Author: Er. Kabir Khan B.E (Civil Eng.), LLB, LLM
प्रस्तावना:
आज के दौर में “जिहाद का राजनीतिकरण” एक गंभीर समस्या बन गया है। इस्लाम में “जिहाद” का मतलब आत्मसंयम, खुद की सुधार, और समाज की भलाई के लिए संघर्ष करना होता है। यह एक ऐसा सिद्धांत है जो व्यक्तिगत और सामूहिक सुधार पर ज़ोर देता है। लेकिन अफ़सोस, कुछ तत्व इस पवित्र शब्द का इस्तेमाल अपने राजनीतिक मकसदों के लिए कर रहे हैं।
वे “जिहाद” को एक नकारात्मक रूप में पेश करते हैं, जिससे मुसलमानों के खिलाफ भेदभाव और उत्पीड़न को बढ़ावा मिलता है। यह दुष्प्रचार न केवल मुस्लिम समुदाय को बदनाम करता है, बल्कि समाज में धार्मिक असहिष्णुता और तनाव को भी बढ़ाता है।
इस ब्लॉग में, हम इस मसले पर तफ्सील से बात करेंगे। हम यह भी देखेंगे कि “जिहाद” लफ़्ज़ का किस तरह ग़लत संदर्भ में इस्तेमाल किया जा रहा है। इससे मुसलमानों के ख़िलाफ़ नाइंसाफ़ी और तफ़रीक़ किस तरह बढ़ रही है, इस पर भी ग़ौर किया जाएगा। साथ ही, हम इस्लाम के इस उसूल के असल मायने और अहमियत को भी उजागर करेंगे इसका मकसद यह है कि लोगों तक सही इल्म पहुंच सके।
हमारा हदफ़ (लक्ष्य” या “उद्देश्य) है कि मुआशरे में तमाम तबक़ों के दरमियान समझ, इज़्ज़त, और बरदाश्त को फरोग़ (प्रसार,” या “प्रचार) मिले।
“जिहाद” लफ्ज़ का अर्थ क्या है?
अरबी में शाब्दिक अर्थ:
अरबी में जिहाद का शाब्दिक अर्थ “संघर्ष” या “प्रयास” होता है। यह शब्द “ज-ह-द” (جهد) धातु से आया है। जिसका मतलब है “प्रयास करना” या “संघर्ष करना”। इस्लामी परंपरा में, इसे आम तौर पर “ईश्वर के रास्ते में संघर्ष” के रूप में समझा जाता है। इसका मतलब है कि किसी भी तरह का संघर्ष जो न्याय, सच्चाई, और अच्छाई के लिए किया जाए, वह जिहाद के दायरे में आता है।
जिहाद का धार्मिक दृष्टिकोण (रूहानी पहलू) :
इस पहलू में, जिहाद का मतलब होता है खुद के अंदर सुधार करना और अपनी बुरी आदतों को बदलना। इसमें आत्ममंथन (खुद की समीक्षा) और आत्म-सुधार (खुद को बेहतर बनाना) शामिल होता है। यह एक व्यक्तिगत संघर्ष है जिसमें व्यक्ति अपने आप को बेहतर बनाने की कोशिश करता है।
इसको दो चरणों में किया जाता है –
आत्ममंथन (खुद की समीक्षा) :
पहला चरण, इसमें व्यक्ति अपनी कमियों को पहचानता है। फिर, वह अपने व्यवहार का विश्लेषण करता है और उन्हें सुधारने की कोशिश करता है। यह अमल व्यक्ति को आध्यात्मिक रूप से मजबूत बनाती है और उसे नैतिकता की ओर ले जाती है।
आत्म-सुधार (खुद को बेहतर बनाना):
यह पहलू आत्ममंथन का अगला चरण है, जहां व्यक्ति अपनी गलतियों से सीखकर उन्हें सुधारने का प्रयास करता है। इसमें संयम, अनुशासन और नैतिकता का पालन शामिल है। आत्म-सुधार का मकसद एक बेहतर इंसान बनना और समाज में सकारात्मक योगदान देना है। इसका मतलब यह भी है कि व्यक्ति अपने अंदर के नकारात्मक तत्वों जैसे क्रोध, लालच, ईर्ष्या, और नफरत से संघर्ष करता है। वह इन नकारात्मक भावनाओं को सुधारने की कोशिश करता है, और उन्हें सकारात्मक गुणों जैसे धैर्य, करुणा, और प्रेम में बदलने का प्रयास करता है।
