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📘 तआर्रुफ़:

“तेरे बिना…” एक दर्दभरी ग़ज़ल है जो मोहब्बत के उस मोड़ पर खड़ी है, जहाँ जुदाई सिर्फ़ दूरी नहीं, बल्कि रूह का बिखरना बन जाती है। शायर ने इस ग़ज़ल के ज़रिए इश्क़ की उस कशमकश को बयां किया है जहाँ कोई किसी को भुलाना नहीं चाहता, और वक़्त भुलाने नहीं देता। मतले से लेकर मक़ते तक, हर शेर एक ज़ख़्म है और हर मिसरा एक मरहम भी। इसमें बिछड़ने का ग़म भी है, उम्मीद की लौ भी है, और वफ़ा की नर्म दस्तक भी। “तेरे बिना…” एक रूहानी सफ़र है — तन्हा दिलों के लिए, जो मोहब्बत में टूटकर भी मोहब्बत से जुदा नहीं होते। ‘क़बीर’ की कलम ने यहाँ इश्क़ को जीने और सहने की ताक़त में बदल दिया है।

📜 ग़ज़ल: तेरे बिना…

मतला

तेरा जाना तो एक पल का हादसा था,
तेरे बिना हर पल को सदी सा बिताऊँगा।

तेरी यादों की चुप आहटें सताती हैं,
हर रात तन्हा जागकर फिर मुस्कराऊँगा। –1

तेरे साए में थी जो रौशनी हरदम,
अब अंधेरे से ही दोस्ती निभाऊँगा। –2

जिसे भुलाना भी अब मुमकिन नहीं मेरा,
उसी नाम से रोज़ दुआ माँगता जाऊँगा। –3

तेरे जाने के बाद भी बसी है तू मुझमें,
तेरी महक को हर सांस में सजाऊँगा। –4

जो तू लौट आए तो बहार लौटे शायद,
तेरे इंतज़ार को अब तक सींचता जाऊँगा। –5

तेरे हाथों से छूटा जो वक़्त था कभी,
अब उन्हीं पलों की राख में खुद को छुपाऊँगा। –6

तेरे ख़तों की हर सतर में सांसें बाकी हैं,
हर लफ़्ज़ को सीने से लगाता जाऊँगा। –7

तेरे बिना जो अधूरी सी थी हर ख़ुशी,
अब उस अधूरेपन को ही अपनाऊँगा। –8

वो जो तूने कहा था “मैं कभी दूर न जाऊँगा”,
तेरे हर वादे को अब अश्क़ में लिख जाऊँगा। –9

तेरा नाम अब भी मेरी तन्हा ज़ुबां पर है,
हर महफ़िल में तुझको ही गुनगुनाऊँगा। –10

कोई रिश्ता तो नहीं अब तेरे और मेरे दरमियान,
मगर तेरी याद में हर रिश्ता भूल जाऊँगा। –11

जो तू सामने हो और फिर भी दूर लगे,
उस एहसास को हर रोज़ जीता जाऊँगा। –12

जो कभी तेरी आवाज़ थी चैन का सबब,
अब उसी सन्नाटे में खुद को बहलाऊँगा। –13

तेरे दिए दर्द को कभी बद्दुआ न कहूँ,
उन्हीं तकलीफ़ों से मोहब्बत निभाऊँगा। –14

‘मक़ता 

‘क़बीर’ कहता है इश्क़ न सौदा है, न सौग़ात,
जो तू रहा ना सही, फिर भी निभाता जाऊँगा।

📕 ख़ातमा:

ग़ज़ल “तेरे बिना…” अपने हर शेर में जुदाई की सदा, तन्हाई का असर, और मोहब्बत की पुख़्तगी को बयाँ करती है। ये ग़ज़ल उन दिलों के लिए है जो बिछड़ने के बाद भी हर सांस में किसी को महसूस करते हैं। इसमें जो ख़ामोशी है, वो भी पुकार बनकर सुनाई देती है। ‘क़बीर’ का मक़ता ग़ज़ल की रूह को समेटते हुए ये बताता है कि सच्चा इश्क़ न नफ़रत में बदलता है, न शिकायत में — वो तो बस निभता चला जाता है। ये ग़ज़ल एक टूटे दिल की जुबान है, मगर टूटन में भी मोहब्बत की लय है। पाठक इसे महसूस करेंगे — अपने ही किसी पुराने दर्द, किसी भूले नहीं जाने वाले लम्हे में।

📚 मुश्किल अल्फ़ाज़ के आसान मअ’नी:

हादसा – अचानक घटना, सदी – सौ साल / बहुत लंबा वक़्त, साए – छाया, रौशनी – उजाला, दुआ – प्रार्थना, महक – ख़ुशबू, इंतज़ार – प्रतीक्षा, सींचता – पालना / संजोना, तसवीर – चित्र / फ़ोटो, सतर – पंक्ति, लफ़्ज़ – शब्द, अधूरी – अधपूरी, वादे – वचन, अश्क़ – आँसू, महफ़िल – सभा / महक़मा, परछाई – प्रतिबिंब, दरमियान – बीच में, एहसास – अनुभूति, साज़ – वाद्य यंत्र / धुन, सन्नाटा – गहरी ख़ामोशी, अशआर – शेर / ग़ज़ल की पंक्तियाँ, नज़्म – कविता, बद्दुआ – श्राप, तकलीफ़ें – दुख-दर्द, टूटन – बिखराव, साँझ – शाम, सहर – सुबह, ख़याल – याद / सोच