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जज़्बातों की ज़ुबान:एक ग़ज़लनुमा दास्तान

जज़्बातों की ज़ुबान कभी भी ज़िंदगी को फूलों का बिस्तर नहीं समझती। जज़्बातों की चादर पर अक्सर ख़ामोशी (चुप्पी) की सिलवटें (शिकनें/झुर्रियाँ) होती हैं, और रिश्तों की भीड़ में इंसान तन्हा (अकेला) हो जाता है। इस ब्लॉग में हमने जज़्बातों की ज़ुबान के ज़रिए दर्द, वफ़ा (निभाई हुई मोहब्बत), बेबसी (लाचारपन) और उम्मीद (आशा) जैसे एहसासों (भावनाओं) को शायरी की शक्ल (रूप) में पिरोया है। ये अशआर (शेर/कविता की पंक्तियाँ) सिर्फ़ अल्फ़ाज़ (शब्द) नहीं, हर उस दिल की कहानी हैं जो टूटा, बिखरा, मगर फिर भी मुस्कराता रहा। जज़्बातों की ज़ुबान उसी रूहानी (आध्यात्मिक/दिल को छू लेने वाला) सफ़र (यात्रा) का नाम है जहाँ दिल बोलते हैं और अल्फ़ाज़ सुनाई देते हैं।

इब्तिदा-ए-दर्द: जब खामोशी चीख़ने लगी

  1. क्यों पूछते हो हमसे “इतना ख़ामोश क्यों?”
    तुम क्या समझ सकोगे दिल पर क्या गुज़र गई।

  2. हमने तो हर किसी को समझा लिया मगर,
    ख़ुद को ही उम्र भर समझा न सके हम।

  3. वक़्त की गर्दिशों ने हमें ये सिखा दिया,
    हर शख़्स बदलता है हालात के साथ।

टूटते रिश्ते, बिखरते सपने

  1. हर साज़िश में थी शामिल अपने ही घर की छाँव,
    जिन्हें अपना समझा, वही सबसे जुदा निकले।

  2. मुँह फेर कर गए वो मुसलसल वफ़ा के बाद,
    हम पूछते ही रह गए किस खता के बाद।

  3. ग़ैरों से शिकवा कैसा, जब अपने भी
    अपनेपन की आड़ में पराए हो गए।

  4. अश्कों की तर्जुमानी से निकला यही जवाब,
    जिसे चाहा था हमने, वो अपना नहीं रहा।

तन्हाई की स्याही में लिपटे लफ़्ज़

  1. बेनाम रह गई मेरी रुसवाइयों की रात,
    साया भी दूर हो गया तन्हाइयों के साथ।

  2. हर सिम्त था धुआँ, नज़र कुछ नहीं गया,
    आँखों में रह गई बस बेबसी की बात।

  3. अब दर्द भी हमें अपना समझने लगा है,
    हम भी उसे हर रोज़ दिल से लगा लेते हैं।

रूह की चुप्पियाँ और जज़्बातों का भार

  1. बिखरी हुई थी रूह किसी टूटते बदन में,
    साँसें भी थम गई थीं ग़मों की उस थकन में।

  2. रिश्तों की सिलवटों में जो चाहतें दबीं,
    लबों पे आ न सकीं, आँखों में रह गईं।

  3. ग़म-ए-दौराँ ने छीन लिए सब रंग-ए-उम्मीद,
    हर चाहतें भी अब तो फ़कत नाम की रहीं।

वफ़ा की तासीर और दिल की उलझनें

  1. हमने वफ़ा को चाहा खुदा की तरह मगर,
    उसने इसे मेरी बेबसी-ए-दिल समझ लिया।

  2. जिगर में चुभता रहा हर लम्हा वही ख़याल,
    जो फँस गया था कभी बेवफ़ा की चाल।

  3. अब कौन पूछता है यहाँ दर्द के फसाने,
    हर किसी को है बस अपने ग़म सुनाने।

तक़दीर, तस्लीम और तन्हा लड़ाइयाँ

  1. हमने तो वक़्त से भी शिकायत नहीं की,
    जो भी मिला हमें, उसे तक़दीर मान लिया।

  2. दिल की सदा पे हमने बहुत कुछ लुटा दिया,
    आख़िर में हाथ आया तो बस दर्द-ए-ज़िंदगी।

  3. इक उम्र यूँ ही बीती तसल्लियों के साथ,
    सच छुपा लिया हमने मुस्कुराहटों के साथ।

उम्मीद की लौ और हौसले का सफ़र

  1. जो चोट खा के भी रहा ख़ुशदिली के साथ,
    ग़मों की ज़द में भी उम्मीद बो गया।

  2. हर बार ठोकरों में सँवारा है हमने ख़्वाब,
    मंज़िल मिली न सही, हिम्मत की क़सर न थी।

  3. वो जो दुआओं में माँगते थे सुकून का पता,
    उन्हें उम्र भर उसी की तलाश ही रही।

  4. तमन्नाएँ भी डूब गईं बेकसी के सिलसिले में,
    जैसे लहरें गुम हों सन्नाटे के साहिल में।

तन्हा राहें, खुद से सवाल

  1. न वफ़ा की उम्मीद है, न दिल में कोई गिला,
    बस खामोशियों का ही रिश्ता है हमारे बीच।

  2. जिनकी हँसी में छुपी थी सौदागरी की बू,
    रिश्तों की गर्मी में भी इक फासला सा था।

  3. उम्मीद बाँध बैठे थे जिस रौशनी से हम,
    वो भी डूब गई शाम-ए-अज़ा के साथ।

इख़्तेताम: जब ग़ज़ल एक आईना बन गई

  1. आवाज़ दे रही थी ग़मों की ये भीड़ जब,
    हम फिर भी अपनी ख़ुशी तलाशते रहे।

  2. ये कहानी नहीं, हक़ीक़त है मेरे दोस्त,
    जिसे वक़्त ने मेरी रूह पे लिखा है।

  3. इस बेरुख़ी की उम्र भी गुज़र जाएगी, कबीर,
    फिर से बहार दिल में उतर आएगी ज़रूर।

  4. अपने फ़र्ज़-ए-ज़िंदगी को भुला बैठा हूँ मैं,
    बस काम-ए-रब को ही अपना बना बैठा हूँ मैं।
    ये ग़लतफ़हमी है या फ़क़त मेरी नासमझी,
    ख़ुदा से ही शिकायत का सबब बना बैठा हूँ मैं।

ख़ातमा:
हर शेर में छुपा हुआ दर्द किसी न किसी दिल की सदा है। इस ब्लॉग को लिखते हुए ऐसा लगा मानो रूह के गहरे अंधेरे कोनों में रोशनी की एक लौ जल उठी हो। अगर ये अल्फ़ाज़ आपके दिल तक पहुँचे हों, तो इन्हें आगे बाँटिए — शायद किसी और के ग़म को भी ज़ुबान मिल जाए।