
Author: “क़बीर ख़ान”
Date: “2025-04-25”
मोहब्बत और ज़िंदगी: एक ग़ज़ल की तहरीर
मोहब्बत की ताज़गी लाज़िम है ज़िंदगी के लिए,
मगर चंद सिक्कों की गर्मी भी है रवानगी के लिए।
यह ग़ज़ल उन हक़ीक़तों को बयाँ करती है जो आज की मोहब्बत और ज़िंदगी के बीच की सच्चाइयाँ हैं। इसमें इश्क़, भूख, दौलत, रिश्ते और तन्हाई जैसे जज़्बातों को बड़ी खूबसूरती से पेश किया गया है। आइए पढ़ते हैं एक पूरी ग़ज़ल जो मोहब्बत की मिठास और ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीक़तों का संगम है।
✒️ ग़ज़ल
मोहब्बत की ताज़गी लाज़िम है ज़िंदगी के लिए,
मगर चंद सिक्कों की गर्मी भी है रवानगी के लिए।
बिना वफ़ा के दिल भी तो वीरान सा लगे,
कुछ अहद-ए-वफ़ा की ज़रूरत है बन्दगी के लिए।
हसीनों के ख़्वाब में खोना भला है,
मगर जागना भी ज़रूरी है हक़ीक़त के लिए।
इश्क़ में भूख भी होती है, प्यास भी,
ये दर्द ही तो है जो ज़िंदा रखे आदमी के लिए।
हमने सीखा था मोहब्बत को सजदा समझ के,
अब लोग झुकते हैं बस दौलत के लिए।
दिल से न पूछा करो आजकल की रवायत,
हर बात होती है अब नफ़ा-नुक़सान के लिए।
वो जो माँ के आँचल में सुकून मिलता था,
अब वो भी तरसता है सादगी के लिए।
ख़्वाहिशों का बोझ लिए फिरते हैं सब,
कहीं कोई चैन भी हो राहत के लिए।
रात ढलती है तो दिन की तलाश होती है,
इश्क़ के साथ-साथ कमाई भी है ज़रूरी के लिए।
कभी फूलों में थी जो बात, अब नोटों में है,
ये जमाना बदल गया है मोहब्बत के लिए।
ज़ुल्फ़ों का साया भी अच्छा लगता है,
अगर जेब में हो कुछ गर्मी बसर के लिए।
वक़्त के साथ-साथ बदला है ज़माना बहुत,
अब एहसान भी चाहिए जानिब-ए-मुलाक़ात के लिए।
हुनर भी है, हौसला भी है सीने में,
मगर सिफ़ारिश कहाँ है मंज़िल के लिए।
जुनून-ए-इश्क़ भी अब ‘ब्रांड’ बन गया है,
लोग नाम देखते हैं वफ़ा के लिए।
सादगी में जो बात थी पहले कभी,
अब मेकअप चाहिए तअस्सुर के लिए।
कभी एक किताब थी रिश्ता निभाने को,
अब दस्तावेज़ चाहिए निकाह के लिए।
वो जो कहता था — तेरा दर्द मेरा है,
अब वक़ील रखता है जुदाई के लिए।
कब्र भी अब सस्ती नहीं रही ‘क़बीर’,
ज़मीन चाहिए आख़िरी सफ़र के लिए।
कभी आँखों से बयाँ होती थी मोहब्बत,
अब चैट चाहिए इज़हार के लिए।
इंसान भी बिकता है आजकल यहाँ,
बस सही बोली चाहिए सौदे के लिए।
तन्हाई भी अब मुफ़्त नहीं मिलती,
इक शहर चाहिए सुकून के लिए।
ख़ुशबू नहीं रही अब रिश्तों की हवाओं में,
हर मुलाक़ात होती है मतलब के लिए।
सिर्फ़ अश्आर से नहीं भरता कोई पेट यहाँ,
कुछ मेहनत भी करनी होती है शायरी के लिए।
मक़ता:
‘क़बीर‘ कहता है — मोहब्बत हो या बंदगी,
दौलत से भी निभानी पड़ती है शराफ़त के लिए।

लेखक: क़बीर ख़ान
स्रोत: https://knowledgegainers.com
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