससे समाज में असहिष्णुता बढ़ती है।
- विवाद और हिंसा: कभी-कभी कट्टरता के कारण समाज में हिंसा और संघर्ष पैदा हो जाते हैं।
- समाज में बंटवारा: जब एक समुदाय दूसरे को नीचा दिखाता है, तो समाज में दूरी और भेदभाव बढ़ता है।
सच्चा हिन्दू:
सच्चा हिन्दू वह लोग होते हैं जो अपने धर्म के मूल सिद्धांतों को मानते हैं, लेकिन वे दूसरों के धर्म और विचारों का सम्मान करते हैं। वे मानते हैं कि धर्म का असली उद्देश्य आत्मज्ञान और दूसरों की मदद करना है, न कि किसी को नीचे दिखाना या अपनी सोच को थोपना।
सच्चे हिन्दू के फायदे:
- सहिष्णुता और प्रेम: सच्चे हिन्दू हर धर्म और जाति का सम्मान करते हैं। वे मानते हैं कि सभी के विचार और विश्वास महत्वपूर्ण हैं।
- समाज में एकता: सच्चा हिन्दू समाज में प्रेम, भाईचारे और शांति को बढ़ावा देता है। वे समाज को जोड़ने का काम करते हैं।
- आध्यात्मिकता: वे आत्मज्ञान की खोज करते हैं और समाज के भले के लिए काम करते हैं।
कट्टर हिन्दू और सच्चा हिन्दू में अंतर:
- सहिष्णुता: कट्टर हिन्दू दूसरों को स्वीकार नहीं करते, जबकि सच्चा हिन्दू दूसरों के विचारों का सम्मान करता है।
- धर्म का उद्देश्य: कट्टर हिन्दू धर्म को पहचान और शक्ति का जरिया मानते हैं, जबकि सच्चा हिन्दू धर्म को आत्मज्ञान और समाज की भलाई के लिए मानते हैं।
- समाज में योगदान: कट्टर हिन्दू समाज में बंटवारा बढ़ाते हैं, जबकि सच्चा हिन्दू समाज में एकता और शांति फैलाते हैं।
कौन समाज के लिए बेहतर है: कट्टर हिन्दू या सच्चा हिन्दू?
सच्चा हिन्दू समाज के लिए बहुत बेहतर है। क्योंकि वह हर किसी के विचारों का सम्मान करता है और समाज में शांति और एकता बढ़ाता है। कट्टर हिन्दू अपनी सोच को दूसरों पर थोपते हैं, जो समाज में असहमति और संघर्ष पैदा करता है।
सच्चा हिन्दू समाज में प्रेम और भाईचारे को बढ़ावा देता है और समाज के भले के लिए काम करता है। इसलिए, सच्चा हिन्दू ही समाज के लिए सबसे अच्छा होता है।
कट्टर हिन्दू स्वार्थ और कट्टरता: समाज की भलाई के लिए खतरा
कट्टरता और स्वार्थ का मिलाजुला प्रभाव समाज के लिए बहुत हानिकारक हो सकता है। जब कोई व्यक्ति अपनी कट्टरता का इस्तेमाल केवल अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए करता है, तो वह न केवल अपने विश्वासों को दूसरों पर थोपता है, बल्कि समाज में असहिष्णुता और असमानता को भी बढ़ावा देता है। यह स्थिति तब और भी गंभीर हो जाती है, जब कट्टरता किसी राजनीतिक या सामाजिक एजेंडे से जुड़ी होती है, जो केवल कुछ विशेष वर्गों या समूहों के लाभ को बढ़ाने के उद्देश्य से काम करता है। ऐसे में समाज का संतुलन बिगड़ जाता है, और इसके परिणामस्वरूप सामाजिक तानाबाना कमजोर हो सकता है।
1. कट्टरता का स्वार्थपूर्ण उपयोग
जब कट्टरता का प्रयोग किसी व्यक्ति या समूह के स्वार्थ को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है, तो इसका सबसे बड़ा असर समाज के विविध समुदायों पर पड़ता है। कट्टरता के द्वारा व्यक्तियों को यह समझाने की कोशिश की जाती है कि केवल एक विशेष विचारधारा, धर्म, या सिद्धांत ही सही है, जबकि दूसरों के विचारों या विश्वासों को नजरअंदाज किया जाता है। इस स्थिति में, जो लोग कट्टर विचारधारा के खिलाफ होते हैं, उन्हें दबा दिया जाता है, और उनकी आवाज़ को अनसुना किया जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि समाज में एकतरफा सोच को ही महत्व मिलने लगता है और समावेशिता की भावना समाप्त हो जाती है।
2. समाज में असमानता का विकास
