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🖋️ तआर्रुफ़ (Taarruf):

“तमीज़-ए-वफ़ा” एक रूहानी ग़ज़ल है जो मोहब्बत में वफ़ा की असल सूरत और उसकी तौहीन करने वालों पर तीखा और असरदार तंकीद करती है।
इस ग़ज़ल में “क़बीर” ने उन रिश्तों की परतें खोली हैं जहाँ मोहब्बत सिर्फ़ नाम की रह जाती है और वफ़ा महज़ एक लफ़्ज़ बनकर रह जाती है।
हर शेर में मोहब्बत के उसूलों, सलीक़ों और अदब की पुरज़ोर वकालत की गई है, जो हर दिल को महसूस होगी।

🌙 ग़ज़ल: तमीज़-ए-वफ़ा

मतला:
अपने अज़ाबों से उनको जलाना ठीक नहीं,
जो दिल में बसें हों, उन्हें आज़माना ठीक नहीं।

मोहब्बत अगर है, तो फिर शक कैसा?
भरोसे के रिश्ते को गिराना ठीक नहीं।-1

वो जो खामोशी में भी आवाज़ रखते हैं,
उन्हें बेवफ़ा सा बताना ठीक नहीं।-2

जो हर रोज़ ज़ख़्म-ए-जिगर दे के जाएँ,
उन्हें अज़ीज़-ए-दिल कहना ठीक नहीं-3

जो राह-ए-वफ़ा पर चले ही नहीं,
उन्हें दर्द-ए-दिल की तस्दीक़ नहीं।-4

जो मौसम-ए-दिल की तरह रंग बदलते रहें,
वो चाहत-ए-जाँ की हक़ीक़त नहीं।-5

जो नक़्श-ए-तअल्लुक़ मिटाते रहें,
उन्हें रस्म-ए-मोहब्बत पे यक़ीं भी नहीं।-6

जो हर बात-ए-दिल में अदावत रखें,
वो लफ़्ज़-ए-वफ़ा के मुसत्तहक़ नहीं।-7

जो हर इल्ज़ाम-ए-बे-वजह पर चुप रहें,
उन्हें अहद-ए-वफ़ा की ज़रूरत नहीं।-8

जो लम्हा-ए-माज़ी को रौंद आएँ,
उन्हें दस्तक-ए-याद देना मुनासिब नहीं।-9

जो हर रोज़ रंग-ए-वजूद बदलते रहें,
वो आईना-ए-वफ़ा के क़ाबिल नहीं।-10

जो लफ़्ज़-ए-सितम में छुपा लें फ़रेब,
उन्हें नज़्म-ए-वफ़ा कहना इनसाफ़ नहीं।-11

जो ख़ामोशी-ए-लब को ही इल्ज़ाम दें,
उन्हें सुब्ह-ए-वफ़ा की तमीज़ नहीं।-12

जो कल तक रूह-ए-जाँ में बसे थे कभी,
उन्हें लम्हा-ए-ख़्वाहिश समझना मुनासिब नहीं।-13

मक़ता:

क़बीर”, जिनके सीने में वफ़ा ही न हो,
उन्हें दावेदार-ए-इश्क़ मानना मंज़ूर नहीं।

🖋️ ख़ातमा:

“तमीज़-ए-वफ़ा” सिर्फ़ एक शायरी नहीं, मोहब्बत की अदालत में एक गवाही है — कि इश्क़ का हक़ सिर्फ़ उन्हें है, जिनके सीने में वफ़ा की जगह बाक़ी हो।
“क़बीर” का अंदाज़-ए-बयान हर बेवफ़ा चेहरों से परदा हटाता है और मोहब्बत की पाकीज़गी की पैरवी करता है।