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ताअर्रुफ़:

“तलाश-ए-गुल-वतन” सिर्फ एक ग़ज़ल नहीं, बल्कि एक तहज़ीबयाफ़्ता चीख़ है — उस शायर की जो अपने वतन की उजड़ी हुई सूरत से ग़मगीन भी है और बेदार भी। हर मिसरा मौजूदा हक़ीक़तों का आइना है — तालीम की तबाही, संसद की ख़ामोशी, और खेतों की वीरानी। ये ग़ज़ल सिर्फ़ शिकायत नहीं करती, बल्कि तामीर की तलब भी रखती है। नई नस्ल के हाथों में क़लम देने की बात हो या फिर अख़बारों में सच्चाई की रौशनी की तलाश — शायर हर शेर में उम्मीद का चराग़ जलाता है। यह ताअर्रुफ़ है उस ख्वाब का, जिसमें गुल-वतन फिर से महकेगा, जिसमें इंसानियत मज़हब से ऊपर होगी, और जहाँ तहज़ीब, हुनर और अमन का बोलबाला होगा।

ग़ज़ल: “तलाश-ए-गुल-वतन”

हर इक मुल्क बना रहा है अपना-अपना चमन,
मुझे उजड़ा हुआ ये गुल-वतन अब देखना है।-1

हवा तक भी यहाँ तकसीम है मज़हब के नाम पर,
मुझे अब गैर में भी अपना-पन देखना है।-2

जहाँ तालीम थी रोशन, वहाँ अब धुआँ है,
हर स्कूल में नफ़रत का चलन देखना है।-3

कभी इल्म ओ हुनर में था जो सबसे आगे,
उसे फिर से वही रौशन चमन अब देखना है।-4

जो संसद थी सदा अवाम की आवाज़ का घर,
वहीं मिंबर से फिर सच की सदा अब देखना है।-5

हमारे खेत भी सूखे, दरख़्तों में है सन्नाटा,
मुझे फिर हर तरफ़ हरियापन अब देखना है।-6

नई नस्ल को बनाना है हमें अब क़ाबिल-ए-जंग,
हाथों में किताबें हों, न कफ़न हो अब देखना है।-7

मैं रोता हूँ कि क्यों पिछड़ रहा है मेरा वतन,
मगर आँसू नहीं, जज़्बात बन कर अब देखना है।-8

मिरे लहजे में जो तहज़ीब है सदियों की जमा,
फिर वही इज़्ज़त-ओ-आज़रत अब देखना है।-9

जहाँ मज़दूर के हाथों में थी मेहनत की चमक,
वहाँ फिर से वही सच्चा पसीना-ए-रवाँ अब देखना है।-10

हक़ीक़त-ए-खुलासा-ए-ताक़त थी जिन अख़बारों में,
उन्हीं पन्नों पे फिर से चमक-ए-जुरअतन अब देखना है।-11

जो आवाज़ें गिरा देती थीं कभी दर-ओ-दीवार,
उन्हीं में फिर से शोला-ए-अगन अब देखना है।-12

जो पत्थर थे मगर रक्खे थे सरहद की हिफ़ाज़त में,
उन्हीं पत्थरों में हमें मुल्क-ए-अमन अब देखना है।-13

जो माज़ी में बसा था इक सुनहरा सा वतन,
उसी माज़ी को फिर से हुस्न-ए-चमन अब देखना है।-14

मक़ता:
क़बीर तेरा वादा है, न हो मायूस तू,
अपने वतन को बुलंद-ओ-फ़लक अब देखना है।

"A damaged Indian school classroom with hateful graffiti on the walls, yet children sit attentively—their eyes alight with curiosity as they hold books, symbolizing resilience against division."
“When walls scream hate, young minds choose to read, learn, and rise above.”