कट्टरता का स्वार्थपूर्ण उपयोग समाज में असमानता और भेदभाव को बढ़ावा देता है। जब किसी समुदाय, जाति, धर्म या विचारधारा के लोगों को यह महसूस कराया जाता है कि वे ही सबसे श्रेष्ठ हैं और बाक़ी सभी से बेहतर हैं, तो यह सामाजिक ध्रुवीकरण का कारण बनता है। कट्टरता द्वारा परिभाषित किए गए मानदंडों के आधार पर, कुछ वर्गों को अपमानित किया जाता है और उनकी सामाजिक स्थिति कमजोर होती जाती है। इस प्रकार, जब कट्टरता स्वार्थ से प्रेरित होती है, तो यह न केवल व्यक्तिगत रूप से नुकसानदेह होती है, बल्कि समाज के अन्य वर्गों के लिए भी असमानता और भेदभाव का कारण बनती है।
3. राजनीतिक या सामाजिक एजेंडे का प्रभाव
जब कट्टरता किसी राजनीतिक या सामाजिक एजेंडे से जुड़ी होती है, तो यह और भी खतरनाक हो जाती है। ऐसी स्थिति में, कट्टरता केवल धार्मिक या विचारधारात्मक दृष्टिकोण से ही नहीं, बल्कि एक वर्ग विशेष के राजनीतिक हितों से भी जुड़ी होती है। कुछ राजनेता या सामाजिक नेता अपनी कट्टर विचारधाराओं का इस्तेमाल सत्ता हासिल करने या अपनी राजनीति को मज़बूती देने के लिए करते हैं। वे अपनी कट्टर सोच को समाज के विभिन्न हिस्सों पर थोपने की कोशिश करते हैं, ताकि उनके एजेंडे को लागू किया जा सके। इस दौरान, वे न केवल समाज के अन्य वर्गों को अपने से अलग कर देते हैं, बल्कि समाज में असहमति और तनाव को भी बढ़ावा देते हैं।
राजनीतिक कट्टरता का सबसे बड़ा खतरा यह है कि यह समाज को एकजुट करने की बजाय, उसे तोड़ने का काम करती है। उदाहरण के लिए, कुछ राजनीतिक पार्टियां अपनी कट्टर धार्मिक या राष्ट्रीय विचारधारा का प्रचार करती हैं, ताकि एक विशिष्ट वोट बैंक को आकर्षित किया जा सके। ऐसे में, अन्य धर्मों, जातियों और समुदायों के लोग हाशिए पर डाल दिए जाते हैं और उनकी सामाजिक स्थिति कमज़ोर हो जाती है। इस प्रकार, राजनीतिक स्वार्थ के चलते समाज में असुरक्षा और असमानता की भावना बढ़ती है।
4. सामाजिक तानाबाना कमजोर होना
स्वार्थ और कट्टरता के मिश्रण से समाज में नफरत, असहिष्णुता और भेदभाव फैलता है। जब एक समाज में लोग एक-दूसरे से कटा हुआ महसूस करते हैं और उन्हें लगता है कि उनके विचारों या विश्वासों को नहीं माना जा रहा है, तो यह समाज की एकजुटता को कमजोर करता है। एकजुट समाज को बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि सभी विचारों, धर्मों और समुदायों का सम्मान किया जाए। जब किसी समुदाय को यह महसूस होता है कि उसकी आवाज़ दबाई जा रही है, तो यह समाज के लिए खतरनाक हो सकता है। कट्टरता से पैदा होने वाला यह असंतुलन सामाजिक तानाबाना को तोड़ सकता है और समाज में विद्वेष और हिंसा को बढ़ावा दे सकता है।
जब कट्टरता स्वार्थ से प्रेरित हो, तो यह समाज के लिए गंभीर रूप से हानिकारक साबित हो सकती है। ऐसे में कट्टरता न केवल समाज में असमानता और भेदभाव को बढ़ावा देती है, बल्कि यह समाज को तोड़ने का भी कारण बनती है। इसका परिणाम यह होता है कि समाज में धार्मिक, जातीय और विचारधारात्मक भेदभाव बढ़ता है, और लोग एक-दूसरे से दूर होते जाते हैं।
इसलिए, यह आवश्यक है कि हम कट्टरता को केवल अपने विश्वासों और विचारों के प्रति निष्ठा रखने के रूप में देखें, लेकिन इसका इस्तेमाल दूसरों की स्वतंत्रता और विचारों को दबाने के लिए न किया जाए। समाज की भलाई के लिए जरूरी है कि हम समावेशिता, सहिष्णुता और विचारों का आदान-प्रदान बढ़ाएं, न कि स्वार्थी कट्टरता को बढ़ावा दें।
कट्टरता का राजनीतिकरण एवं समाज पर असर:
जब कट्टरता किसी राजनीतिक या सामाजिक उद्देश्य से जुड़ जाती है, तो यह और भी खतरनाक बन जाती है। इस स्थिति में, कट्टरता सिर्फ किसी विचारधारा से जुड़ी नहीं रहती, बल्कि इसका संबंध किसी खास समूह के राजनीतिक या व्यक्तिगत फायदे से होता है। कुछ नेता अपनी कट्टर सोच का इस्तेमाल सत्ता में आने या अपनी राजनीति को मजबूत करने के लिए करते हैं। वे अपनी विचारधारा को समाज के हर हिस्से पर थोपने की कोशिश करते हैं ताकि उनके राजनीतिक उद्देश्य पूरे हो सकें। इस दौरान, वे अपने विरोधियों या उन लोगों को जो उनकी सोच से सहमत नहीं होते, हाशिए पर डाल देते हैं। इससे समाज में असहमति और तनाव बढ़ता है।
राजनीतिक कट्टरता का सबसे बड़ा खतरा यह है कि यह समाज को जोड़ने के बजाय तोड़ देती है। जब कोई राजनीतिक दल अपनी कट्टर धार्मिक या राष्ट्रीय विचारधारा को बढ़ावा देता है, तो वह सिर्फ एक खास वर्ग या समुदाय का समर्थन पाने की कोशिश करता है। इस कारण दूसरे धर्मों, जातियों और समुदायों को हाशिए पर डाल दिया जाता है और उनकी स्थिति कमजोर हो जाती है।
इससे समाज में असुरक्षा और असमानता की भावना बढ़ती है। अगर कट्टरता को बढ़ावा दिया जाता है, तो समाज में विभिन्न वर्गों के बीच दूरियां बढ़ जाती हैं, और लोग अपने-अपने विश्वासों के साथ अकेले महसूस करने लगते हैं। इस स्थिति में समाज का विकास रुक जाता है और हिंसा और तनाव फैलने लगते हैं।
कट्टर हिन्दू विचारधारा और राजनीतिक कट्टरता से समाज को होने वाले नुकसान:
- धार्मिक असहमति: जब नेता अपनी कट्टर धार्मिक विचारधारा को बढ़ावा देते हैं, तो समाज में धार्मिक असहमति पैदा होती है। लोग अपने धर्म को सही मानने लगते हैं और दूसरों के धर्म को नकारते हैं।
- जातीय और सांस्कृतिक भेदभाव: राजनीतिक दलों के द्वारा धर्म या जाति के आधार पर समाज को बांटने की कोशिश की जाती है। इससे भेदभाव बढ़ता है और लोग एक-दूसरे से दूर हो जाते हैं।
- सामाजिक तनाव: जब कट्टरता राजनीति से जुड़ जाती है, तो यह समाज में तनाव और हिंसा को बढ़ावा देती है। लोग एक-दूसरे से दुश्मनी करने लगते हैं, जिससे समाज में असुरक्षा का माहौल बनता है।
- संविधानिक अधिकारों का उल्लंघन: कभी-कभी राजनीतिक कट्टरता के कारण लोगों के संविधानिक अधिकारों का उल्लंघन होता है। नेता अपने स्वार्थ के लिए कुछ वर्गों के अधिकारों को नकार सकते हैं, जो उनके राजनीतिक या धार्मिक एजेंडे से मेल नहीं खाते।
राजनीतिक और सामाजिक एजेंडों के तहत जब कट्टरता का प्रचार किया जाता है, तो इससे समाज में असहमति, असुरक्षा, और असमानता बढ़ती है। यह समाज की एकता को नुकसान पहुंचाती है और विभिन्न समुदायों के बीच तनाव बढ़ाती है। इसलिए यह जरूरी है कि हम समाज में समझदारी, सहिष्णुता और एकता को बढ़ावा दें, न कि किसी एक समूह के फायदे के लिए कट्टरता को बढ़ावा दें।
सच्चे हिन्दू जिन्होंने सर्व धर्म संभाव का सन्देश दिया:
1. स्वामी विवेकानंद
स्वामी विवेकानंद ने अनेक अवसरों पर सांप्रदायिक एकता और धार्मिक सहिष्णुता पर बल दिया। उनके कुछ प्रसिद्ध कथन, जो मुसलमानों और हिंदुओं की एकता और समरसता के संबंध में हैं, इस प्रकार हैं:
- धर्मों की एकता पर: जब भारत के प्रत्येक नागरिक को यह विश्वास हो जाएगा कि सभी धर्मों में एक ही सत्य है, तभी हमारी राष्ट्रीय एकता और अखंडता दृढ़ और अभेद्य बन जाएगी।”
- सामाजिक और धार्मिक सहयोग पर: “हिंदू और मुसलमान एक ही माँ की संतानें हैं, एक ही धारा में बहते हुए अलग-अलग मोड़ पर बह रहे हैं। अगर वे एक साथ मिल जाएँ, तो भारत एक महान राष्ट्र बन सकता है।”
- धार्मिक सद्भावना पर: “मुझे पूरा यकीन है कि भारत में हिंदू और मुसलमान मिलकर एक ऐसी शक्ति का निर्माण करेंगे, जो समाज को एक नई दिशा देगी और हमें एकता और शक्ति में बंधे रहने की प्रेरणा देगी।”
- विविधता में एकता पर: “धर्म का असली उद्देश्य यह नहीं है कि हम किसी को दूसरों से अलग करें, बल्कि यह है कि हम सब मिलकर प्रेम, सद्भावना और शांति से एकजुट होकर रहें।”
