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इस ग़ज़ल ‘ज़ंजीरों का सब्र’ में बग़ावत की रूह, इंसाफ़ की आरज़ू, और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ हौसले की आग शामिल है। यह उन तमाम आवाज़ों का मंज़र-ए-अमल है जो सदियों से मज़लूम रहीं, मगर हर दौर में ज़िंदा दिली के साथ अमन-ओ-अमान का सपना देखती रहीं। ये अशआर सिर्फ़ अल्फ़ाज़ नहीं, बल्कि वो जज़्बात हैं जो ज़ंजीरों को पिघलाते हैं, सन्नाटे को तोड़ते हैं, और इंसाफ़ की ज़मीन पर इंक़लाब की फ़सलें उगाते हैं। इन पंक्तियों में मुहब्बत, इंसाफ़ और हक़ की तलाश है, जो हर शख़्स के दिल में जगह बना लेती है।

ग़ज़ल: ज़ंजीरों का सब्र

🖊️ शायर: क़बीर ख़ान
📅 प्रकाशन तिथि: 25 मई 2025

जब तक दिलों में आग है, बेड़ियाँ पिघलती रहेंगी,
दीवार चाहे जितनी उठे, राहें निकलती रहेंगी।

सन्नाटे में भी लहू बोलेगा अपने हक़ में,
साज़िशों की बस्तियाँ यूँ ही जलती रहेंगी।

दहशतों के अंधेरे हों या क़ैद का मौसम,
ज़ुल्म के हर साये में आहटें चलती रहेंगी।

क़ैद कर लो सायों को, पर रौशनी के दामन से,
चिंगारियाँ निकलती और खिलती रहेंगी।

सिर्फ़ जिस्मों को क़ैद करने से क्या हासिल?
रूहों में तो बग़ावतें पलती रहेंगी।

ज़हर बोने वालों को शायद ये इल्म नहीं,
हमारी मिट्टी से सदाएं निकलती रहेंगी।

सरकश हवाओं से जो जूझे हैं हौसलों से,
उनकी मिसालें हर दौर में मिलती रहेंगी।

तख़्त गिरते रहेंगे, ताज उलटते रहेंगे,
ये इनसाफ़ की जड़ें गहराती रहेंगी।

तेज़ कर दो सज़ा का हर इक औज़ार मगर,
हमारी रगों में ताबिंदगी जलती रहेंगी।

कलम पे पहरे बिठाओ, ज़ुबाँ सी लो लेकिन,
हमारी आँखों से जुबां भी कहती रहेंगी।

इंक़लाब की ज़मीन को कोई बाँट नहीं सकता,
इस धरती पर आवाज़ें उबलती रहेंगी।

मक़्ता:
जो न झुके, न रुके, न थके कभी “क़बीर”,
उनकी मिसालें सदियों तक चलती रहेंगी।

A dimly lit, prison-like setting with hands shackled in chains. At the center, a person stands with eyes ablaze, reflecting both the spirit of rebellion and a deep longing for justice. Others stand around them, their faces showing struggle and hope. In the background, a faint image of the scales of justice or a statue symbolizing justice is visible.
Hands shackled in chains in a prison-like setting, with a central figure whose eyes burn with rebellion and hope for justice. Surrounding figures show determination and unity, while a faint symbol of justice looms in the background.

🔴 ख़ातमा:

“ज़ंजीरों का सब्र” महज़ एक ग़ज़ल नहीं, बल्कि एक शोला है जो हर उस दिल में लहराता है जो इंसाफ़ की तमन्ना रखता है। यह उन रूहों का बयान है जिन्हें क़ैद करना मुमकिन नहीं, और उन कलमों की सदा है जिनकी आवाज़ को दबाया नहीं जा सकता।

अगर ये अशआर आपके दिल को छू गए, तो इन्हें अपने अहबाब और रिश्तेदारों के साथ साझा कीजिए—ताकि वो आवाज़ जो इतिहास में भी दबाई न जा सकी, आज भी गूंजती रहे।

📢 आपकी राय अहम है:
नीचे कमेंट कर बताइए कि इस ग़ज़ल ने आपके ज़ेहन में क्या तस्वीरें उकेरीं, और किस शेर ने आपके दिल को छू लिया।

मुश्किल उर्दू शब्दों का आसान हिंदी अर्थ:

ज़ंजीरों का सब्र, बंधनों में भी सहनशीलता, बग़ावत, विद्रोह या अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़, रूह, आत्मा या अंतरात्मा, इंसाफ़, न्याय, आरज़ू, चाहत या इच्छा, मज़लूम, अत्याचार सहने वाला, अमन-ओ-अमान, शांति और सुरक्षा, मंज़र-ए-अमल, दृश्य या सच्चाई का प्रतीक, जज़्बात, भावनाएं, चिंगारियाँ, छोटी आग की लपटें, तख़्त, सिंहासन या सत्ता का प्रतीक, ताज, मुकुट, औज़ार, सज़ा देने का हथियार या ज़रिया, ताबندگی, चमक, ऊर्जा या गर्मी, सलीबों, फांसी या पीड़ा का प्रतीक, ख़ौफ़, डर, सरकश हवाएं, बाग़ी हालात या विद्रोही परिस्थिति, मक़्ता, ग़ज़ल का अंतिम शेर जिसमें शायर का नाम हो, शोला, आग की लपट या ज्वाला, अहबाब, दोस्त और चाहने वाले, सदाएं, आवाज़ें, ज़ेहन, मन या सोच, उकेरीं, दर्शाया या चित्रित किया।