
Author: Er. Kabir Khan B.E.(Civil Engg.) LLB, LLM
प्रस्तावना (तमहीद):
शिवाजी महाराज सिर्फ़ एक महान हुक्मराँ (शासक) ही नहीं, बल्कि हिंदुस्तानी तारीख़ (भारतीय इतिहास) के वो शानदार सितारे थे, जिन्होंने अपनी जंगी महारत (सैन्य कौशल) और इंतज़ामी क़ाबिलियत (प्रशासनिक दक्षता) से न सिर्फ़ मराठा सल्तनत की बुनियाद रखी, बल्कि इंसाफ़-पसंदी (न्यायप्रियता), मज़हबी रवादारी (धार्मिक सहिष्णुता), और सबको साथ ले चलने की ख़ूबी से सबके दिलों पर भी राज किया। उनका जन्म-स्थान 1630 में पुणे के शिवनेरी क़िला (दुर्ग) था। मराठा साम्राज्य के बुनियाद-पसंद (संस्थापक) के तौर पर उन्होंने मुग़ल सल्तनत और आदिलशाही जैसे ज़बरदस्त दुश्मनों का सामना किया, मगर अपनी हिकमत-ए-अमली के हुनर (रणनीतिक कौशल) और ज़हानत (चतुराई) से फ़तह (विजय) हासिल की।
शिवाजी महाराज का शख़्सियत (चरित्र) उनके इंसाफ़-परस्त (न्यायपूर्ण), रिआया-दोस्त (प्रजावत्सल), और लिसानियत-भरा नज़रिया (धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण) को बयां करता है। उनकी हुकूमत (शासन) में हर मज़हब (धर्म) के लोग अमन (शांति) और एहतराम (सम्मान) के साथ रहते थे। वह किसी फ़िर्क़े (समुदाय) या आक़ीदे (विश्वास) के साथ तसादुम (भेदभाव) नहीं रखते थे और हमेशा बराबरी व इज़्ज़त का सुलूक (व्यवहार) करते थे।
मुसलमानों के प्रति उनका रवैया ख़ास तौर पर रवादारी (सहिष्णुता) और तक़्दीर (सम्मान) से भरा था। उन्होंने न सिर्फ़ मुस्लिम अफ़सरान (अधिकारियों) और सिपाहियों को अपने दरबार में ऊँचे मुक़ाम (उच्च स्थान) दिए, बल्कि उनके मज़हबी रस्म-ओ-रिवाज़ (धार्मिक परंपराओं) का भी पूरा लिहाज़ (सम्मान) किया। शिवाजी महाराज का यह नज़रिया एक हक़ीक़ी (सच्चे) और मिसाली हुक्मराँ (आदर्श शासक) की सिफ़त (गुण) थी, जो सिर्फ़ ज़मीन और सल्तनत ही नहीं, बल्कि लोगों के दिल भी फ़तह करना जानते थे।
शिवाजी महाराज का मज़हबी रवादारी (धार्मिक सहिष्णुता) और एहतराम (सम्मान) भरा नज़रिया:
मज़हबी रवादारी का मिसाल (आदर्श):
शिवाजी महाराज ने अपनी सल्तनत (साम्राज्य) में हर मज़हब (धर्म) को बराबर का एहतराम दिया। उन्होंने यह यक़ीनन (सुनिश्चित) किया कि उनके दरबार में मुख़्तलिफ़ मज़हबी फ़िर्क़ों (विभिन्न धार्मिक समुदायों) के लोग मौजूद हों, और हर कोई अपने आक़ीदे (विश्वास) के मुताबिक़ ज़िंदगी गुज़ारने की आज़ादी रखे। उनकी मज़हबी रवादारी की एक बड़ी मिसाल यह है कि उन्होंने हिंदू और मुसलमान दोनों को दरबार में बराबर का मुक़ाम (स्थान) दिया।
मक़सद (उद्देश्य):
शिवाजी महाराज का मक़सद एक इंसाफ़-परस्त (न्यायसंगत) और हर किसी के लिए महफ़ूज़ (सुरक्षित) सल्तनत बनाना था। उन्होंने समाज में इत्तेहाद (सामंजस्य) क़ायम करने के लिए कोशिशें कीं और मुख़्तलिफ़ मज़हबी रिवायतों (धार्मिक मान्यताओं) का लिहाज़ (सम्मान) किया। उनकी हुकूमत में हर शख़्स को अपने मज़हबी रस्म-ओ-रिवाज़ (धार्मिक रीति-रिवाज़) के मुताबिक़ ज़िंदगी जीने की आज़ादी मिली, जिससे समाजी मेल-जोल (सामुदायिक सद्भावना) को ताक़त मिली।
मुस्लिम फ़िर्क़े (समुदाय) के लिए एहतराम:
शिवाजी महाराज के दरबार में कई मुस्लिम अफ़सर (अधिकारी) और सिपहसालार (सेनापति) मौजूद थे, जैसे हुसैन क़ाज़ी और सिद्दी इब्राहिम, जिन्होंने महाराज के साथ मिलकर कई जंगों (युद्धों) में हिस्सा लिया। यह उनके वसीउन्नज़र (दूरदर्शी) ख़्यालात (विचारों) को ज़ाहिर करता है कि उन्होंने अपनी फ़ौज में मुख़्तलिफ़ मज़हबों के लोगों को शामिल किया और उन्हें बराबर मौक़े (समान अवसर) दिए। शिवाजी का क़ौल (वचन):
“हुकूमत की असल ताक़त मज़हब नहीं, बल्कि इंसाफ़ और इंसानियत में है!”