स्वामी विवेकानंद के ये विचार उनके विभिन्न लेखों और भाषणों में मिलते हैं, विशेषकर उनके 1893 के शिकागो धर्म संसद में दिए गए भाषणों में, जहाँ उन्होंने विभिन्न धर्मों के बीच सहिष्णुता और समानता का संदेश दिया।
ये उद्धरण उनकी भारत और धर्म के प्रति समर्पण को दर्शाते हैं और उनके द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन के ग्रंथों में इनका विस्तृत विवरण मिलता है।
2. रवींद्रनाथ टैगोर
रवींद्रनाथ टैगोर ने अपने लेखों, कविताओं और विचारों में मानवता, धर्मनिरपेक्षता, और सांप्रदायिक सौहार्द पर जोर दिया है। उनके कुछ प्रसिद्ध उद्धरण जो मुसलमानों और हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रति उनके दृष्टिकोण को दर्शाते हैं, इस प्रकार हैं:
- सांप्रदायिकता पर “धर्म मनुष्य के अंतर में रहने के लिए है, न कि दीवारें खड़ी करने के लिए।” — रवींद्रनाथ टैगोर
- एकता और सहिष्णुता पर “एकता का वह सपना देखो जिसमें सभी धर्मों के लोग प्रेम से जुड़ते हैं और यह भूमि स्वर्ग बन जाती है।” — रवींद्रनाथ टैगोर
- मानवता पर “मैं उस भारत को देखने का सपना देखता हूँ जहाँ लोग केवल धर्म से नहीं, बल्कि प्रेम से एक-दूसरे के करीब हों।” — रवींद्रनाथ टैगोर
- धर्म और मानवता पर उनके दृष्टिकोण के संदर्भ में “जहाँ मन भय से परे है और आत्मा सिर ऊंचा रखती है, जहाँ ज्ञान स्वतंत्र है… उसी भारत की कल्पना करो।” — गीतांजलि, रवींद्रनाथ टैगोर
- धर्म के सही मायने “सच्चा धर्म वह है जो हमें मनुष्य बनाता है, न कि वह जो हमें बांटता है।” — रवींद्रनाथ टैगोर
इन उद्धरणों में टैगोर की मानवीय दृष्टि और धर्मनिरपेक्षता का संदेश निहित है। उन्होंने बार-बार इस बात पर जोर दिया कि धार्मिक एकता और सहिष्णुता से ही समाज में स्थायी शांति और प्रगति संभव है।
3.विनोबा भावे
विनोबा भावे का मुसलमानों के प्रति दृष्टिकोण बहुत ही सहिष्णु और सौहार्दपूर्ण था। वे महात्मा गांधी के सिद्धांतों के अनुयायी थे, और उनका मानना था कि भारतीय समाज में हिंदू और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक सौहार्द और भाईचारे को बढ़ावा देना आवश्यक है। उनका यह विश्वास था कि भारत की आत्मा दोनों धर्मों में समान रूप से निहित है और दोनों समुदायों को मिलकर देश की प्रगति के लिए काम करना चाहिए।
उनके कुछ प्रमुख विचार, जो मुसलमानों और भारतीय समाज के अन्य समुदायों के बारे में थे, निम्नलिखित हैं:
- धार्मिक समानता पर “हम सभी धर्मों के प्रति समान श्रद्धा रख सकते हैं, क्योंकि हर धर्म अपने समय और स्थान में सत्य को व्यक्त करता है।” — विनोबा भावे
- हिंदू-मुस्लिम एकता पर “हिंदू और मुसलमान के बीच कोई भेद नहीं होना चाहिए, क्योंकि दोनों के लिए मानवता सर्वोपरि है। यदि हम सच्चे भाईचारे और मित्रता से एकजुट होकर रहें, तो कोई भी ताकत हमें अलग नहीं कर सकती।”— विनोबा भावे
- धार्मिक समरसता पर “हर धर्म का अपना महत्व है और हम सभी धर्मों का सम्मान करते हैं। यदि हम एक-दूसरे के धर्मों का आदर करें, तो समाज में कोई दुराव नहीं रहेगा।” — विनोबा भावे
- मुसलमानों के प्रति दृष्टिकोण “हमें मुसलमानों को अलग धर्म के रूप में नहीं समझना चाहिए, क्योंकि हम सभी एक ही मानवता के हिस्से हैं। हर धर्म का उद्देश्य आत्मा की शुद्धि और मानवता की सेवा करना है।”— विनोबा भावे
- धार्मिक एकता पर “हमारे देश की ताकत उसकी विविधता में है। हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई सभी को मिलकर इस देश को संजीवनी शक्ति देनी है।” — विनोबा भावे