इस प्रकार, जिहाद का शाब्दिक अर्थ केवल बाहरी संघर्ष तक सीमित नहीं है , बल्कि इसका आध्यात्मिक और नैतिक आयाम भी है। जो आत्ममंथन और आत्म-सुधार के माध्यम से व्यक्ति को संपूर्णता की ओर ले जाता है।
हालांकि, कुछ लोगों ने जिहाद की गलत व्याख्या की है और इसे काफिरों के खिलाफ युद्ध के रूप में प्रस्तुत किया है। असल में, इस्लामी शिक्षाओं में जिहाद का उद्देश्य न्याय और शांति की स्थापना है, न कि किसी के खिलाफ हिंसा फैलाना।
NOTE: क़ुरान में “काफिर” (अविश्वासी) शब्द विभिन्न रूपों में कई बार आया है। इस शब्द का उपयोग मुख्य रूप से उन लोगों के लिए किया गया है जो ईश्वर के अस्तित्व या उसके संदेश को नकारते हैं। हालांकि, काफिर शब्द का अर्थ संदर्भ के बिना नहीं समझा जाना चाहिए। इसके प्रयोग का सही अर्थ समझने के लिए इसे क़ुरान की आयतों और संदर्भों के अनुसार देखना जरूरी है। लेकिन हमारे मुल्क़ में इस शब्द को एक प्रोपेगंडा के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। जबकि उस समय अरब में हिन्दू समुदाय नहीं था। सियासी लोगों को सिर्फ़ अपनी रोटियाँ सेकने से मतलब , मुल्क़ जाए भाड़ में।
हिन्दू समुदाय से जिहाद का क्या रिश्ता है ?
ऐतिहासिक तौर पर, अरब प्रायद्वीप पर हिंदू आबादी का स्थायी रूप से रहने का कोई पक्का सबूत नहीं है। हालांकि, हिंदू व्यापारियों और यात्रियों के अरब आने का ज़िक्र मिलता है, खासकर भारतीय उपमहाद्वीप और अरब के बीच व्यापारिक रिश्तों के कारण। प्रारंभिक इस्लामी काल के दौरान, अरब में स्थायी रूप से हिंदू समुदाय की मौजूदगी नहीं रही। हालांकि, व्यापार और यात्रा के दौरान हिंदू संस्कृति और धर्म के कुछ पहलू अरब में पहुंचे। हिंदू समुदाय से जिहाद का सीधा संबंध नहीं है, क्योंकि यह एक इस्लामी अवधारणा है। लेकिन, विभिन्न ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भों में, जिहाद की अवधारणा को समझने और उसकी व्याख्या करने के तरीके में भिन्नताएँ हो सकती हैं।
कुछ लोग जिहाद को गलत तरीके से समझते हैं। वे इसके नाम पर हिंसा या चरमपंथ को बढ़ावा देते हैं, जो कि मुख्य इस्लामी शिक्षाओं के विपरीत है। हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच आपसी समझ और संवाद के लिए यह महत्वपूर्ण है कि जिहाद की सही और व्यापक अवधारणा को समझा जाए और गलतफहमियों को दूर किया जाए।
जिहाद कितने प्रकार का होता है ?
- जिहाद-अल-अकबर (बड़ा जिहाद): खुद की बुराइयों और कमजोरियों से लड़ाई
- जिहाद-अल-असगर (छोटा जिहाद): सामाजिक अन्याय और अत्याचार के खिलाफ संघर्ष
- जिहाद-अल-कलम (क़लम का जिहाद): ज्ञान और शिक्षा के माध्यम से जिहाद
- जिहाद-अल-नफ्स (मन का जिहाद): आंतरिक संघर्ष और आत्म-संयम