इस तरह, शिवाजी महाराज ने साबित किया कि एक कामयाब हुक्मराँ (सफल शासक) वह है जो हर मज़हब के लोगों को साथ लेकर चले और इंसाफ़ को तरजीह (प्राथमिकता) दे। उनकी यह रवादारी आज भी हिंदुस्तान के सुलह-ओ-अमन (शांति और सद्भाव) की बुनियाद है।
प्रमुख मुस्लिम सिपहसालार और अफ़सर:
1. सिद्दी इब्राहीम खान
शिवाजी महाराज की फ़ौज में एक नामवर (प्रमुख) मुस्लिम सिपहसालार (सेनापति) थे। वह एक माहिर जंगजू (निपुण योद्धा) और काबिल रणनीतिसाज (कुशल रणनीतिकार) थे। इब्राहिम खान ने महाराज के कई जंगी मुहिमों (सैन्य अभियानों) में अहम भूमिका अदा की और उनकी नीतियों के प्रति पूरी वफ़ादारी दिखाई।
2. दौलत खान:
शिवाजी महाराज के अहम अफ़सरों (प्रमुख अधिकारियों) में से थे, जो कोंकण इलाक़े की हिफ़ाज़त (सुरक्षा) की ज़िम्मेदारी संभालते थे। उन्होंने इलाक़ाई अमन (क्षेत्रीय शांति) के मसाइल (मामलों) में महाराज के प्रति सख़्त वफ़ादारी बनाए रखी और सल्तनत (राज्य) की हिफ़ाज़त में अहम योगदान दिया।
3.मदारी मेहतर:
शिवाजी महाराज के फ़ौजी ख़ैमे (सैन्य खेमे) में ऊँचे मुक़ाम (उच्च पद) पर मुक़र्रर (नियुक्त) थे। वह महाराज की कई मुहिमों (अभियानों) में शामिल हुए और सल्तनत के इज़ाफ़े (राज्य के विस्तार) में अपना हिस्सा डाला। उनका फ़र्ज़ (कर्तव्य) क़िलों (दुर्गों) की हिफ़ाज़त और फ़ौजी सामान (सैन्य संसाधनों) की निगरानी करना था।
4. हाजी याक़ूत:
शिवाजी महाराज के तोपख़ाने (आर्टिलरी) के सरदार (प्रमुख) थे। उन्होंने तोपख़ाने का इंतज़ाम (संचालन) मुहारत (कुशलता) से किया और जंग (युद्ध) के दौरान दुश्मन पर क़ारगर हमले (प्रभावी आक्रमण) करने में महारत हासिल की। उनकी तोपों ने कई अहम जंगों में मराठा फ़ौज की फ़तह (विजय) में अहम भूमिका निभाई।
5. क़ाज़ी और मुस्लिम मशविराकार (सलाहकार):
शिवाजी महाराज के इंतज़ाम (प्रशासन) में कुछ मुस्लिम क़ाज़ी (न्यायाधीश) और मशविराकार भी थे, जो इंसाफ़ी (न्यायिक) और सियासी (कूटनीतिक) मसाइल में मदद करते थे। वह दरबार में अपने इल्म (ज्ञान) और तजुर्बे (अनुभव) से योगदान देते थे और समाज के हर तबक़े (वर्ग) के लिए इंसाफ़ सुनिश्चित करने में मददगार साबित होते थे।
महाराज का नज़रिया:
उनका यह ख़्याल (दृष्टिकोण) कि हुकूमत (प्रशासन) में मज़हब (धर्म) की बजाय काबिलियत (योग्यता) और वफ़ादारी को अहमियत (महत्व) देना चाहिए, उनकी दिलदार (उदार) और दूरअंदेश (दूरदर्शी) सोच को दर्शाता है। उनकी क़यादत (नेतृत्व) में मुख़्तलिफ़ फ़िर्क़ों (विभिन्न समुदायों) के लोगों ने इत्तेहाद (एकता) के साथ मराठा साम्राज्य की ख़िदमत (सेवा) की।
शिवाजी महाराज की मज़हबी रवादारी (धार्मिक सहिष्णुता) उनकी हुकूमत की ख़ास पहचान थी। उन्होंने साबित किया कि एक कामयाब रहनुमा (सफल नेता) वह है जो हर मज़हब का एहतराम (सम्मान) करे और समाज में मेल-जोल (समरसता) को बढ़ावा दे। उनकी नीतियों ने सल्तनत को मज़बूत और मुस्तहक़म (सुरक्षित) बुनियाद दी, जो आज भी लोगों के लिए इल्हाम (प्रेरणा) का स्रोत है।
शिवाजी महाराज और अफ़ज़ल खान की वाक़िया (घटना)
शिवाजी महाराज और अफ़ज़ल खान की दास्तान (कहानी) मराठा तारीख़ (इतिहास) का एक अहम सफ़ा (महत्वपूर्ण अध्याय) है, जो न सिर्फ़ शिवाजी की ज़ेहनियत (बुद्धिमत्ता) और जंगी क़ाबिलियत (रणनीतिक कौशल) को बयां करती है, बल्कि उनके लिसानियत-भरे (धर्मनिरपेक्ष) और रवादार (सहिष्णु) स्वभाव को भी उजागर करती है।
अफ़ज़ल खान का तआरुफ़ (परिचय):
अफ़ज़ल खान, जो आदिलशाही सल्तनत का एक ज़बरदस्त (शक्तिशाली) और माहिर (कुशल) सिपहसालार (सेनापति) था, उसे बीजापुर के सुल्तान ने मराठा ताक़त को ख़त्म करने के लिए भेजा। उस वक़्त शिवाजी महाराज मराठा साम्राज्य का इज़ाफ़ा (विस्तार) कर रहे थे, जो सुल्तान के लिए ख़तरनाक बनता जा रहा था। अफ़ज़ल खान को शिवाजी को शिकस्त (हराने) का हुक्म मिला, और इस मुहिम (अभियान) को कामयाब बनाने के लिए उसने कई चालें चलीं।
शिवाजी महाराज के मुक़ाबिल अफ़ज़ल खान की रणनीति:
अफ़ज़ल खान ने पहले शिवाजी के इलाक़े में दाख़िल (घुसपैठ) की, गाँवों को लूटा, मंदिरों को तोड़ा, और हिंदू आवाम (जनता) को ख़ौफ़ज़दा (आतंकित) करने की कोशिश की। उसका मक़सद शिवाजी को भड़काना था, लेकिन शिवाजी ने सब्र (धैर्य) से काम लिया।
अफ़ज़ल खान ने आख़िरकार शिवाजी महाराज को एक अमन-पसंद (शांतिपूर्ण) मुलाक़ात के बहाने मिलने का दावतनामा (न्योता) भेजा, जिसमें उसने यक़ीन दिलाया कि वह किसी क़िस्म की हिंसा नहीं करेगा।
शिवाजी महाराज की दूरअंदेशी:
शिवाजी महाराज, जो अपनी चतुराई और दूरअंदेशी (दूरदर्शिता) के लिए मशहूर थे, ने अफ़ज़ल खान की साज़िश (योजना) को भाँप लिया। उन्हें शक़ था कि अफ़ज़ल का इरादा उन्हें धोखे से क़त्ल (मारने) का है। इस दौरान, सिद्दी इब्राहिम, एक मुस्लिम अफ़सर, ने शिवाजी को मशविरा (सलाह) दिया कि वे अपनी हिफ़ाज़त (सुरक्षा) के लिए ‘वाघनख़’ (लोहे के नाख़ून) और ‘बिचवा’ (छोटा खंजर) साथ रखें।