- हिंदू-मुस्लिम भाईचारे पर “हिंदू और मुसलमानों के बीच कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। हम सब भारतीय हैं, और हमारी एकता में ही हमारी शक्ति है।” — विनोबा भावे
- धर्म की सार्वभौमिकता पर “धर्म वह नहीं है जो हमें बांटता है, बल्कि वह हमें जोड़ता है। सभी धर्मों का संदेश प्रेम और सेवा का है।” — विनोबा भावे
विनोबा भावे का यह विश्वास था कि अगर हम सांप्रदायिकता और धार्मिक भेदभाव से ऊपर उठकर एक-दूसरे के प्रति प्रेम और सम्मान का भाव रखें, तो हम न केवल समाज में शांति स्थापित कर सकते हैं, बल्कि हम अपने देश को भी एक नई दिशा दे सकते हैं। वे मानते थे कि हिंदू और मुसलमान दोनों को अपने-अपने धर्मों का पालन करते हुए एक साथ रहना चाहिए और देश की प्रगति में योगदान देना चाहिए।
4. रामकृष्ण परमहंस
रामकृष्ण परमहंस का मुसलमानों के प्रति दृष्टिकोण अत्यंत उदार और सहिष्णु था। वे जीवन के विभिन्न पहलुओं, धर्मों और मान्यताओं को व्यापक दृष्टिकोण से देखते थे। उनका विश्वास था कि हर धर्म की अपनी महत्ता है और सभी धर्मों का उद्देश्य एक ही है—ईश्वर के साथ मिलन। रामकृष्ण परमहंस ने अपनी आध्यात्मिक यात्रा में हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, जैन, और अन्य धर्मों के सिद्धांतों को समान रूप से अपनाया और सभी धार्मिक विश्वासों को सम्मान दिया।
रामकृष्ण परमहंस का कहना था कि विभिन्न धर्मों के अनुयायी अलग-अलग मार्गों पर चलते हुए भी एक ही परमात्मा की ओर बढ़ रहे हैं। उनके अनुसार, मुसलमानों का विश्वास भी ईश्वर के प्रति श्रद्धा और भक्ति का रूप था। वे मानते थे कि सत्य एक ही है, और यह विभिन्न धर्मों के रूप में अलग-अलग दिखाई देता है।
रामकृष्ण परमहंस के कुछ प्रमुख विचार और उद्धरण, जो मुसलमानों और धार्मिक एकता के बारे में थे, निम्नलिखित हैं:
- धर्मों की समानता पर “हिंदू, मुसलमान, ईसाई—तीनों का अंतिम लक्ष्य एक जैसा है। सभी धर्मों का मूल संदेश समान है।”— रामकृष्ण परमहंस
- धार्मिक सौहार्द पर “हमें सभी धर्मों का सम्मान करना चाहिए क्योंकि प्रत्येक धर्म ईश्वर तक पहुँचने का एक रास्ता है।” — रामकृष्ण परमहंस
- मुसलमानों के प्रति सम्मान “मुसलमानों का विश्वास और पूजा भी उतनी ही सच्ची है, जितनी हमारी पूजा है। सभी मार्ग एक ही परमात्मा तक पहुँचते हैं।” — रामकृष्ण परमहंस
- धर्म और सांप्रदायिक सौहार्द पर “हिंदू और मुसलमान दोनों ही पूजा के माध्यम से ईश्वर के पास पहुँचते हैं। ईश्वर के नाम में भेद नहीं है। सब धर्मों में सत्य है, जो अंत में एक ही है।” — रामकृष्ण परमहंस
- धार्मिक भेदभाव के खिलाफ “सभी धर्मों के अनुयायी एक ही परमात्मा के भक्त हैं। हमें किसी भी धर्म का विरोध नहीं करना चाहिए, क्योंकि हर धर्म के भीतर सत्य है।” — रामकृष्ण परमहंस
रामकृष्ण परमहंस ने यह सिद्धांत भी दिया कि विभिन्न धर्मों के अनुयायी अलग-अलग रूपों में ईश्वर की पूजा करते हैं, लेकिन अंत में सभी को एक ही सत्य की प्राप्ति होती है। उनकी धार्मिक दृष्टि ने समाज में एकता और भाईचारे की भावना को बढ़ावा दिया। उनके अनुसार, हिंदू-मुसलमान, या किसी भी अन्य धर्म के अनुयायी को एक-दूसरे के विश्वासों का सम्मान करना चाहिए और सभी को एकात्मता के साथ एक ही उद्देश्य के लिए कार्य करना चाहिए।
5. महर्षि अरविंद :
महर्षि अरविंद का मुसलमानों के प्रति दृष्टिकोण बहुत ही व्यापक और सशक्त था। वे भारतीय संस्कृति और सभ्यता के एक बड़े पक्षधर थे, और उनका मानना था कि भारतीय समाज में सभी धर्मों और समुदायों के बीच सामंजस्य होना चाहिए। उनका दृष्टिकोण भारतीय समाज को एकता, सहिष्णुता और विविधता के भीतर शक्ति देखता था।
