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यह ग़ज़ल राह-ए-इस्लाम की हक़ीक़ी तालीमात और असल मायने को बेइंतेहा खुबसूरती से पेश करती है। इसमें इंसानियत, मोहब्बत, और इंसाफ़ जैसे अहम मअानी को उभारते हुए उन कुत्सित रवैयों को नफ़रत की नज़र से देखा गया है जो इस्लामी उसूलों के खिलाफ़ हैं। ग़ज़ल की हर मिसरा उस सच्चाई का ऐलान करता है कि असली इस्लाम नफ़रत, ज़ुल्म, और फितने को मंज़ूर नहीं करता, बल्कि वो राह-ए-इस्लाम है जो इन्सानियत की रोशनी और भाईचारे की मिसाल बनता है। इस काव्यात्मक दस्तावेज़ में ‘मेरा इस्लाम नहीं कहता’ की दास्तां है, जो हर ज़ेहन को सोचने पर मजबूर करती है और राह-ए-इस्लाम की सही तफ़सील से अवगत कराती है।

ग़ज़ल: राह-ए-इस्लाम

मतला:

इस्लाम तो इंसानियत का नाम है,
जो न बाँटे सुकून, उसे इस्लाम नहीं कहता।

जो डर के मारे ग़लत को सही कह दे,
उस ख़ामोश बग़ावत को इस्लाम नहीं कहता।-1

जो ग़ीबत को समझे ज़ुबाँ की नफ़ासत,
उस फरेब-ए-अदब को इस्लाम नहीं कहता। -2

जो हलाल छोड़ हराम का रिज़्क कमाए,
उस मुराद-ए-सरफ़राज़ी को इस्लाम नहीं कहता। -3

जो दहेज को बना दे रस्म-ए-शराफ़त,
उस सादगी-ए-निकाह को इस्लाम नहीं कहता। -4

जो रिश्तों में रंजिश उगाए ज़ात के नाम पर,
उस “ख़ून के नाते” को इस्लाम नहीं कहता।-5

जो माफ़ी से ज़्यादा बदले का हो तलबगार,
ऐसे जज़्बा-ए-मोहब्बत को इस्लाम नहीं कहता।-6

जो कमतर-ए-मक़ाम को इंसान ना जाने कभी,
उस इज़्ज़त-ए-ज़िंदगी को इस्लाम नहीं कहता।-7

जो अज़ान की सदा से भी बेपरवाह रहे,
उस दिल की इबादत को इस्लाम नहीं कहता।-8

जो सियासत में मज़हब से नफ़रत उगाए,
उस ज़हर की सियासत को इस्लाम नहीं कहता।-9

जो जन्नत का फरेब दे कर क़त्ल करवाए,
उस झूठी बशारत को इस्लाम नहीं कहता।-10

जो पढ़े कुरआन मगर बग़ैर इरादा-ए-अमल,
उस बेमायनी तिलावत को इस्लाम नहीं कहता।-11

जो अपनी ही ख़ता पर परदा डाले,
उस रियाकारी तक़वा को इस्लाम नहीं कहता।-12

जो हिजाब को समझें ज़ंजीर-ए-क़ैद,
ऐसे सवालात को इस्लाम नहीं कहता।-13

जो इबादत को बाँटे मज़हब के नाम पर,
उस राह-ए-हक़ को इस्लाम नहीं कहता।-14

जो औरत को रखे हर हक़ से महरूम,
उस फ़िक्र-ए-जिहालत को इस्लाम नहीं कहता।-15

हर दर्द में शामिल जो हो, वो है मुसलमाँ,
जो नफ़रत करे, उसे इस्लाम नहीं कहता।-16

जो जात-पात की आग में लहू बहा दे,
उस फ़ितना-ए-ख़्याल को इस्लाम नहीं कहता।-17

जो माँ की दुआ को करे नज़रअंदाज़,
उस फ़ितरत-ए-सूखी को इस्लाम नहीं कहता।-18

जो दुनिया कमाए पर हो जाए बेख़ुदा,
वो मुफ़लिसी में भी इस्लाम नहीं कहता।-19

जो मय्यत पे ठिठोली करे, मसलों में करे मज़ाक,
ऐसी बेअदबी-ए-रूह-ओ-जहाँ को इस्लाम नहीं कहता।-20

जो बेटी को बोझ समझ कर मिटा दे हमल में,
वो क़ातिल-ए-इंसानियत है, ये इस्लाम नहीं कहता।-21

जो झूठे गवाहों से हासिल हो फ़ैसला,
वो रूह-ए-अदालत को इस्लाम नहीं कहता।-22

जो हिजरत करे नफ़रत के नाम पर,
वो दर-ब-दरी को इस्लाम नहीं कहता।-23

रोज़ा है दिल की सफ़ाई, नीयत की रौशनी भी,
सिर्फ़ पेट की भूख को — इस्लाम नहीं कहता।-24