जब दोनों रहनुमा (नेता) मिले, तो अफ़ज़ल खान ने शिवाजी को गले लगाने का पेशकश किया। मगर उसी पल, उसने शिवाजी पर हमला करने के लिए खंजर निकाला। शिवाजी ने फ़ौरन अपनी हिफ़ाज़त का इंतज़ाम करते हुए ‘वाघनख़’ से अफ़ज़ल खान पर वार किया, जिससे अफ़ज़ल खान गंभीर ज़ख़्मी हो गया और आख़िरकार मारा गया।
अंतिम संस्कार:
इस वाक़िया के बाद, शिवाजी महाराज ने अफ़ज़ल खान के मुर्दा बदन (शव) का इज़्ज़तदार (सम्मानजनक) तरीक़े से जनाज़ा (अंतिम संस्कार) करवाया। उन्होंने मुस्लिम रिवाज़ (रीति-रिवाज़) के मुताबिक़ अफ़ज़ल खान को दफ़नाने का हुक्म दिया, जो शिवाजी की मज़हबी रवादारी और एहतराम (सम्मान) को ज़ाहिर करता है।
शिवाजी महाराज का यह अमल (कृत्य) उनके दिलदार (उदार) स्वभाव और मज़हबी इंसाफ़ (धार्मिक समभाव) को बयां करता है। उन्होंने यह पैग़ाम दिया कि जंग के मैदान में मुक़ाबिल (प्रतिद्वंद्वी) चाहे जो भी हो, मर्यादा और इज़्ज़त को क़ायम रखना लाज़िमी है। यह वाक़िया उनके इंसाफ़-पसंद और रवादार क़यादत (नेतृत्व) की मिसाल है, जिसने मराठा साम्राज्य की तामीर (निर्माण) और उन्हें एक महान बादशाह के रुतबे (प्रतिष्ठा) पर फ़राज़ करने में अहम किरदार (भूमिका) निभाई। शिवाजी का क़ौल:
“जंग में जीतने वाला वही है जो दिलों को जीतता है, न कि सिर्फ़ तलवार से!”
मज़हबी रवादारी (धार्मिक सहिष्णुता) का सबक़ (सीख):
शिवाजी महाराज की ज़िंदगी और उनके उसूल (सिद्धांत) आज के मुआशरे (समाज) में मज़हबी रवादारी (धार्मिक सहिष्णुता) और सह-मौजूदगी (सह-अस्तित्व) की एक अहम मिसाल पेश करते हैं। उन्होंने अपने दौर-ए-हुकूमत (शासनकाल) में हर मज़हब (धर्म) का एहतराम (सम्मान) किया और अपने दरबार में मुख़्तलिफ़ मज़हबी फ़िर्क़ों (विभिन्न धार्मिक समुदायों) के लोगों को जगह दी। उनकी नीतियों में हर शख़्स के लिए इंसाफ़ और बराबरी का पैग़ाम साफ़ था।
शिवाजी के नज़रिए की अहमियत (महत्व):
शिवाजी महाराज का नज़रिया न सिर्फ़ उस ज़माने के लिए अहम था, बल्कि आज भी हमारे मुआशरे में मेल-जोल (सामंजस्य) और इज़्ज़तदार सह-मौजूदगी के लिए ज़रूरी है। उनकी मज़हबी रवादारी का सन्देश हमें सिखाता है कि मुख़्तलिफ़ मज़हबों और फ़िर्क़ों के बीच बातचीत (संवाद) और समझदारी बढ़ाकर हम एक मज़बूत समाज की तामीर (निर्माण) कर सकते हैं।
मौजूदा मंज़र (वर्तमान परिप्रेक्ष्य) और भाजपा के लिए सबक़ :
आज के दौर में, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को शिवाजी महाराज से इल्हाम (प्रेरणा) लेकर मुस्लिम फ़िर्क़े के ख़िलाफ़ हो रहे तसादुम (भेदभाव) और हिंसा को रोकने की ज़रूरत है। शिवाजी महाराज ने अपनी हुकूमत में मुख़्तलिफ़ मज़हबी फ़िर्क़ों के प्रति एहतराम और रवादारी की मिसाल पेश की। उनके ख़्यालात (विचार) से हमें यह सबक़ मिलता है कि समाज में हर मज़हब और तहज़ीब (संस्कृति) का लिहाज़ (सम्मान) किया जाना चाहिए।
शिवाजी महाराज ने अपने दरबार में हर मज़हब के लोगों को मुक़ाम (स्थान) दिया और उनकी हुकूमत में मज़हबी आज़ादी को प्रोत्साहित किया। उनके मुताबिक़, “मज़हब के नाम पर किसी क़िस्म का तसादुम या हिंसा ग़लत है।” इस नज़रिए को अपनाकर भाजपा को सभी फ़िर्क़ों के बीच बराबरी और एहतराम का जज़्बा (भाव) पैदा करना चाहिए।
तसादुम और हिंसा का ख़ात्मा:
आज जब हम देखते हैं कि मुख़्तलिफ़ मज़हबी गिरोहों (समूहों) के बीच टकराव (संघर्ष) और तसादुम बढ़ रहा है, तो हमें समझना होगा कि इससे समाज में तबाही (विघटन) और बेचैनी (अशांति) बढ़ती है। शिवाजी महाराज की ज़िंदगी इस बात का सबूत है कि रवादारी और समझदारी से हम एक मज़बूत और मुत्तहिद (एकजुट) समाज बना सकते हैं।
समाज में मोहब्बत और भाईचारे का इलक़ा (प्रचार):
इसलिए, भाजपा को चाहिए कि वह शिवाजी महाराज के उसूलों को अपनाकर न सिर्फ़ मज़हबी रवादारी को बढ़ावा दे, बल्कि समाज में मोहब्बत, भाईचारा, और सह-मौजूदगी का माहौल भी तैयार करे। सभी शहरियों (नागरिकों) को बराबर हक़ और एहतराम देने की तरफ़ यह एक अहम क़दम होगा।
शिवाजी महाराज की ज़िंदगी और उनके उसूल हमारे लिए इल्हाम (प्रेरणा) का स्रोत हैं। हमें उनकी मिसाल से सबक़ लेते हुए एक ऐसे समाज की बुनियाद रखनी चाहिए, जहाँ सभी लोग एक-दूसरे के प्रति मुत्तहिद (एकजुट) और रवादार हों। यह सिर्फ़ एक ख़्वाब नहीं, बल्कि एक ऐसा मक़सद है जिसे हम इत्तेहाद (एकता) के साथ हासिल कर सकते हैं। शिवाजी का क़ौल:
“असली फ़तह वह है जो दिलों को जीत ले, न कि सिर्फ़ ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर ले!”