महर्षि अरविंद ने भारतीय राष्ट्रीयता के विचार को भी महत्वपूर्ण माना और उनका मानना था कि भारत की वास्तविक शक्ति उसकी सांस्कृतिक विविधता में है। उनके अनुसार, हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई और अन्य धर्मों के अनुयायी सभी भारतीय समाज के हिस्से हैं और सभी को मिलकर एक मजबूत और स्वतंत्र भारत की ओर बढ़ना चाहिए।
महर्षि अरविंद के कुछ प्रमुख विचार, जो मुसलमानों और भारतीय समाज के अन्य समुदायों के प्रति थे, निम्नलिखित हैं:
- धर्म और राष्ट्रीयता पर “भारत के लिए धार्मिक एकता, सांप्रदायिक सौहार्द और राष्ट्र के प्रति समर्पण आवश्यक हैं। हम सबकी प्रेरणा एक ही है—भारत की महानता और उसकी प्राचीन संस्कृति का पुनर्निर्माण।” — महर्षि अरविंद
- हिंदू-मुसलमान एकता पर “भारत में हिंदू और मुसलमानों के बीच कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। हम सब एक ही भूमि के निवासी हैं, और हमारा एकमात्र उद्देश्य है—भारत को एक महान राष्ट्र बनाना।” — महर्षि अरविंद
- सांप्रदायिकता पर “हमें सभी धर्मों का आदर करना चाहिए और भारत के विभिन्न समुदायों को उनके विश्वासों के बावजूद एक दूसरे के साथ मिलकर काम करना चाहिए।” — महर्षि अरविंद
- धार्मिक समानता और सहिष्णुता पर “धर्म का उद्देश्य मानवता की उन्नति है, और हम सभी धर्मों के मार्गों से उस उद्देश्य को प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि हम किस धर्म का पालन करते हैं, बल्कि यह है कि हम सत्य, धर्म और जीवन के उच्चतम आदर्शों को अपनाते हैं।” — महर्षि अरविंद
- भारत की सामूहिक संस्कृति पर “भारत की शक्ति उसकी एकता में है, जो विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों और विश्वासों के होते हुए भी एक साझा उद्देश्य की ओर बढ़ती है। यही हमारी असली महानता है।” — महर्षि अरविंद
महर्षि अरविंद का यह मानना था कि भारत की संस्कृति और समाज में हिन्दू-मुसलमानों के बीच भेदभाव और सांप्रदायिक हिंसा का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। वे इस बात पर जोर देते थे कि भारतीय राष्ट्रीयता केवल धार्मिक आधार पर नहीं, बल्कि एक साझा सांस्कृतिक पहचान और आध्यात्मिक दृष्टिकोण पर आधारित होनी चाहिए। उनका दृष्टिकोण यह था कि सभी धर्मों के अनुयायी एक दूसरे के प्रति सहिष्णुता और सम्मान का भाव रखें, ताकि एक समृद्ध और शक्तिशाली राष्ट्र का निर्माण हो सके।
6. छत्रपति शिवाजी महाराज
छत्रपति शिवाजी महाराज का दृष्टिकोण मुसलमानों के प्रति बेहद उदार और व्यावहारिक था। वे एक धर्मनिरपेक्ष शासक थे, जिन्होंने अपने शासनकाल में विभिन्न धर्मों का सम्मान किया। उनका मुख्य उद्देश्य मराठा साम्राज्य की रक्षा और उसकी शक्ति को बढ़ाना था, और इसके लिए उन्होंने सभी समुदायों, चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान, को समान अवसर और सम्मान दिया।
शिवाजी महाराज ने अपने शासन में ऐसे कई उदाहरण प्रस्तुत किए हैं, जिनसे उनकी धार्मिक सहिष्णुता और मुसलमानों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण का पता चलता है। वे यह मानते थे कि एक सशक्त और समृद्ध राज्य के निर्माण में सभी धर्मों और समुदायों का योगदान महत्वपूर्ण है। यहां कुछ मुख्य बिंदुओं और उद्धरणों के माध्यम से शिवाजी महाराज के मुसलमानों के प्रति दृष्टिकोण को समझा जा सकता है:
1. धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण
शिवाजी महाराज का विश्वास था कि सभी धर्मों का सम्मान किया जाना चाहिए और राज्य में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए। उनके शासन में मुसलमानों को भी उच्च पदों पर नियुक्त किया गया था, और वे राज्य की सेना, प्रशासन, और न्यायपालिका में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। उनके एक प्रमुख सेनापति अली बशीर एक मुसलमान थे, जिन्हें शिवाजी महाराज ने अपनी सेना में उच्च पद पर नियुक्त किया था।
2. मुसलमानों के साथ सहयोग
शिवाजी महाराज ने मुसलमानों से न केवल दोस्ताना संबंध बनाए रखे, बल्कि उन्हें अपने प्रशासन में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ भी दीं। उदाहरण के लिए, उनके प्रमुख अधिकारियों में से कुछ मुसलमान थे, जैसे शमशेर बहादुर और बाहुली मियाँ, जिन्होंने उनके साथ मिलकर कई युद्धों में भाग लिया।
3. मुसलमानों की सुरक्षा और सम्मान
शिवाजी महाराज का यह मानना था कि किसी भी धर्म या समुदाय को अपने धर्म के आधार पर तंग नहीं किया जाना चाहिए। जब शिवाजी महाराज ने किलों और क्षेत्रों पर आक्रमण किए, तो उन्होंने वहां रहने वाले मुसलमानों की जान-माल की सुरक्षा सुनिश्चित की। वे यह सुनिश्चित करते थे कि किसी भी समुदाय को उनके धर्म के कारण नुकसान न पहुंचे।
4. शिवाजी महाराज की उदारता का उदाहरण
एक प्रसिद्ध घटना है जब शिवाजी महाराज ने आलमगीर (औरंगजेब) के शासनकाल में मुस्लिम कवि काजी महमूद को सम्मानित किया था। उन्होंने काजी महमूद को कवि के रूप में संरक्षण दिया और उन्हें अपने दरबार में सम्मानित किया। इससे यह स्पष्ट होता है कि शिवाजी महाराज धार्मिक रूप से सहिष्णु थे और वे किसी भी धर्म के अच्छे कार्यों का सम्मान करते थे।
5. शिवाजी महाराज का यह दृष्टिकोण
“मुझे इस बात की परवाह नहीं है कि आप किस धर्म के हैं, यदि आप मेरे राज्य की सेवा में ईमानदारी से काम करते हैं, तो आपको समान सम्मान मिलेगा। मेरे लिए आपके धर्म का कोई फर्क नहीं पड़ता, मुझे सिर्फ आपकी निष्ठा और कार्यकुशलता की चिंता है।” — छत्रपति शिवाजी महाराज
6. धार्मिक सहिष्णुता का सिद्धांत
शिवाजी महाराज ने यह सिद्ध किया कि धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण से एक मजबूत और सफल राज्य का निर्माण किया जा सकता है। वे अपने शाही प्रशासन में मुसलमानों और हिंदू दोनों के साथ समान व्यवहार करते थे। वे मानते थे कि एकता और सहिष्णुता से ही राष्ट्र की शक्ति बढ़ सकती है।
7. मुसलमानों के खिलाफ भेदभाव न करना
शिवाजी महाराज ने कभी भी मुसलमानों के खिलाफ कोई भेदभाव नहीं किया। उनके दरबार में मुसलमान अधिकारियों और सैनिकों की संख्या भी काफी थी। वे यह मानते थे कि अगर कोई व्यक्ति योग्य है, तो उसे अवसर मिलना चाहिए, चाहे वह किसी भी धर्म का हो।
8. मुसलमानों के प्रति कृतज्ञता
शिवाजी महाराज का कहना था कि उनके राज्य के निर्माण में मुसलमानों ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके विचारों और कार्यों से यह स्पष्ट होता है कि वे धर्म के बजाय व्यक्ति की क्षमता और योगदान को महत्व देते थे।
शिवाजी महाराज ने अपने शासन में सभी धर्मों का सम्मान किया और मुसलमानों को समान अधिकार दिया। वे एक धार्मिक रूप से सहिष्णु शासक थे, जिन्होंने अपने साम्राज्य में धर्मनिरपेक्षता और सभी समुदायों के लिए समान सम्मान का आदान-प्रदान किया। उनके दृष्टिकोण से यह सिद्ध होता है कि उनकी नज़र में सभी धर्मों का सम्मान होना चाहिए और हर किसी को समान अवसर मिलना चाहिए।
7.सर छोटू राम
सर छोटू राम का दृष्टिकोण भारतीय मुसलमानों के प्रति एक सम्मानजनक और व्यावहारिक था। वे भारतीय समाज के लिए एक समान और समरसता की दिशा में काम करने वाले नेता थे, जो विभिन्न समुदायों के बीच भाईचारे और समझ को बढ़ावा देते थे। उनका मानना था कि समाज के हर वर्ग को समान अधिकार और अवसर मिलना चाहिए, चाहे वे हिंदू हों, मुसलमान हों, सिख हों, या किसी अन्य धर्म से हों।
