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तआर्रुफ़ 

ग़ज़ल “क़ुर्बानी-ए-हक़” क़ुर्बानी के असल मतलब को बयाँ करती है, जो सिर्फ़ जान देने तक सीमित नहीं। ये दिल के नफ़्स और शैताँ से लड़ने की बात करती है। शायर बताता है कि सिर्फ़ रिवायत और ज़ाहिरी इबादत से कुछ हासिल नहीं होता, बल्कि दिल की सच्चाई, ख़ुलूस और तअब्बर (ईमानदारी) ज़रूरी है। ख़ासतौर पर ईद जैसे मौक़े पर दिल को नयी रोशनी और बद्लाव देना अहम है। कबीर की ये ग़ज़ल हमें बताती है कि असली क़ुर्बानी वो है जो ख़ुदा की राह में अपने नफ़्स, तक़ब्बुर और रियाकारी को मिटाकर की जाए। ये ग़ज़ल इंसानियत, इमान और सच्ची इबादत की तह तक पहुँचाती है।

ग़ज़ल: “क़ुर्बानी-ए-हक़”

क़ुर्बानी है ये सिर्फ़ जान देने की बात नहीं,
नफ़्स और शैताँ से जंग की बात भी है कहीं।

तक़ब्बुर जो दिल में पलता है चुपचाप कहीं,
उसे मिटाना भी अस्ल ईमाँ की शान है कहीं।-1

ज़िहालत जो सोचों में पैबस्त है हर सिम्त,
उसे मिटा दे वही ईद की नेअमत सही।-2

हयात यूँ ही गुज़रे, ये दुआओं की बात नहीं,
नफ़्स जीते बिना हो रज़ा-ए-ख़ुदा की बात नहीं।-3

ज़मीर ज़िंदा रहे, यही सबसे बड़ी क़ुर्बानी,
बस जान देना रिवायत की बात नहीं।-4

हज़ार बार सज्दा किया मगर दिल ना झुका,
ऐसे सज्दों में फिर क्या इबादत की बात नहीं?-5

जो दिल दुखा दे अपने ही जज़्बातों के तले,
वो क़ुर्बानी नहीं, वो तो सियासत की बात नहीं।-6

जो दूसरों के लिए जीता है वही अस्ल ‘बशर’,
जो सिर्फ़ अपना सोचे, वो इनसानियत की बात नहीं।-7

गुनाह को जो तौबा में बदल दे वो हुनर,
वही इश्क़-ए-हक़ीक़ी है, शराफ़त की बात नहीं।-8

अगर दिल में रियाकारी छुपी बैठी हो,
तो फिर जान देना भी अजमत की बात नहीं।-9

दिखावे से अगर नेकी का दावा हो कहीं,
तो समझ लो वो सिर्फ़ रिवायत की बात नहीं।-10

जो खुद को खुदा की राह में ढाल दे,
वही क़ुर्बान है — जान देना कुर्बत की बात नहीं।-11

हर ईद पर अगर दिल को न बदला जाए,
तो फिर ईद भी महज़ रस्म-ओ-रिवायत की बात नहीं।-12

मक़्ता:

कबीर’ दिल से हो क़ुर्बानियाँ तो कुछ बात बने,
बग़ैर दिल के तो यह सारी इबादत की बात नहीं।

खात्मा:

ग़ज़ल “क़ुर्बानी-ए-हक़” हमें याद दिलाती है कि असली क़ुर्बानी सिर्फ़ जान देने या दिखावे तक सीमित नहीं होती। कबीर साहब के लफ़्ज़ों में दिल की तअब्बर, नफ़्स और शैताँ से लड़ाई, और सच्ची इबादत की अहमियत झलकती है। ईद जैसे पाक मौक़े पर दिल को बदलना, सच्चाई और नज़दीक़ी हासिल करना ज़रूरी है। ये ग़ज़ल इंसानियत, रूहानी सफ़ाई, और खुदा के रास्ते में सच्चे समर्पण की बात करती है। दिल से की गई क़ुर्बानी ही असल इबादत है जो रिवायतों और रस्मों से कहीं ऊपर है। कबीर की ये बात हमारे दिलों को जागरूक करती है कि हर क़ुर्बानी एक नेक मक़सद के लिए हो।

मुशक़िल उर्दू अल्फ़ाज़ और उनके आसान हिंदी मतलब:

क़ुर्बानी – बलिदान, नफ़्स – मन की इच्छाएँ, शैताँ – बुराई, जंग – लड़ाई, रिवायत – परंपरा, ज़ाहिरी – बाहरी, ख़ुलूस – सच्चाई, तअब्बर – इमानदारी, मौक़ा – अवसर, बद्लाव – परिवर्तन, तक़ब्बुर – घमंड, रियाकारी – दिखावा, शान – महत्त्व, ज़िहालत – अज्ञानता, पैबस्त – जुड़ा हुआ, सिम्त – दिशा, नेअमत – इनाम, हयात – ज़िंदगी, रज़ा-ए-ख़ुदा – अल्लाह की मरज़ी, ज़मीर – अंतरात्मा, सज्दा – माथा टेकना, जज़्बात – भावनाएँ, सियासत – राजनीति, बशर – इंसान, इनसानियत – मानवता, तौबा – पाप से माफ़ी माँगना, हुनर – कला, इश्क़-ए-हक़ीक़ी – सच्चा प्रेम (ख़ुदा से), शराफ़त – इज़्ज़तदारी, अजमत – महानता, नेकी – भलाई, कुर्बत – नज़दीकी, रस्म-ओ-रिवायत – रीति-रिवाज, इबादत – पूजा, रूहानी – आत्मिक, समर्पण – ख़ुद को सौंप देना, नेक – भला।