छत्रपति शिवाजी महाराज: सेक्युलरिज़्म के पैरोकार
1. मुस्लिम मज़हबी जगहों (धार्मिक स्थलों) की हिफ़ाज़त:
शिवाजी महाराज की हुकूमत (शासन) में मज़हबी रवादारी (धार्मिक सहिष्णुता) का एक अनोखा नमूना देखने को मिलता है। उन्होंने न सिर्फ़ हिंदू मज़हबी जगहों (धार्मिक स्थलों) का एहतराम (सम्मान) किया, बल्कि मुस्लिम इबादतगाहों (पूजास्थलों) की हिफ़ाज़त (सुरक्षा) का भी ख़ास ख़्याल रखा। उनकी नीति यह थी कि जंग (युद्ध) के दौरान किसी भी मज़हबी जगह को नुक़सान न पहुँचाया जाए, चाहे वह हिंदू मंदिर हो या मुस्लिम मस्जिद।
सूरत पर हमला:
जब शिवाजी महाराज की फ़ौज (सेना) ने सूरत पर हमला किया, तो उन्होंने साफ़ हुक्म दिया: “मस्जिदों और दूसरे मज़हबी जगहों को न छेड़ा जाए!” उनकी फ़ौज ने सूरत की जामा मस्जिद और ताजिया जैसी अहम इबादतगाहों (धार्मिक संरचनाओं) को सलामत रखा। शिवाजी ने फ़ौजियों को हिदायत (निर्देश) दी कि वे सिर्फ़ शाही माल (संपत्ति) और दुश्मन की फ़ौजी सुविधाओं को निशाना बनाएँ।
इस नीति का मतलब:
यह साफ़ ज़ाहिर करता है कि शिवाजी महाराज सभी मज़हबों के प्रति बराबर का लिहाज़ (सम्मान) रखते थे। उनका ख़्याल था कि समाज में मेल-जोल (सद्भाव) के लिए हर मज़हब का एहतराम ज़रूरी है। उनके इस नज़रिए ने न सिर्फ़ उनकी हुकूमत को मज़बूत बनाया, बल्कि एक ऐसा माहौल भी पैदा किया जहाँ सभी फ़िर्क़े (समुदाय) साथ-साथ रह सकते थे।
दूसरे नमूने (उदाहरण):
शिवाजी महाराज ने गंगापुर और पुणे जैसे इलाक़ों में भी मुस्लिम मज़हबी जगहों की हिफ़ाज़त की। उन्होंने यक़ीनन (सुनिश्चित) किया कि उनकी सल्तनत (राज्य) में हर इबादतगाह सुरक्षित रहे, ताकि लोगों का विश्वास बना रहे।
शिवाजी महाराज का यह नज़रिया उनकी क़यादत (नेतृत्व) की ख़ासियत और रवादारी (सहिष्णुता) को दर्शाता है। उनकी मिसाल से हमें सबक़ मिलता है कि एक मज़बूत समाज की तामीर (निर्माण) तभी मुमकिन है जब हम सभी मज़हबों का बराबर एहतराम करें और इबादतगाहों की हिफ़ाज़त करें।
2. मुस्लिम सिपाहियों (सैनिकों) का शामिल करना:
शिवाजी महाराज, जिनकी ज़िंदगी और हुकूमत समाजी इत्तेहाद (सामुदायिक समरसता) और मज़हबी रवादारी का प्रतीक है, ने अपनी फ़ौज में मुस्लिम सिपाहियों और अफ़सरों को अहम भूमिकाएँ दीं। उनके इस नज़रिए ने न सिर्फ़ फ़ौज को ताक़तवर बनाया, बल्कि मुख़्तलिफ़ मज़हबी फ़िर्क़ों के बीच भाईचारे को भी बढ़ावा दिया।
प्रमुख मुस्लिम अफ़सर:
1. हाजी याक़ूत:
शिवाजी महाराज ने हाजी याक़ूत को तोपख़ाने (आर्टिलरी) का सरदार (प्रमुख) बनाया। उनके तजुर्बे (अनुभव) और महारत (कौशल) ने फ़ौज की ताक़त में अहम योगदान दिया। हाजी याक़ूत की रणनीतियों और क़यादत ने कई अहम जंगों में शिवाजी की फ़तह (विजय) में मदद की।
2. मदारी मेहतर:
मदारी मेहतर, जो शिवाजी के फ़ौजी ख़ैमे (सैन्य खेमे) के सरदार थे, अपनी चालाकी (रणनीति) और इंतज़ामी क़ाबिलियत (प्रबंधन कौशल) के लिए मशहूर थे। उन्होंने शिवाजी की फ़ौज की मुक़म्मल तैयारी (सुव्यवस्थित तैयारी) में अहम किरदार (भूमिका) निभाया।
काबिलियत पर ज़ोर:
इन अफ़सरों की तैनाती (नियुक्ति) से साफ़ ज़ाहिर होता है कि शिवाजी महाराज काबिलियत (योग्यता) और हुनर (कौशल) को सबसे ऊपर मानते थे, न कि किसी शख़्स के मज़हब को।
मज़हबी तसादुम (भेदभाव) का इंतिहा (अभाव):
शिवाजी महाराज ने हमेशा यह यक़ीनी बनाया कि उनकी हुकूमत में हर मज़हब के लोग बराबरी से शामिल हो सकें। उन्होंने अपने दरबार में मुख़्तलिफ़ मज़हबी फ़िर्क़ों के नुमाइंदों (प्रतिनिधियों) को जगह दी। इस समावेशी नज़रिए ने न सिर्फ़ उनकी हुकूमत को मज़बूत किया, बल्कि फ़िर्क़ों के बीच आपसी सहयोग को भी बढ़ाया।