1. सांप्रदायिक एकता और भाईचारे की आवश्यकता
सर छोटू राम का यह मानना था कि हिंदू-मुसलमानों के बीच एकता जरूरी है, ताकि वे मिलकर देश की तरक्की में योगदान दे सकें। वे समाज के विभिन्न हिस्सों के बीच सामंजस्य और भाईचारे को बढ़ावा देने के पक्षधर थे।
उनकी इस भावना का स्पष्ट उदाहरण था कि जब वे किसान और ग्रामीण समुदायों के लिए काम कर रहे थे, तो वे सभी धर्मों और जातियों के किसानों के हितों की रक्षा करते थे। उनके लिए जाति और धर्म से ऊपर उठकर सामाजिक और आर्थिक समानता का विचार महत्वपूर्ण था।
2. मुसलमानों के अधिकारों का सम्मान
सर छोटू राम का मानना था कि मुसलमानों को अपने अधिकारों और स्वतंत्रता का समान रूप से सम्मान मिलना चाहिए। वे यह मानते थे कि किसी भी धर्म के अनुयायी को केवल उनके धर्म के कारण भेदभाव का सामना नहीं करना चाहिए। वे एक ऐसे समाज की कल्पना करते थे, जहाँ हर धर्म का सम्मान हो और लोग अपने अधिकारों का समान रूप से उपयोग कर सकें।
3. सामाजिक और राजनीतिक अधिकार
सर छोटू राम ने भारतीय राजनीति में मुस्लिम समुदाय की भूमिका को महत्वपूर्ण माना। उन्होंने हमेशा यह कोशिश की कि मुसलमानों को अपने सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों में कोई कमी न हो। उनके लिए एक मजबूत और समृद्ध भारत के निर्माण के लिए यह आवश्यक था कि सभी धर्मों के लोग एकजुट होकर काम करें।
4. सांप्रदायिक सौहार्द्र पर उनके विचार
उनके विचारों के अनुसार, मुसलमानों और हिंदुओं को एक-दूसरे के अधिकारों और विश्वासों का सम्मान करना चाहिए। वे मानते थे कि सिर्फ हिंदू-मुसलमान की एकता से ही भारत की तरक्की और समृद्धि सुनिश्चित की जा सकती है। उनका उद्देश्य था कि भारतीय समाज में सभी समुदायों के बीच विश्वास और समझ बढ़े।
5. देशभक्ति की भावना
सर छोटू राम ने हमेशा भारतीय मुसलमानों से यह अपेक्षाएँ कीं कि वे देशभक्ति की भावना से प्रेरित होकर अपने कर्तव्यों को निभाएं। वे मानते थे कि देश के लिए सभी को एकजुट होकर काम करना चाहिए, और इस दृष्टिकोण से उन्होंने मुसलमानों को भी भारत की समृद्धि और शांति के लिए योगदान देने की प्रेरणा दी।
सर छोटू राम का दृष्टिकोण भारतीय मुसलमानों के प्रति भाईचारे, सम्मान और समान अधिकार का था। वे मानते थे कि सभी समुदायों के बीच एकता और समानता ही एक समृद्ध और मजबूत राष्ट्र की नींव रख सकती है। उनके लिए यह जरूरी था कि हर धर्म और जाति के लोग एक-दूसरे का सम्मान करें और मिलकर समाज की भलाई के लिए काम करें।
निष्कर्ष:
“कट्टर हिन्दू : स्वार्थ एवं सच्चाई के आईने में” का विश्लेषण करने से यह स्पष्ट होता है कि कट्टरता के नाम पर अपने स्वार्थ को साधना समाज के लिए हानिकारक हो सकता है। जब कट्टरता का उपयोग व्यक्तिगत लाभ, शक्ति और प्रभाव हासिल करने के लिए किया जाता है, तो यह समाज में असमानता, नफरत और असहिष्णुता का कारण बनता है।
सच्चे हिन्दू के रूप में, धर्म का उद्देश्य केवल आत्मा की उन्नति और मानवता की सेवा करना होना चाहिए। सच्चा हिन्दू वह है जो अपने धर्म के सिद्धांतों को समझता है और उन्हें जीवन में अमल करता है, न कि जो केवल दिखावा करता है या अपनी कट्टरता को दूसरों पर थोपता है।
अंततः, स्वार्थ और सच्चाई के बीच संतुलन बनाना आवश्यक है। अगर हम अपने धर्म की सच्चाई को समझकर और दूसरों के विश्वासों का सम्मान करते हुए समाज में भाईचारे और शांति का वातावरण बनाए रखें, तो हम एक सशक्त और समृद्ध समाज की ओर बढ़ सकते हैं। केवल तभी हम अपनी एकता और सामाजिक भलाई को सुनिश्चित कर सकते हैं।