
तआर्रुफ़:
“बंदा-ए-ख़ुद्दार की तलाश” एक ऐसी ग़ज़ल है जो आज़ादी-ए-फ़िक्र, उसूलों की पाबंदी और ज़मीर की आवाज़ को तलाशती है। यह शायरी उस दौर की तस्वीर पेश करती है जहाँ हर रिश्ता, हर किरदार, यहाँ तक कि इंसानियत तक बिकाऊ हो चली है। शायर ‘कबीर’ इस ग़ज़ल के ज़रिए सवाल करता है कि जब सच बोलना जुर्म बन जाए और फक़्र शर्म समझा जाए, तब खुद्दार लोगों की तलाश किसे रह जाती है? हर शेर एक आईना है जो समाज की गिरती हुई क़दरों, नक़ाबदार चेहरों और खोखले नज़रियों को बेनक़ाब करता है। इस ग़ज़ल में सिर्फ़ एहसास ही नहीं, बल्कि एक अदबी इंक़लाब की सरगोशी भी छुपी है।
ग़ज़ल: बंदा-ए-ख़ुद्दार की तलाश”
मतला:
अब तो सब बिकने लगे हैं ज़र के हाथों,
बंदा-ए-ख़ुद्दार की अब तलब कौन करे।
हर शय बिकती है अब तो बाज़ारों में,
उसूलों की कोई अब क़दर कौन करे?-1
जिसका दिल भी पाक हो, लहजा भी साफ़,
इस हुनर की अब भला इज़्ज़त कौन करे?-2
अब तो दौलत ही बना है मिज़ान-ए-वक़ार,
फक़्र में लुत्फ़ हो वो फ़लसफ़ा कौन करे।-3
लुक़्मा-ए-तर पे भी बिक जाते हैं लोग,
हराम-हलाल का हिसाब कौन करे।-4
तिजारत है अब रिश्तों की भी इस दौर में,
ख़ुलूस की कोई क़दर अब कौन करे।-5
अज़्म, सदाक़त, वफ़ा, सब लफ़्ज़ हो गए,
अब इनपे कोई अमल कौन करे।-6
चिराग़-ए-हक़ की रौशनी फीकी पड़ी,
अंधेरों से अब इन्क़लाब कौन करे।-7
जहाँ सच बोलना हो सज़ा का सबब,
वहाँ लफ़्ज़-ए-हक़ से ख़िताब कौन करे।-8
सच की राहों में अब काँटे बहुत हैं,
इन रास्तों पे अब सफ़र कौन करे।-9
जो नहीं बिके, वो मिटा दिए गए,
अब ऐसे लोगों का हिसाब कौन करे।-10
जो जिया हो वक़ार और उसूलों में,
ऐसे किरदार की किताब कौन करे।11
मस्जिदें हैं मगर दिल हैं ख़ाली बहुत,
अब वहाँ नूर की तलाश कौन करे।-12
ज़माना कहता है झुको तो ही बढ़ो,
अब ऐसे फ़लसफ़े पे सवाल कौन करे।-13
हर लिबास में है इक नफ़ाक़ छुपा,
चेहरों के पीछे नक़ाब कौन करे।-14
मक़ता:
‘कबीर’ भी अब चुपचाप रहता है अक्सर,
ज़माने की सूरत पे ख़िताब कौन करे।
ख़ातमा:
“बंदा-ए-ख़ुद्दार की तलाश” अपने मक़ते में जिस ख़ामोशी को बयान करती है, वह दरअस्ल आज के शायर की लाचारी भी है और उसकी तहज़ीब की बुलंदी भी। यह ग़ज़ल सवाल नहीं, जवाब माँगती है—मगर उन लोगों से जो ज़मीर बेच चुके हैं। ‘कबीर’ का यह कलाम सिर्फ़ आलोचना नहीं, बल्कि उस समाज की तलाश भी है जहाँ उसूलों की फिर से क़द्र हो, जहाँ इंसानियत को नफा-नुकसान से ऊपर समझा जाए। यह ग़ज़ल एक पुकार है—उन आवाज़ों के लिए जो अब ख़ामोश हो चुकी हैं, और उन चेहरों के लिए जो नक़ाबों से आज़ाद होना चाहते हैं। आख़िर में, यह ग़ज़ल एक दास्तान है उस बंदा-ए-ख़ुद्दार की, जो मिटता तो है मगर बिकता नहीं।
मुश्किल उर्दू अल्फ़ाज़ के साधारण अर्थ
बंदा-ए-ख़ुद्दार – आत्मसम्मानी व्यक्ति, ज़र – धन या पैसा, उसूलों – सिद्धांतों, क़दर – इज्ज़त या मूल्य, हुनर – कला या कौशल, मिज़ान-ए-वक़ार – गरिमा का मापदंड, फक़्र – फकीरी या आत्मगौरव, फ़लसफ़ा – दर्शन या विचारधारा, लुक़्मा-ए-तर – रसीला निवाला, हराम-हलाल – जायज़ और नाजायज़, तिजारत – व्यापार, ख़ुलूस – सच्चाई या निष्कलुष भावना, अज़्म – संकल्प, सदाक़त – सच्चाई, वफ़ा – वफ़ादारी, चिराग़-ए-हक़ – सच्चाई का दीपक, इन्क़लाब – क्रांति या परिवर्तन, लफ़्ज़-ए-हक़ – सच बोलने वाला शब्द, सफ़र – यात्रा, वक़ार – गरिमा, मस्जिदें – मस्जिदें, नूर – रौशनी या आध्यात्मिक प्रकाश, फ़लसफ़े – दर्शन, नफ़ाक़ – दोग़लापन, नक़ाब – चेहरा छुपाने वाला आवरण, ख़िताब – संबोधन या भाषण, कलाम – लेखन या शायरी।