समाज पर असर:
शिवाजी महाराज का यह दृष्टिकोण उनकी कामयाबी का अहम वजह था, जिसने मराठा साम्राज्य को एक ख़ुशहाल और मुत्तहिद (सामंजस्यपूर्ण) समाज बनाने में मदद की। उनकी मिसाल से हमें सीख मिलती है:
“मज़हब के आधार पर तसादुम न करके, अगर हम सबको बराबर मौक़े दें, तो एक समृद्ध और ताक़तवर समाज बन सकता है।”
3. शिवाजी महाराज और ज़ीनत-उल-निसा की दास्तान (कहानी):
शिवाजी महाराज से जुड़ी एक ऐसी वाक़िया (घटना) है जिसमें उन्होंने एक मुस्लिम बेगम (महिला) के प्रति इज़्ज़त (सम्मान) और मर्यादा का सबक़ सिखाया। मशहूर है कि एक बार शिवाजी महाराज की फ़ौज (सेना) ने जंग (युद्ध) में फ़तह (विजय) हासिल की और ज़ीनत-उल-निसा नाम की एक मुस्लिम बेगम को क़ैद (बंदी) बना लिया। वह बेगम बेहद ख़ूबसूरत थीं, और उनकी हुस्न (सुंदरता) की चर्चाएँ शिवाजी महाराज तक पहुँच गईं।
जब ज़ीनत-उल-निसा को शिवाजी महाराज के सामने पेश किया गया, तो उन्होंने उन्हें देखकर इरशाद (कहा):
“तुम इतनी ख़ूबसूरत हो कि अगर मेरी वालिदा (माँ) तुम्हें अपनी बेटी बनाकर पालतीं, तो मैं तुम जैसी बहन पाकर ख़ुद को मबरूक (धन्य) समझता।”
यह जुमला (वाक्य) न सिर्फ़ ज़ीनत-उल-निसा के प्रति उनके एहतराम को ज़ाहिर करता है, बल्कि यह भी साबित करता है कि वह मज़हबी और सांस्कृतिक तनावाव (विविधता) का कितना लिहाज़ (आदर) करते थे। उन्होंने ज़ीनत-उल-निसा को इज़्ज़त के साथ उनके घर वापस भेजने का हुक्म दिया, जो यह साफ़ करता है कि शिवाजी महाराज ने हमेशा इंसानियत और रवादारी (सहिष्णुता) को तरजीह (प्राथमिकता) दी।
इस वाक़िया का असर:
इस वाक़िया ने साबित किया कि शिवाजी महाराज सिर्फ़ एक माहिर जंगजू (कुशल योद्धा) नहीं थे, बल्कि एक दिलदार (उदार) और रवादार हुक्मराँ (सहिष्णु शासक) भी थे, जिन्होंने मुख़्तलिफ़ फ़िर्क़ों (विभिन्न समुदायों) के बीच भाईचारे और समझदारी को बढ़ावा दिया। ज़ीनत-उल-निसा की दास्तान आज भी शिवाजी महाराज की उदार सोच और मज़हबी रवादारी की निशानी मानी जाती है।
4. मौलाना हाजी हसन के साथ मुलाक़ात:
एक दफ़ा (बार), शिवाजी महाराज ने मौलाना हाजी हसन नाम के एक मुस्लिम आलिम (विद्वान) से मुलाक़ात की, जो उस ज़माने के मशहूर मज़हबी और समाजी मशविराकार (सामाजिक विचारक) थे। मौलाना ने शिवाजी से उनकी हुकूमत में मुसलमानों के प्रति नीति के बारे में सवाल किया। इस मुलाक़ात का मक़सद यह समझना था कि शिवाजी अपनी फ़ौज और सल्तनत में मुख़्तलिफ़ मज़हबी गिरोहों (धार्मिक समूहों) के प्रति क्या सोच रखते हैं।
शिवाजी महाराज ने जवाब देते हुए फ़रमाया:
“मेरा मज़हब जंग का मज़हब नहीं है। मैं इंसाफ़ (न्याय) और बराबरी में यक़ीन रखता हूँ। मेरी सल्तनत में हर मज़हब का एहतराम होगा, चाहे वह किसी भी ज़ात (जाति) या फ़िर्क़े (संप्रदाय) से ताल्लुक़ रखता हो।”
उन्होंने आगे कहा कि उनकी हुकूमत में हर मज़हब के मानने वालों को बराबर हक़ (अधिकार) हासिल होंगे और वे महफ़ूज़ (सुरक्षित) व मुअज़्ज़ज़ (सम्मानित) ज़िंदगी जीने की आज़ादी पाएँगे। यह बात न सिर्फ़ मौलाना हाजी हसन के लिए, बल्कि उस दौर के दूसरे मुस्लिम फ़िर्क़ों के लिए भी एक उम्मीद (सकारात्मक संकेत) थी।
इस मुलाक़ात ने साबित किया कि शिवाजी महाराज एक ऐसे रहनुमा (नेता) थे जो मज़हबी और समाजी तनावाव (विविधता) का एहतराम करते थे। उनकी यह सोच न सिर्फ़ उनकी सल्तनत को मज़बूत बनाती थी, बल्कि समाज में इत्तेहाद (एकता) और भाईचारे की रूह (भावना) को भी ज़िंदा करती थी। शिवाजी का क़ौल:
“हुकूमत की ताक़त तलवार में नहीं, बल्कि इंसाफ़ और इंसानियत में है!”
