
🖋️ तआर्रुफ़ (Introduction):
“गुमनाम क़दमों का सफ़र” ग़ज़ल एक ऐसे दिल की सदा है जो तन्हाई और ग़ैर-मुहब्बत के रास्तों पर खामोशी से चला, और भीड़ में भी गुमनाम रह गया। शायर “क़बीर” ने इस ग़ज़ल में रिश्तों की बदलती सूरत, यादों के बेरुख़ असर, और मोहब्बत की ख़ामोश तबाही को बेहद नर्म अल्फ़ाज़ों में बयाँ किया है। हर शेर उस एहसास का अक्स है जो कभी सुकून था, और अब साया भी नहीं। यह ग़ज़ल सिर्फ़ अशआर नहीं, बल्के उन जज़्बातों की डायरी है जिन्हें हर टूटता हुआ दिल पढ़ता है, मगर कह नहीं पाता। इसमें ना शिकवा है, ना शिकायत — सिर्फ़ एक बेआवाज़ सफ़र की शिनाख़्त है जो इंसान को उसकी पहचान से दूर और खुद के क़रीब कर देता है।
🖋️ ग़ज़ल: गुमनाम क़दमों का सफ़र
हम भी चल दिए थे तन्हा क़दमों के साथ,
अब किसी लब पे नहीं हमारा नाम।
जो थे साथ, वो भी बदले सायों की तरह,
हर अक्स में गूँजता रहा शिकवा-ए-शाम।-1
तन्हाई ने कुछ इस तरह गले लगाया,
जैसे ग़म हो मेरा हमसफ़र हर शाम।-2
जिसने पूछा हाल-ए-दिल एक बार,
अब उसकी यादों में भी नहीं मेरा नाम।-3
कभी थे जो हमारी हँसी की वजह,
अब वही पूछते हैं, “कौन हो तुम जनाब?-4
जिन लम्हों में बसी थी रूह हमारी,
वो लम्हें अब हैं किसी और के नाम।-5
इक तअल्लुक़ था जिस पर नाज़ था हमें,
वो भी चला गया जैसे मौसम-ए-बे-नाम।-6
न था शिकवा किसी बेरुख़ी का हमें,
गिला तो था बस तन्हा हुए हर पैग़ाम।-7
हम भी ज़िंदा हैं किसी मजबूरी की तरह,
न कोई मंज़िल, न सफ़र का इंतेज़ाम।-8
हमने तो लिखा था एक नाम हर धड़कन पर,
अब दिल तो धड़का, मगर न रहा वो नाम।-9
तेरी याद ने हर शाम को सहरा बना दिया,
अब चाँदनी भी लगती है ख़ाली पैग़ाम।-10
किसी ने पूछा हाल-ए-दिल तो हँस दिए,
क्या कहें दिल में था मातम-ए-शाम।-11
तेरे जाने के बाद ही समझ आया,
तेरे बिना हर ख़ुशी हो गई नाकाम।-12
कोशिश की बहुत कि भूल जाएँ तुझे,
तेरी कमी ने कर दिया दिल को बे-आराम।-13
मक़ता
“क़बीर” अब भी मुस्कुराता है भीड़ में,
पर दिल में बसता है अब भी गुमनाम।
🖋️ ख़ातमा (Conclusion):
“गुमनाम क़दमों का सफ़र” एक ऐसा तजुर्बा है जहाँ शायर की कलम मोहब्बत की हकीकत, तन्हाई की लाचारी और ग़ैर-मामूल खामोशियों को जज़्ब करता है। इस ग़ज़ल का हर शेर एक मंज़िल की तरह है — जो जितना आगे बढ़ता है, उतना ही अकेला कर देता है। “क़बीर” की आवाज़ उन लोगों की आवाज़ है जो बोल नहीं सकते, लेकिन जीते हैं दर्द को हर पल। यह ग़ज़ल हमें सिखाती है कि कभी-कभी भीड़ में मुस्कुराना भी एक बड़ी लड़ाई होती है, और हर दिल के अंदर एक गुमनाम शहर बसता है, जहाँ कोई दस्तक नहीं देता। ग़ज़ल का मक्ता इस खामोश हक़ीक़त का आख़िरी दस्तावेज़ है — जहां ‘क़बीर’ अब भी मुस्कुराता है, मगर सिर्फ़ बाहर से।