ख़त्मा:

इस ग़ज़ल “तलाश-ए-गुल-वतन” का हर शेर एक सवाल है, और हर जवाब में छुपा है एक पैग़ाम — उम्मीद का, मेहनत का, और जागरूकता का। शायर की आवाज़ उन तमाम लोगों की आवाज़ है, जो वतन को महज़ एक ज़मीन का टुकड़ा नहीं, बल्कि रूहानी पहचान समझते हैं। मक़ते में शायर न सिर्फ़ अपने आप को बल्कि अपने जैसे हर फिक्रमंद दिल को तसल्ली देता है कि मायूसी की कोई जगह नहीं। गुल-वतन की तलाश कोई फ़र्ज़ नहीं, बल्कि हमारी अस्ल ज़िम्मेदारी है। ये ग़ज़ल माज़ी की रोशनी में मुस्तक़बिल की तलाश करती है — जिसमें हर तरफ़ हरियाली हो, किताबें हों, तहज़ीब हो, और वतन की बुलंदी हो। यही मक़सद है, यही मंज़िल।

कठिन उर्दू अल्फ़ाज़ का मतलब:

ताअर्रुफ़ – परिचय, तहज़ीबयाफ़्ता – सभ्य/संस्कृति से भरपूर, चीख़ – पुकार, शायर – कवि, ग़मगीन – दुखी, बेदार – जागरूक, मिसरा – शेर की आधी पंक्ति, मौजूदा – वर्तमान, हक़ीक़तों – सच्चाइयाँ, तबाही – बर्बादी, वीरानी – सुनापन, तामीर – निर्माण, तलब – इच्छा/चाह, क़लम – लेखनी, रौशनी – उजाला, चराग़ – दीपक ख़्वाब – सपना, महकेगा – महक उठेगा, इंसानियत – मानवता, मज़हब – धर्म, तहज़ीब – संस्कृति, हुनर – कला, अमन – शांति, बोलबाला – वर्चस्व/प्रभाव, गुल-वतन – फूलों सा देश, तकसीम – बँटवारा, मज़हब – धर्म, अपना-पन – अपनत्व, तालीम – शिक्षा, धुआँ – धुआं/अंधकार, नफ़रत – घृणा, चलन – रिवाज, इल्म – ज्ञान, हुनर – कला,

रौशन – उजला, चमन – बग़ीचा, अवाम – जनता, मिंबर – मंच, सदा – आवाज़, दरख़्त – पेड़, हरियापन – हरियाली, क़ाबिल-ए-जंग – युद्ध के योग्य/सक्षम, कफ़न – मृत शरीर का कपड़ा, जज़्बात – भावनाएँ, तहज़ीब – संस्कृति, इज़्ज़त-ओ-आज़रत – सम्मान व प्रतिष्ठा, मज़दूर – श्रमिक, पसीना-ए-रवाँ – बहता पसीना, हक़ीक़त – सच्चाई,खुलासा – सारांश/उजागर करना, जुरअतन – साहस, दर-ओ-दीवार – दीवार और दरवाज़ा,शोला-ए-अगन – आग की लपट, सरहद – सीमा, हिफ़ाज़त – सुरक्षा, मुल्क-ए-अमन – अमन का देश, माज़ी – अतीत, हुस्न-ए-चमन – सुंदर बग़ीचा,मक़ता – आख़िरी शेर जिसमें शायर का नाम होता है, वादा – वचन, मायूस – निराश, बुलंद-ओ-फ़लक – ऊँचाई और आसमान, ख़त्मा – समापन, शेर – दो पंक्तियों की कविता, सवाल – प्रश्न, पैग़ाम – संदेश, जागरूकता – चेतना, शायर – कवि, फ़िक्रमंद – चिंतित/चिंता करने वाला, रूहानी – आत्मिक/आध्यात्मिक, मक़ते – आख़िरी शेर, तसल्ली – सांत्वना, मायूसी – निराशा, फ़र्ज़ – कर्तव्य, अस्ल – असली/वास्तविक, ज़िम्मेदारी – जिम्मेदारी, मुस्तक़बिल – भविष्य, मंज़िल – लक्ष्य/गंतव्य