5. सिद्दी मस्जिद की हिफ़ाज़त: एक हौसला अफ़ज़ा (प्रेरणादायक) वाक़िया:
शिवाजी महाराज की हुकूमत मज़हबी रवादारी और इंसाफ़ की मिसाल थी। एक ख़ास वाक़िया उस वक़्त का है जब उनकी फ़ौज ने एक इलाक़े पर क़ब्ज़ा किया, जिसमें सिद्दी मस्जिद नाम की एक पुरानी मस्जिद भी शामिल थी। यह मस्जिद मुस्लिम फ़िर्क़े के लिए मज़हबी और रूहानी (आध्यात्मिक) मर्कज़ (केंद्र) थी।
जब शिवाजी की फ़ौज ने इलाक़े पर क़ब्ज़ा किया, तो कुछ फ़ौजियों ने मस्जिद को नुक़सान पहुँचाने की कोशिश की। शिवाजी को यह ख़बर मिलते ही उन्होंने फ़ौरन कार्रवाई की और उन फ़ौजियों को सख़्त चेतावनी दी:
“मज़हबी इबादतगाहों की बे-इज़्ज़ती किसी भी हाल में बर्दाश्त नहीं की जाएगी। ये जगहें लोगों की ईमानदारी (आस्था) और जज़्बात (भावनाओं) की नुमाइंदगी (प्रतिनिधित्व) करती हैं।”
सबक़:
यह वाक़िया ज़ाहिर करता है कि शिवाजी महाराज ने हर मज़हब के लोगों के जज़्बात का लिहाज़ किया। उन्होंने साबित किया कि फ़तह का मतलब सिर्फ़ ज़मीन पर क़ब्ज़ा करना नहीं, बल्कि तहज़ीब (संस्कृति) और मज़हबी जगहों का एहतराम करना भी है।
6. शरणार्थी मुसलमानों की हिफ़ाज़त:
एक बार जब मुग़लों के ज़ुल्म से बचकर कुछ मुस्लिम परिवार शिवाजी महाराज की सल्तनत में पनाह (शरण) लेने आए, तो उन्होंने न सिर्फ़ उन्हें आश्रय दिया, बल्कि उनकी हिफ़ाज़त (सुरक्षा) का भी वादा किया। शिवाजी ने अपने सिपाहियों को हुक्म दिया:
“इन परिवारों की हिफ़ाज़त का ख़ास ख़्याल रखो और उनके मज़हबी हक़ूक़ (धार्मिक अधिकारों) का एहतराम करो।”
यह वाक़िया साबित करता है कि शिवाजी की हुकूमत हर मज़हब के लोगों के लिए बराबर और इंसाफ़-परस्त थी। उनका यह कदम सिर्फ़ रवादारी नहीं, बल्कि एक मुक़म्मल (पूर्ण) इंसाफ़ी समाज की बुनियाद था।
7. औरंगज़ेब के क़ैदी मुस्लिम परिवारों की देखभाल:
शिवाजी महाराज के दौर में, मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने कई मुस्लिम परिवारों को क़ैद कर लिया। जब शिवाजी को यह ख़बर मिली, तो उन्होंने फ़ौरन अपने सिपहसालारों (सेनापतियों) को हुक्म दिया:
“मुग़लों से इन बेगुनाह परिवारों को छुड़ाओ और उन्हें हमारी सल्तनत में पनाह दो।”
जब ये परिवार आज़ाद होकर आए, तो शिवाजी ने उन्हें रहने के लिए सुरक्षित जगह और ज़रूरी मदद मुहैया कराई। यह वाक़िया उनकी मज़हबी रवादारी और इंसानियत का सबूत है।
8. औरतों के प्रति एहतराम की मिसाल:
शिवाजी महाराज ने औरतों के प्रति बेमिसाल एहतराम दिखाया। एक जंग के दौरान, उनकी फ़ौज ने एक मुस्लिम बेगम को क़ैद किया। जब उसे शिवाजी के सामने लाया गया, तो उन्होंने फ़रमाया:
“हम मादरे वतन (मातृभूमि) की हिफ़ाज़त के लिए लड़ते हैं, औरतों के साथ बदसुलूकी के लिए नहीं।”
उन्होंने उस बेगम को इज़्ज़त के साथ रिहा कर दिया। यह वाक़िया उनके उदार स्वभाव और महिला अधिकारों के प्रति समर्थन को रौशन करता है। शिवाजी का सन्देश:
“हर औरत की इज़्ज़त करो, चाहे वह दोस्त हो या दुश्मन।”
9. ख़ानज़ादा और शिवाजी महाराज की मुलाक़ात
एक बार शिवाजी महाराज की मुलाक़ात ख़ानज़ादा (एक मुस्लिम जंगजू/योद्धा) नाम के मुजाहिद (योद्धा) से हुई। ख़ानज़ादा उस समय शिवाजी के ख़िलाफ़ जंग (युद्ध) कर रहे थे, लेकिन उनकी बहादुरी (जुर्रत/दिलेरी) की बहुत ज़िक्र (चर्चा) थी।
जब शिवाजी ने सुना कि ख़ानज़ादा बहुत दिलेर (साहसी/निडर) हैं, तो उन्होंने उन्हें अपने दरबार (राजसभा) में बुलाने का इरादा (निर्णय) किया। यह एक ख़ास (विशेष) क़दम था, क्योंकि आमतौर पर जंग (युद्ध) के दौरान दुश्मनों (शत्रुओं) को बुलाना आसान नहीं होता।
जब ख़ानज़ादा दरबार में पहुँचे, तो वह थोड़ा ख़ौफ़ज़दा (डरे हुए) थे। लेकिन जब उन्होंने शिवाजी को देखा, तो उन्हें यक़ीन (विश्वास) हुआ कि शिवाजी एक ऐसे क़ाइद (नेता) हैं जो सिर्फ़ जंग (युद्ध) नहीं करते, बल्कि इंसानियत (मानवता) और इज़्ज़त (सम्मान) की भी बात करते हैं। शिवाजी ने ख़ानज़ादा का इस्तक़बाल (स्वागत) किया और कहा, “तुम्हारी जुर्रत (हिम्मत) का मैं इक़्राम (सम्मान) करता हूँ। हमें आपस में निज़ा (लड़ाई) नहीं करनी चाहिए।”
