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🔷 भूमिका: “दौर-ए-फितना की दास्तान”

हर दौर की एक अपनी दास्तान होती है—कुछ लफ़्ज़ों में दर्ज, कुछ ज़ख्मों में, और कुछ ख़ामोशियों में दफ़न। मगर जब ज़माना फितना (उथल-पुथल) और फसाद (अराजकता) की गिरफ़्त में हो, जब रिश्तों से लेकर रूह तक पर साया हो खौफ़ का—तब शायरी महज़ एक फ़न नहीं रहती, वो ज़मीर की आवाज़ बन जाती है।

“दौर-ए-फितना की दास्तान” ऐसी ही एक ग़ज़ल है, जो हमारे आज के बिखरे हुए सामाजिक, सियासी और जज़्बाती हालात को बेबाकी से बयां करती है। इसमें हर शेर एक आईना है—कभी नफ़रत की परछाइयों को दिखाता है, कभी उम्मीद के बुझे हुए चिराग़ों की बात करता है। ये ग़ज़ल हमारे वक़्त की धड़कन भी है और उसका अफ़सोस भी।

इस ग़ज़ल में सिर्फ़ अल्फ़ाज़ नहीं, बल्कि वो असर है जो नस्लों में उतरता है, वो टीस है जो वक़्त के साथ भी कम नहीं होती।

ग़ज़ल: “दौर-ए-फितना की दास्तान”

मतला:
रहेगा याद सदा ये दौर-ए-फितना-ओ-फसाद,
हमारी नस्लों में भी ये असर बाकी रहेगा।

क़दम-क़दम पे बिछा है यहाँ साया खौफ़ का,
हर एक दिल में अजब सा डर बाकी रहेगा।

लहू से सींची गई हैं ये नफ़रतों की फ़सल,
मिटा भी दें तो कोई ज़हर बाकी रहेगा।

कभी जो प्यार था, अब तकरार में ढल गया,
रिश्तों की राख में भी शरर बाकी रहेगा।

सियासतों ने किया है यहाँ बंटवारा यूँ,
हर एक गली में कोई असर बाकी रहेगा।

उजाले छीन लिए हैं हवाओं ने हमसे,
अंधेरों का मगर शहर बाकी रहेगा।

वो जो उम्मीद थी कल बेहतर आने की,
टूट भी जाए तो असर बाकी रहेगा।

हमारे अश्क़ भी अब गवाही देंगे,
किसी की आँखों में समंदर बाकी रहेगा।

जिन्हें था फिक्र वतन की, वो खो गए कब के,
अब सिर्फ़ नामों का ही ज़िक्र बाकी रहेगा।

बदल भी जाएँ अगर मौसम यहाँ के सभी,
दिलों में सर्दियों का असर बाकी रहेगा।

ये जो दीवारें उठीं हैं घरों के दरमियाँ,
गिर भी जाएँ तो भी डर बाकी रहेगा।

सफ़र में साथ थे जो, बिछड़ गए रस्ते में,
यादों में उनका सफर बाकी रहेगा।

हर एक ज़ख्म यहाँ बोलता है चीख़-चीख़ कर,
चुप हो भी जाए तो भी असर बाकी रहेगा।

कभी जो हँसते थे हम, आज ग़मगीन हैं,
हँसी की गूँज में भी असर बाकी रहेगा।

वो जो वादे किए थे बहारों ने कभी,
टूट भी जाएँ तो भी असर बाकी रहेगा।

क़लम से लिख तो दिए हमने हालात तमाम,
मगर दिलों में अभी भी असर बाकी रहेगा।

मक़ता:
जो कह दिया ‘क़बीर’ ने इस दौर के लिए,
सदी बदल जाए मगर असर बाकी रहेगा।

🔷 ख़त्मा:

“दौर-ए-फितना की दास्तान” महज़ एक ग़ज़ल नहीं, बल्कि एक ज़माने की चुप सदा है—वो सदा जो बेज़ुबान आँखों से, बुझती उम्मीदों से, और टूटते रिश्तों की राख से उठती है। ये ग़ज़ल हमें याद दिलाती है कि ज़माने की तबाही सिर्फ़ दीवारों, गलियों या हाकिमों तक सीमित नहीं रहती—वो दिलों में उतर जाती है, नस्लों में रच बस जाती है।

हर शेर एक ऐसा निशान छोड़ता है जो वक़्त की गर्द से भी मिटता नहीं। कभी यह ग़ज़ल आह बन जाती है, कभी गवाही, कभी उम्मीद की मद्धम लौ, तो कभी दर्द की पुकार। यह एहसास कराती है कि जब अल्फ़ाज़ सच्चे हों और जज़्बात गहरे, तो शायरी भी तारीख़ बन जाती है।

‘क़बीर’ ने अपने अशआर में जो एहसास समोए हैं, वो आज की हकीकत हैं और आने वाली नस्लों के लिए एक तहरीरी गवाही भी।

क्योंकि जब सब कुछ मिट जाएगा… असर तब भी बाकी रहेगा।

मुश्किल उर्दू अल्फ़ाज़ और उनके आसान हिंदी अर्थ:

दौर-ए-फितना-ओ-फसाद (अशांति और झगड़े का समय), नस्लों (पीढ़ियाँ), साया (परछाईं, डर का प्रभाव), लहू (ख़ून), फ़सल (खेती, उपज), ज़हर (विष, बुरा असर), शरर (चिंगारी, जलन), सियासतों (राजनीति), उजाले (रोशनी, आशा), हवाओं ने छीन लिए (हालात या समय ने छीन लिए), अंधेरों का शहर (निराशा या डर का माहौल), उम्मीद (आशा), अश्क़ (आँसू), समंदर (गहराई, भावनाओं का सैलाब), ज़िक्र (याद, उल्लेख), सर्दियों का असर (ठंडापन, भावनात्मक दूरी), दीवारें (अलगाव, दूरी),

दरमियाँ (बीच में, संबंधों के बीच), सफ़र (यात्रा, जीवन की राह), बिछड़ (जुदा हो गए), ज़ख्म (घाव, चोट), चीख़-चीख़ कर बोलना (बहुत ज़ोर से दर्द बयान करना), ग़मगीन (दुखी, उदास), गूँज (प्रतिध्वनि, आवाज़ का लौट आना), बहारों (वसंत, अच्छे दिन), क़लम (लेखनी, लेखन), हालात (परिस्थितियाँ, समय की स्थिति), अशआर (शेर, कविता की पंक्तियाँ), तहरीरी गवाही (लिखित सबूत, दस्तावेज़ के रूप में साक्ष्य), तारीख़ (इतिहास), गर्द (धूल, समय की धूल), आह (कराह, दिल से निकली पीड़ा), जज़्बात (भावनाएँ), ज़मीर (अंतरात्मा, अंदर की आवाज़), दास्तान (कहानी, किस्सा)।