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तआर्रुफ़:

ग़ज़ल “दाद और दर्द” एक ऐसे शख़्स की कहानी बयाँ करती है जो महफ़िलों की चकाचौंध में तनहा रह गया। इस ग़ज़ल में हर शेर उस दर्द को आवाज़ देता है जिसे अक्सर लोग मुस्कुराहटों में छुपा लेते हैं। यह ग़ज़ल रिश्तों की बारीकियों, अपनों की बेवफ़ाई, और सच्चाई पर दुनिया की हँसी को बेनक़ाब करती है। शायर ने समाज की दोहरी सोच, चाहतों के पीछे छिपे फ़रेब, और अपनेपन के लिबास में छुपे सवालों को शायरी में सादगी से पिरोया है। हर शेर एक जज़्बा है—दर्द से भीगी हुई मोहब्बत, सुकून की तलाश, और बेवफ़ाओं से मिली रुसवाई। “दाद और दर्द” उन सब के लिए है जो मुस्कुराते हुए भी अंदर से टूट जाते हैं और फिर भी ग़ज़ल बना देते हैं।

ग़ज़ल:”दाद और दर्द”

मतला:

सरे महफ़िल जब बनाया गया मेरा मज़ाक,
दाद देने वालों में मेरे चाहने वाले भी थे।

लबों पे शिकवा था मगर आँखों में आँसू न थे,
ज़ख़्म देने वालों में अपने साए भी काले थे।-1

तन्हाई में जब टूटकर रोया मैं रात भर,
ख़्वाब बाँटने वाले तब किसी और के हवाले थे।-2

ज़माने को हँसी आई मेरी मासूमियत पर,
क्योंकि सच के लिबास में कुछ अफ़साने काले थे।-3

हमने चुप रहकर बहुत कुछ सह लिया,
वरना तेवर हमारे भी कमाल वाले थे।-4

हर कोई मेरे ग़म का तमाशा चाहता था,
क्योंकि मेरी ख़ुशी के किस्से उन्हें रास नहीं आने वाले थे।-5

कुछ ने कहा, “तू बहुत बदल गया है”,
असल में वो आईना थे जो धुँधले वाले थे।-6

मेरे फसाने को भी कुछ रंग मिलते अगर,
हकीकत में दर्द नहीं, अफ़साने वाले थे।-7

रौशनी की उम्मीद थी जिनसे ज़िंदगी भर,
वो ही चुपके से चिराग़ बुझाने वाले थे।-8

रिश्ते गिनाते थे जो दिन-रात मेरे नाम से,
वो भी अब अजनबी और सवाल वाले थे।-9

ग़म को सजाकर हमने रौनक़ बना लिया,
क्योंकि आंसू चुराने वाले बेहिसाब वाले थे।-10

हमने सिखाया जिन्हें चलना अपने साथ,
हमारी राह में वही पत्थर बिछाने वाले थे।-11

कभी वफ़ा, कभी जफ़ा, कभी बस नाम भर,
जो रिश्ते थे वो भी सामान-ए-तिजारत वाले थे।-12

दिल पे दस्तक तो दी किसी ने बड़ी देर से,
जब सारे दरवाज़ा-ए-हयात खुदा के हवाले थे।-13

मक़ता

जो भी मिला, मुक़द्दर समझ लिया हमने ‘कबीर’,
वरना दुआ में भी अपने सवाल वाले थे।

ख़ात्मा:

ग़ज़ल “दाद और दर्द” एक तजुर्बा-ए-जज़्बात है, जो उन लोगों के लिए है जो ख़ामोशी में भी सदा रखते हैं। इस ग़ज़ल के हर शेर में एक हक़ीक़त है, एक तह की चुभन है। ये सिर्फ़ अल्फ़ाज़ नहीं, बल्कि एक कुर्बानी है उन रिश्तों की जो फ़रेब के नक़ाब में थे। शायर ने दर्द, मोहब्बत, और तन्हाई को जिस अंदाज़ में बयान किया है, वो पढ़ने वालों के दिल को रवां कर देता है। “दाद और दर्द” पढ़कर हर शख़्स अपने किसी पुराने ज़ख़्म को याद करेगा। यही ग़ज़ल की ख़ूबसूरती है—वो चुपचाप रुला भी देती है, और सुकून भी दे जाती है। ऐसी शायरी दिल को छूती नहीं, बस उसमें बस जाती है