इस मुलाक़ात के बाद, ख़ानज़ादा शिवाजी की अज़मत (महानता) से मुतास्सिर (प्रभावित) होकर उनके साथ आने का फ़ैसला (निर्णय) किया। शिवाजी ने ख़ानज़ादा को एक अहम (महत्वपूर्ण) मंसब (पद) पर मुक़र्रर (नियुक्त) किया, जिससे उनकी ख़ूबियों (क्षमताओं) का पूरा इस्तेमाल (उपयोग) हो सका।
इत्तेहाद (एकता) की निशानी
यह वाक़िया (घटना) बताती है कि शिवाजी महाराज का नज़रिया (दृष्टिकोण) इत्तेहाद (एकता) और भाईचारे का था। उन्होंने अपने दरबार में तमाम (सभी) मज़हबों (धर्मों) के लोगों को बराबर अहमियत (महत्व) दी। इस तरह, ख़ानज़ादा और शिवाजी महाराज की मुलाक़ात यह दिखाती है कि शिवाजी सिर्फ़ एक सिपाही (योद्धा) नहीं थे, बल्कि एक इंसाफ़पसंद (न्यायप्रिय) और रवादार (सहिष्णु) हाकिम (शासक) भी थे। उनकी ज़िंदगी (जीवन) हमें यह पैग़ाम (संदेश) देती है कि हमें एक-दूसरे की इख़्तिलाफ़ात (भिन्नताओं) का इक़्राम (सम्मान) करना चाहिए।
10. हिंदू-मुस्लिम इत्तेहाद (एकता) का पैग़ाम: शिवाजी महाराज का नज़रिया
शिवाजी महाराज की हुकूमत (शासन) सिर्फ़ जुर्रत (वीरता) और तदबीर (रणनीति) की मिसाल नहीं थी, बल्कि यह मज़हबी रवादारी (धार्मिक सहिष्णुता) और समाजी इत्तेहाद (सामाजिक एकता) की भी निशानी (प्रतीक) थी। उन्होंने अपनी रियासत (राज्य) में तमाम (सभी) मज़हबों (धर्मों) के लोगों को बराबरी के हक़ (समान अधिकार) देने की पॉलिसी (नीति) अपनाई।
शिवाजी महाराज ने हिंदू और मुस्लिम बिरादरियों (समुदायों) को बराबर मर्तबा (दर्जा) दिया। उन्होंने न सिर्फ़ हिंदू मंदिरों की हिफ़ाज़त (रक्षा) की, बल्कि मुस्लिम मस्जिदों की निगरानी का भी ख़ास (विशेष) ख़्याल (ध्यान) रखा। शिवाजी महाराज के दरबार में हिंदू और मुस्लिम उलेमा (विद्वान), सरदार, और अहलकार (अधिकारी) शामिल थे। यह तनाव्वुअ (विविधता) उनकी हुकूमत (शासन) को मज़बूत (सशक्त) बनाती थी।
इत्तेहाद की हिमायत (एकता का समर्थन)
शिवाजी ने हमेशा हिंदू-मुस्लिम इत्तेहाद (एकता) की ताईद (समर्थन) की। उनका यक़ीन (विश्वास) था कि एक मज़बूत (सशक्त) मुश्तरका समाज (साझा समाज) तभी मुमकिन (संभव) है जब तमाम (सभी) मज़हबों (धर्मों) के लोग मिल-जुलकर (साथ मिलकर) रहें। इस तरह, शिवाजी महाराज की पॉलिसियों (नीतियों) ने समाज में इत्तेहाद और ख़ैरख़्वाही (एकता और सद्भाव) को बढ़ावा (प्रोत्साहन) दिया। उनकी ज़िंदगी (जीवन) आज भी हमें पैग़ाम (संदेश) देती है कि इख़्तिलाफ़ात (भिन्नताओं) में भी इक़्राम (सम्मान) ज़रूरी (आवश्यक) है।
21. शिवाजी महाराज और हुसैन शाह का तआवुन (सहयोग): एक तारीखी (ऐतिहासिक) दोस्ती
शिवाजी महाराज की दास्तान (कहानी) में हुसैन शाह का नाम बहुत अहम (खास) है। हुसैन शाह एक मोअतरम (सम्मानित) मुस्लिम रहनुमा (नेता) थे, जो अपनी तदबीर (नीतियों), बहादुरी और इत्तेहाद (एकता) के लिए जाने जाते थे। जब शिवाजी महाराज अपने रियासत (राज्य) और अवाम (लोगों) की हिफ़ाज़त (सुरक्षा) के लिए जद्दोजहद (संघर्ष) कर रहे थे और स्वराज की तामीर (स्थापना) करना चाहते थे, तब हुसैन शाह ने उनका साथ देने का फैसला किया और उनके साथ मिलकर काम किया। इस तआवुन (सहयोग) ने शिवाजी महाराज के मक़ासिद (लक्ष्यों) को पाने में बड़ी मदद की।
हुसैन शाह का यह तआवुन (सहयोग) महज़ एक रस्मी (औपचारिक) मुआहदा (समझौता) नहीं था, बल्कि एक गहरी और देरपा (स्थायी) दोस्ती थी। उन्होंने न सिर्फ शिवाजी महाराज की तदबीरों (नीतियों) की हिमायत (समर्थन) की, बल्कि अपनी अस्करी (सैन्य) और सियासी (राजनीतिक) ताकत से उनकी मुकम्मल (पूरी) मदद भी की। शिवाजी महाराज के कयादत (नेतृत्व) में रियासत (राज्य) को मज़बूत और मुस्तहकम (स्थिर) बनाने में यह तआवुन (सहयोग) बेहद अहम साबित हुआ।
शिवाजी को हुसैन शाह का यह तआवुन (सहयोग) हासिल हुआ, तो उन्होंने हुसैन शाह की वफादारी और मदद की सताइश (तारीफ) करते हुए कहा,
