
ग़ज़ल ‘जंग-ए-हक़’ एक इंक़लाबी पैग़ाम है, जो ज़ुल्म, तसद्दुद और जाबिर हाकिमों के ख़िलाफ़ उठती हुई एक बुलंद आवाज़ है। इस ग़ज़ल में शायर ने हक़ और इंसाफ़ के लिए जद्दोजहद करने वालों के जज़्बात को बयां किया है। यहाँ हर शेर एहसास दिलाता है कि हक़ की राह आसान नहीं, लेकिन अगर सलीब उठाना पड़े तो वह भी क़ुबूल है। वफ़ा, कुर्बानी, और अज़्म की तस्वीर इन अश’आर में झलकती है। यह ग़ज़ल उन तमाम लोगों के लिए है जो ख़ामोशी को तोड़कर बग़ावत की ज़ुबान बोलना चाहते हैं — इंसानियत के दुश्मनों के सामने सीना तानकर।
ग़ज़ल: जंग–ए–हक़
मतला:
ज़ुल्म की आग में जलते रहे हम तो क्या हुआ,
हक़ के नाम पे गर जंग है, तो जंग ही सही।
हाकिमों की नज़रें हम पे शिकारी सी हैं,
हुस्न-ए-इरादा अगर है, तो तंग ही सही।
फाँसी, ज़ंजीर, जेलें हमें डराती नहीं,
जो सिला है वफ़ा का, वो उमंग ही सही।
वो कहते हैं चुप रहो, ये वक़्त नहीं बोलने का,
हमारी आवाज़ अगर आँधी है, तो आँधी ही सही।
चुप न बैठेंगे मगर हाथ उठाए हुए,
ख़ामोश रहना भी एक जुर्म है, जुर्म ही सही।
नहीं डर हमें किसी ताक़त से ऐ ज़ालिम,
तेरा ज़ुल्म अगर तूफ़ाँ है, तो तूफ़ाँ ही सही।
ये दुनिया कहे हमें पागल, हमें बेख़बर,
ये जज़्बा अगर सनम है, तो सनम ही सही।
शिकस्त किसी की नहीं, हमने जीतने का सवाल किया,
हार के बाद भी, फिर से जीतने की उम्मीद ही सही।
जो बदल गया वक़्त, हम बदले अपने अंदाज़ में,
मगर हक़ की बात करते रहे, अंदाज़ ही सही।
ज़िंदगी की कहानी में हम भी किरदार बन गए,
हमारा किरदार अगर दर्द का है, तो दर्द ही सही।
नहीं डरा दमन से कोई तूफ़ाँ हमें लेकिन,
ये दस्त-ए-ज़ुल्म अगर सैलाब है, तो सैलाब ही सही।
आख़िरी साँस तक हक़ की करेंगे पैरवी,
गर ये मक्तल ही मंज़िल है, तो मक्तल ही सही।
ख़ून-ए-मज़लूम से लिखी जाएगी इंसाफ़ की किताब,
ये स्याही अगर है, तो फिर स्याही ही सही।
मक़्ता:
कहता है “क़बीर” अब तो लुत्फ़-ए-अम्न को भूल जा,
दुश्मन-ए-इंसाँ से गर टकराना है, तो कर ही सही।

ख़ातमा:
‘जंग-ए-हक़’ ग़ज़ल की इन पंक्तियों में एक सच्चे बाग़ी दिल की सदा सुनाई देती है, जो इंसानियत की हिफाज़त के लिए हर क़ुर्बानी को तैयार है। इस ग़ज़ल का हर शेर जज़्बे, शुजाअत और अदम-ए-ख़ौफ़ का पैग़ाम देता है। जब बात हक़ और इंसानियत की हो, तो सुकून और अम्न को भूल जाना ही बेहतर है। आख़िरत की परवाह किए बग़ैर, ज़ुल्म के सामने डट जाना ही असल मर्दानगी है। यह ग़ज़ल सिर्फ अल्फ़ाज़ नहीं, बल्कि हक़ की राह में चलने वालों का मज़हबी दस्तावेज़ है।
उर्दू शब्दों के अर्थ:
जंग-ए-हक़ (हक़ की लड़ाई), इंक़लाबी पैग़ाम (क्रांतिकारी संदेश), ज़ुल्म (अत्याचार), तसद्दुद (हिंसा/जबरदस्ती), जाबिर हाकिम (अत्याचारी शासक), जद्दोजहद (संघर्ष), जज़्बात (भावनाएँ), सलीब (सूली/बलिदान), वफ़ा (निष्ठा/वफादारी), कुर्बानी (बलिदान), अज़्म (संकल्प), मतला (ग़ज़ल का पहला शेर), हुस्न-ए-इरादा (इरादे की खूबसूरती), सिला (फल/इनाम), उमंग (जोश/उत्साह), आँधी (तूफ़ान), ख़ामोशी (मौन/चुप्पी), ज़ालिम (निर्दयी), तूफ़ाँ (आंधी), सनम (प्रिय वस्तु/जुनून), शिकस्त (हार), मक्तल (वध-स्थल/शहादत की जगह), दस्त-ए-ज़ुल्म (ज़ुल्म का हाथ), सैलाब (बाढ़), पैरवी (समर्थन/अनुकरण), मज़लूम (अत्याचार का शिकार), स्याही (लिखने की स्याही/ख़ून के प्रतीक में), लुत्फ़-ए-अम्न (शांति का आनंद), दुश्मन-ए-इंसाँ (मानवता का दुश्मन), ख़ातमा (अंत), बाग़ी दिल (विद्रोही हृदय), शुजाअत (बहादुरी), अदम-ए-ख़ौफ़ (निडरता), मज़हबी दस्तावेज़ (धार्मिक प्रमाण/आस्था का दस्तावेज़)।