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तआर्रुफ़ :

रुका सा सिलसिला” एक दर्द-ओ-ख़ामोशी से लिपटी हुई ग़ज़ल है, जो जुदाई, तन्हाई और बदलते रिश्तों के एहसासात को बड़े शाइराना अंदाज़ में बयाँ करती है। इस ग़ज़ल में ‘क़बीर’ ने एक मुकम्मल मोहब्बत के बिखरने के बाद के खामोश लम्हों को लफ़्ज़ों का लिबास पहनाया है। हर शेर एक मुरझाए हुए जज़्बे की तस्वीर पेश करता है, जहाँ कभी बहती दरिया सी ज़िंदगी अब ठहरी हुई सी लगती है। यह शायरी सिर्फ़ तसव्वुर या याद नहीं, बल्कि एक पूरे सफ़र का बयान है — मोहब्बत से जुदाई तक, उम्मीद से ख़ामोशी तक। इस ग़ज़ल में न सिर्फ़ दिल का दर्द है, बल्कि एक ऐसी सादगी है जो पढ़ने वाले के जज़्बातों को छू जाती है।

ग़ज़ल का नाम: “रुका सा सिलसिला”

मतला:
अब न वो हैं, न वो बातें, न वो लम्हे रहे,
ज़िंदगी है पर जैसे कोई सिलसिला रुका सा।

गुज़रते वक्त ने सब कुछ बदल दिया जैसे,
वो जो बहता था कभी, अब है दरिया रुका सा।

ना सदा है, ना जवाब, ना ही कोई सवाल,
तुझसे रिश्ता है मगर अब है तन्हा सा, चुप सा।

धड़कनों में वो सरगम अब सुनाई नहीं देती,
दिल में है साज़ अभी भी मगर सुर है बिखरा सा।

जिस तरफ़ नूर था पहले, अब वहां साया है,
रौशनी का हर चेहरा लगे है बुझा बुझा सा।

तू गया भी तो क्या, सांसों का चलना बाकी है,
जैसे इक शहर हो बर्बाद, फिर भी ज़िंदा सा।

तेरे जाने से ही रुकी है मेरी हर तहरीर,
काग़ज़ों पर अब हर जुम्ला लगे है अधूरा सा।

तू जो साथ था तो हर मोसम था गुलज़ार,
अब बहार भी लगे है जैसे पतझड़ भरा सा।

तेरे बाद भी सब है, मगर तन्हा तन्हा,
हर भीड़ लगे है जैसे सहरा में रास्ता सा।

वक़्त की शाख़ पे लटके हैं यादों के पत्ते,
हर इक लम्हा लगे है जैसे टूटा हुआ सा।

हमने सीने में दफ्न की हैं तसाव्वुर की लाशें,
हर एहसास लगे है अब ग़म का जनाज़ा सा।

ना वो आहट, ना वो परछाइयाँ अब मिलती हैं,
हर दरवाज़ा लगे है बंद, हर रस्ता थका सा।

वो जो आईना था मेरे दिल की दुनिया का कभी,
अब उसी में है अक्स भी, और धुंध भी जमा सा।

हमने खोया तो बहुत, पर मिला कुछ नहीं,
इस हिसाब में भी अब दिल लगे है रूका सा।

मक़ता:
“क़बीर” अब न शिकायत है, न ही कोई गिला,
बस तन्हाई में हर पल लगे है रिवायत सा।

ख़ात्मा:

“रुका सा सिलसिला” एक ऐसी ग़ज़ल है जो पढ़ने वाले को मोहब्बत की सच्चाई और जुदाई की सर्द हवाओं से रू-ब-रू कराती है। इस शायरी में सिर्फ़ अल्फ़ाज़ नहीं, बल्कि उन लम्हों का असर है जो किसी के चले जाने के बाद बाकी रह जाते हैं — अधूरे, खामोश और दर्द में डूबे हुए। ‘क़बीर’ ने तन्हाई को महज़ ग़म नहीं, बल्कि एक रिवायत बना दिया है — एक ऐसी रवायत जो हर दिल में कहीं न कहीं दफ़्न होती है। यह ग़ज़ल उन सभी के लिए आईना है, जिन्होंने किसी को खोकर भी ज़िंदगी से मोहब्बत करना नहीं छोड़ा। जब लफ़्ज़ रुक जाएँ और खामोशी बोलने लगे, तब “रुका सा सिलसिला” ही ज़ुबान बनती है।