“ऐसे बा-वफा (वफादार) रफीक़ (साथी) के साथ हम अपने मंसूबे (लक्ष्य) को जल्दी हासिल कर सकते हैं। हमारी इत्तेहाद (एकता) और मुस्तरका (साझा) मकसद से ही स्वराज का ख़्वाब (सपना) पूरा होगा।”
मज़हबी (धार्मिक) बर्दाश्त (सहिष्णुता) और बाहमी (आपसी) तआवुन (सहयोग) की मिसाल
शिवाजी और हुसैन शाह की इस दोस्ती ने साबित किया कि शिवाजी तमाम (सभी) मज़ाहिब (धर्मों) का एहतराम (सम्मान) करते थे। यह इत्तेहाद (गठबंधन) इस बात की मिसाल बना कि शिवाजी अपने रफीक़ों (साथियों) की कदर करते थे, चाहे उनका मज़हब कुछ भी हो। इस दोस्ती ने उनकी सल्तनत (राज्य) में मज़हबी इत्तेहाद (धार्मिक एकता) और बर्दाश्त (सहिष्णुता) का माहौल पैदा किया।
इस तआवुन (सहयोग) की वजह से शिवाजी के दरबार और अफ़्वाज (सेना) में हर मज़हब के लोग एक साथ काम करने लगे। हुसैन शाह जैसे हमसफ़र (सहयोगी) ने शिवाजी के नज़रियात (विचारों) को और मज़बूत किया। इस दोस्ती ने अवाम (जनता) को यह पैग़ाम (संदेश) दिया कि शिवाजी महाराज की हुकूमत (राज्य) सबके लिए खुली और बा-इज़्ज़त (सम्मानजनक) थी।
शिवाजी महाराज और हुसैन शाह की इस दोस्ती ने तारीख़ (इतिहास) में एक ऐसी मिसाल कायम की, जो आज भी हमें मज़हबी बर्दाश्त (धार्मिक सहिष्णुता) और बाहमी (आपसी) इत्तेहाद (सहयोग) की एहमियत (महत्व) सिखाती है। उनकी दोस्ती और वफ़ादारी से हम ये सीख सकते हैं कि एक कामयाब (सफल) समाज बनाने के लिए इत्तेहाद (एकता) और तमाम (सभी) मज़ाहिब (धर्मों) के साथ एहतराम (सम्मान) कितना ज़रूरी है।
22. मुस्लिम मलिका (रानी) के साथ एहतराम (आदरपूर्ण) सुलूक (व्यवहार)
रिवायत (कहानी) है कि जब शिवाजी महाराज की अफ़्वाज (सेना) ने एक मोहिम (अभियान) के दौरान आदिलशाही सल्तनत के कोंडाणा (सिंहगढ़) किले पर फतह (विजय) हासिल की, तो उस किले में आदिलशाही सुल्तान की मलिका (रानी), रानी बीबी मखली (या कुछ मनक़ूलात (स्रोतों) में रानी अफजल बानू) को भी गिरफ़्तार कर लिया गया। यह वाक़े (घटना) शिवाजी महाराज की रियायती (उदार) मिज़ाज और तमाम (सभी) के साथ एहतराम (सम्मान) के जज़्बे (भावना) का एक और सबूत है।
जब शिवाजी महाराज को यह मालूम हुआ कि उनकी अफ़्वाज (सेना) ने किले में एक मुस्लिम मलिका (रानी) को गिरफ़्तार किया है, तो उन्होंने फ़ौरन (तुरंत) हुक्म (आदेश) दिया कि मलिका (रानी) के साथ पूरे एहतराम (सम्मान) से पेश आया जाए। उन्होंने कहा कि मलिका (रानी) को किसी किस्म की तकलीफ़ (परेशानी) न दी जाए। शिवाजी महाराज ने यह भी यक़ीनी (सुनिश्चित) बनाया कि उनकी हिफ़ाज़त (सुरक्षा) का मुकम्मल (पूरा) ख़्याल रखा जाए और किसी भी सिपाही (सैनिक) को उनके करीब जाने की इजाज़त (अनुमति) न हो, ताकि मलिका (रानी) को कोई तकलीफ़ (परेशानी) न पहुंचे।
मलिका (रानी) के साथ एहतराम (आदर) की रविश (पद्धति)
शिवाजी महाराज ने अपने सिपाहियों (सैनिकों) को ख़ास हिदायत (निर्देश) दी कि मलिका (रानी) को मुकम्मल इज़्ज़त (पूर्ण सम्मान) के साथ उनके घर वापस भेजा जाए। उन्होंने ख़ुद मलिका (रानी) से मुलाक़ात की और कहा, “हम मैदाने-जंग (युद्ध भूमि) में अपने दुश्मनों से लड़ते हैं, औरतों (महिलाओं) से नहीं। जंग (युद्ध) की असल तमीज़ (मर्यादा) यही है कि हम अपने दुश्मनों के घरानों (परिवारों) की भी इज़्ज़त (सम्मान) करें।” इस तरह, शिवाजी महाराज ने मलिका (रानी) को मुकम्मल इज़्ज़त (पूर्ण सम्मान) के साथ वापस भेजा।
शिवाजी महाराज का औरतों (महिलाओं) के साथ इज़्ज़त-अफ़्ज़ाई (सम्मानपूर्ण) रवैया
यह वाक़े (घटना) न सिर्फ़ शिवाजी महाराज की उदारता और एहतराम (सम्मान) का सबूत था, बल्कि उनके मुख़ालिफ़ीन (विरोधियों) में भी उनके लिए एहतराम (सम्मान) बढ़ा देता था। शिवाजी महाराज का यह रवैया (व्यवहार) उनके किरदार (चरित्र) की बुलंदी (महानता) और तमाम (सभी) अक़वाम (समुदायों) के साथ उनके इंसाफ़ (न्याय) को उजागर करता है।