ज़मीर बेच के जो सज्दे में जा गिरा,
उस सजदा-ए-इबादत को, इस्लाम नहीं कहता।-25

जो बीवी पे हाथ उठाने को जायज़ कहे,
वो मोहब्बत की रस्में, इस्लाम नहीं कहता।-26

जो माँ-बाप को बोझ समझता है आज,
वो नेमत की क़द्र को इस्लाम नहीं कहता।-27

बुज़ुर्गों की नसीहत को ठुकरा दे जो,
वो अदब की रवायत इस्लाम नहीं कहता।-28

जो यतीमों के मुँह से निवाला छीन ले,
वो रहमत का मंज़र इस्लाम नहीं कहता।-29

जो पड़ोसी की भूख-ओ-फ़ाक़ा से बेख़बर हो,
वो रिश्तों की क़द्र-ए-तवज्जोह इस्लाम नहीं कहता।-30

घर जला दे, जान ले ले, और कहे ये हुक्म-ए-खुदा है,
ऐसी जाहिल सोच को मेरा इस्लाम नहीं कहता।-31

जो हुस्न-ओ-जमाल की नुमाइश को फर्ज़ समझे,
वो पर्दा-ए-हया को इस्लाम नहीं कहता।-32

जो बम बांध के जन्नत की उम्मीद लगाए,
वो फितना-परस्त सोच इस्लाम नहीं कहता।-33

जो लड़कियों को इल्म-ओ-क़लम से महरूम रखे,
उस सोच-ए-जहालत को इस्लाम नहीं कहता।-34

जो तर्ज़े हयात को तलवार से थोपे,
ऐसे ज़ुल्म को मेरा इस्लाम नहीं कहता।-35

जो दूसरों की इबादतगाह को चश्म-ए-बेहुरमती से देखे,
वो एहतराम-ए-मज़ाहिब को इस्लाम नहीं कहता।-36

जो जिहाद के नाम पर मासूमों की जान ले,
ऐसे मिज़ाज-ए-क़ातिलानाको इस्लाम नहीं कहता।-37

जो बेटी को बोझ समझे और बेटों को फख़्र,
उस तसव्वुर-ए-फ़ाज़िल को इस्लाम नहीं कहता।-38

जो हक़-ए-गरीब छीन कर हज-ए-फर्ज़ निभाए,
उस सवाब-ए-सफ़र को इस्लाम नहीं कहता।-39

मक्त़ा:

जो फ़र्श-ए-मस्जिद चमकाए पर दिल सियाह रखे,
‘कबीर’ ऐसी इबादत-ए फ़रेब को इस्लाम नहीं कहता।

यह ग़ज़ल हमें यह पैग़ाम देती है कि असली इस्लाम अपने मूल मायने और राह-ए-इस्लाम की राह पर चलने में ही है। नफ़रत, ज़ुल्म और बेइज्ज़ती से दूरी बनाकर, हम इंसानियत और भाईचारे की मिसाल बन सकते हैं। आइए, हम सब मिलकर इस सच्ची राह पर चलें और अपने दिलों को इस्लाम की रोशनी से जलाएं, ताकि हमारा समाज और दुनियादारी बेहतर और खूबसूरत बने। यही ‘मेरा इस्लाम नहीं कहता’ का असली मकसद है।

A serene desert oasis at dawn, still waters mirroring the arched pillars of an ancient stone mosque. Palm trees cast shadows resembling Arabic script on golden sands.
“Where time bends and faith reflects in the desert’s silent embrace.”

मुश्किल उर्दू अल्फ़ाज़ और उनके आसान हिंदी अर्थ:

हक़ीक़ी — असली, सच्चा, तालीमात — शिक्षाएँ, मआनी — अर्थ, मतलब, कुत्सित — गंदा, निंदनीय, खराब, रवैया — व्यवहार, तरीका, फितना — झगड़ा, कलह, लड़ाई, अमल — कार्य, क्रिया, व्यवहार, इरादा-ए-अमल — करने का इरादा, व्यवहार करने की नीयत, रियाकारी — दिखावा, ढोंग, तक़वा — ईमानदारी, परहेज़गारी, धर्मपरायणता, ज़ंजीर-ए-क़ैद — जंजीर की तरह बंदिश, बंदी की जंजीर, सवालात — सवाल, सवालिया बातें, फ़िक्र-ए-जिहालत — बेवकूफी की सोच, नासमझी, जज़्बा-ए-मोहब्बत — प्रेम की भावना, इज़्ज़त-ए-ज़िंदगी — जीवन का सम्मान, इबादत — पूजा, प्रार्थना, सियासत — राजनीति, झूठी बशारत — झूठी खुशखबरी, झूठा संदेश, बेमायनी — बिना मतलब का, निरर्थक, परदा — पर्दा, हिजाब, रस्म-ए-शराफ़त — सम्मान की परंपरा, सादगी-ए-निकाह — विवाह की सादगी, नसीहत — सलाह, मुअामला — व्यवहार, लेन-देन, हिजरत — पलायन, जगह छोड़कर जाना, मक़ाम — स्थान, दर्जा, सज्दे — सिर ज़मीन पर टिका कर की जाने वाली पूजा, फ़ैसला — निर्णय, फैसला, मिज़ाज-ए-क़ातिलाना — क़त्ल करने वाला स्वभाव, हत्यारा रवैया, तसव्वुर-ए-फ़ाज़िल — श्रेष्ठ सोच, श्रेष्ठ विचार, सवाब-ए-सफ़र — यात्रा का धार्मिक फल, यात्रा का अच्छा काम, मक्त़ा — अंत में लिखा हुआ शेर या निष्कर्ष।