
🖋️ तआर्रुफ़:
“रिश्ता बे-सबब” एक रूहानी और जज़्बाती ग़ज़ल है, जो उस अलौकिक रिश्ते को बयान करती है जो बिना किसी वजह के दिल से जुड़ जाता है। शायर ने उन जज़्बातों को अल्फ़ाज़ दिए हैं जो समझ से बाहर हैं मगर महसूस बहुत गहरे होते हैं। कभी सवालात की शक्ल में, कभी ख़ामोशियों की आवाज़ में, यह ग़ज़ल एक ऐसे वजूद की तलाश है जो दिखता नहीं मगर हर जगह मौजूद है। “कबीर” ने इस रचना में सूफ़ियाना अंदाज़ से दिल की गिरहें खोली हैं और रूह को छू लेने वाली मोहब्बत को बयान किया है।
📜 ग़ज़ल: रिश्ता बे-सबब
मतला:
समझ न सका मैं तू क्या है,
फिर भी तुझी पे यक़ीं सा क्यों है।
हर इक सवाल अधूरा सा है,
तेरा जवाब मुकम्मल क्यों है।-1
ख़्वाबों में तू ही बसता है अब,
हक़ीक़त में तेरा घर क्यों है।-2
लब ख़ामोश हैं, दिल गूंज रहा,
हर धड़कन में तू ही क्यों है।-3
दूर है, पर दिल के क़रीब,
रिश्ता ये बे-सबब क्यों है।-4
तू है के नहीं, ये भी नहीं मालूम,
फिर भी तुझी से लगन क्यों है।-5
नाम न लिया, पर पुकारा तुझे,
बिन आवाज़ ये सदायें क्यों हैं।-6
तेरे सिवा न कुछ भी दिखे,
फिर ये पर्दा-ए-हिज्र क्यों है?-7
ना समझा कभी तेरा फ़ैसला,
पर फिर भी रज़ा क्यों है।-8
गुज़रते हुए लम्हों में तू,
हर पल में तेरी झलक क्यों है।-9
तेरे इन्कार में भी करम,
तेरा हर लफ़्ज़ रहम क्यों है।-10
लबों पे न आया तेरा नाम,
पर दिल में बसा क्यों है।-11
बेज़ुबाँ सा रहा उम्र भर,
तेरी ही गुफ़्तगू क्यों है।-12
मक़्ता:
“‘कबीर’ अब तलक यही जान सका,
तू ही सब कुछ है — फिर भी तू क्या है।
🖋️ ख़ात्मा:
“रिश्ता बे-सबब” सिर्फ़ मोहब्बत की कहानी नहीं, बल्कि उस यक़ीन का बयान है जो किसी शक्ल या नाम से नहीं बंधा। ग़ज़ल का हर शेर एक नया दरवाज़ा खोलता है, और आख़िर में यह सवाल छोड़ जाता है — क्या हम जिसे नहीं समझ सके, उसी से सबसे गहरा रिश्ता हो सकता है? “कबीर” की यह ग़ज़ल दिल से निकलती है और सीधे रूह तक पहुँचती है।
📘 उर्दू शब्दों के आसान अर्थ:
रज़ा = मंज़ूरी, हिज्र = जुदाई, गुफ़्तगू = बातचीत, सदा = पुकार, झलक = चमक, इन्कार = मना करना, लफ़्ज़ = शब्द, रहम = दया, फैसला = निर्णय, वजूद = अस्तित्व, सबब = कारण, यक़ीन = विश्वास, ख़्वाब = सपना, दीदार = दर्शन, मक़्ता = आख़िरी शेर जिसमें तख़ल्लुस हो