
ग़ज़ल — ग़ुल्फ़िशां के नाम
ग़ुल्फ़िशां की सदा को कैद कर बैठे हैं लोग,
हक़ की आवाज़ को बग़ावत समझ बैठे हैं लोग। -1
वो जो ज़ुल्मों से लड़ी, सब्र की तहरीर बनी,
उसे तारीख़ के दामन का दाग़ कह बैठे हैं लोग। -2
जिसने हर लफ़्ज़ में इंसाफ़ का सच बो दिया,
उसी के हक़ में अब शक की लौ रख बैठे हैं लोग।-3
अब अदालत भी सियासत से लिपट जाती है,
बेबसी को भी गुनहगार कह बैठे हैं लोग। -4
उसने माँगा था वतन में बराबर सा वुजूद,
इस सिफ़ारिश को साज़िश कह बैठे हैं लोग। -5
जिन गलियों में थी उसके हौसले की कहकशां,
उन सड़कों को भी अब खामोश कर बैठे हैं लोग। -6
जो ज़ुबां हक़ की बनी थी, जो न डरी थी कभी,
उसके अल्फ़ाज़ को बेमोल कर बैठे हैं लोग।-7
सिर्फ़ परचम नहीं थी, जो जुनून बन के चली,
उसको भी ज़ंजीरों में जकड़ बैठे हैं लोग।-8
जिन सवालों से उभरती थी नई सोच की लौ,
उन सवालों को भी बेहिस कर बैठे हैं लोग।-9
वो जो इक नाम थी साहस का, मुहब्बत का निशाँ,
उसे आतिश में जलाने का हुनर रखते हैं लोग।-10
ग़ुल्फ़िशां की जो कहानी थी ज़मीं की सच्चाई,
उसको तहक़ीक़ का दस्तावेज़ कर बैठे हैं लोग।-11
आँख में उसके जो आँसू थे, वो पानी न था,
उनमें इतिहास के ज़ख़्मों को भर बैठे हैं लोग।-12
वो जो थी जेल की दीवार से भी ऊँची कभी,
अब उसी हौसले को थामे बैठे हैं लोग।-13
उसकी आवाज़ से काँप उठती थीं कुर्सियाँ कभी,
अब उसी आवाज़ को दबा बैठते हैं लोग।-14
वो जो चाहती थी इंसान को इंसानियत से जाने जाए,
उसकी मासूम सी ख्वाहिश को कुचल बैठते हैं लोग।-15
लाख कोशिश हो मगर सच को छुपाया न गया,
जिसको मिट्टी में दबाया था, उभर बैठे हैं लोग।-16
क़बीर” अब भी कलम लेकर खड़ा है सच के साथ,
जिनको चुप कर दिया था, बोल उठे हैं अब वो लोग।
