
यह नज़्म “वतन में बेनिशान साए”, उस ग़मगीन (दुखी) हक़ीक़त (सचाई) की ग़ज़ल (कविता) है, जो किसी शख़्स (व्यक्ति) को अपने ही वतन (देश) में महसूस होने वाले तन्हाई (अकेलापन), बेग़ैरतगी (बेपरवाही) और बेनाम (बिना पहचान) होने का अहसास (अनुभूति) कराती है। जब इंसान अपनी ज़मीन (भूमि) पर भी खुद को पराया (पराया-पराया, अनजान) समझने लगे, तो उसका दर्द इस नज़्म के लफ़्ज़ात (शब्दों) में बयां होता है।
“वतन में बेनिशान साए” केवल एक नज़्म नहीं, बल्कि उन कड़वी हक़ीक़तों की आवाज़ है, जो अक्सर साजिशों (षड़यंत्रों), ज़ुल्म (अत्याचार), बेवफ़ाई (धोखा) और दबाई हुई सच्चाईयों के पर्दे में छुप जाती हैं। यह नज़्म हमें याद दिलाती है कि वक़्त (समय) चाहे कितना भी बदल जाए, सच्चाई बोलने की हिम्मत (साहस) और अपने हक़ (अधिकार) के लिए लड़ने का जुनून (जज़्बा) कभी खत्म नहीं होना चाहिए।
इस नज़्म में वतन से मोहब्बत (प्यार) और वफ़ादारी (निष्ठा) के बावजूद मिली तन्हाई और बेगानेपन की तक़लीफ़ (पीड़ा) का ज़िक्र है, जो दिल को छू जाती है और सोचने पर मजबूर कर देती है कि आखिर क्यों अपने ही घर में, अपने ही वतन में इंसान बेनिशान (बिना निशान) सा हो जाता है।
नज़्म – वतन में बेनिशान साए
मुख़्तसर सी ज़िन्दगी में इम्तिहान बहुत मिले,
हमको अपने ही वतन में बेनिशान बहुत मिले।
ख़ाक कर डाला गया हर एक सच्ची बात को,
साजिशों की धूप में साये हलाल बहुत मिले।
मंज़िलें उनकी अलग थीं, हम सफ़र अपना रहे,
राह में लेकिन हमें संग-ए-गिरां बहुत मिले।
जो वफ़ादारी का दावा कर रहे थे हर घड़ी,
उनके चेहरों पर हमें ज़ुल्म-ओ-ग़ुरूर बहुत मिले।
हम ही थे जिनकी वजह से ये चमन था आबाद ,
फिर भी हमको ही यहाँ बेगानेपन बहुत मिले।
आज जो हैं ताजदार, कल न होंगे इस ज़मीं,
देख लेना वक़्त में उलटी उड़ान बहुत मिले।
ज़ुल्म की तहरीर मिट जाएगी इक रोज़ मगर,
लहू से लिखते चलो, कुछ निशान बहुत मिले।
जब तलक सच बोलने की रस्म बाक़ी है यहाँ,
हर तरफ़ दीवार के पीछे बयान बहुत मिले।
हमने मांगी थी शफ़क़त अपने ही हक़ में मगर,
फ़ैसले उनके हमें बेइमान बहुत मिले।
अपने ही घर में हमें डर के रहना पड़ गया,
इस सियासत के सफ़र में साजिशें बहुत मिले।
हम जिसे समझे थे क़ातिब अपने हालातों का,
उनके क़लम से हमें तीखे बयान बहुत मिले।
हुक्मरानों की नज़र में हम बग़ावत बन गए,
इस जहाँ में और भी अंजाम-ए-जान बहुत मिले।
ताज तख़्तों का भी इक दिन ख़ाक में मिल जाएगा,
ख़ुद को समझे बादशाह, वो बेनिशान बहुत मिले।
‘क़बीर’ दिल ने तो चाहा था इंक़लाब लिखें,
मगर लफ़्ज़ों में हमें एह्तियात बहुत मिले।
कबीर

उर्दू शब्दों के अर्थ:
मुख़्तसर – छोटी, संक्षिप्त, इम्तिहान – परीक्षा, कठिन समय, बेनिशान – बिना पहचान के, अनजान, साजिशों – चालें, षड्यंत्र, साये हलाल – वैध साये, हक़दार परछाइयाँ (प्रतीकात्मक),
संग-ए-गिरां – भारी पत्थर, बड़ी रुकावटें, वफ़ादारी – निष्ठा, सच्ची दोस्ती, ज़ुल्म-ओ-ग़ुरूर – अत्याचार और घमंड, चमन – बाग़, देश, वतन, ताजदार – राजा, शासक,
उलटी उड़ान – गिरावट, पतन, तहरीर – लिखावट, कहानी, दस्तावेज़, लहू – खून, शफ़क़त – दया, रहम, बयान – वक्तव्य, कथन,
क़ातिब – लेखक, किस्मत लिखने वाला, तीखे बयान – कटु शब्द, कठोर बातें, हुक्मरान – शासक, सत्ताधारी, बग़ावत – विद्रोह, विरोध,
अंजाम-ए-जान – मृत्यु, जीवन का अंत, ताज तख़्त – सत्ता, राजगद्दी।