
ग़ज़ल “सदा-ए-इंसाफ़” एक आवाज़ है उस समाज के लिए जो बराबरी, इंसाफ़ और इंसानियत पर यक़ीन रखता है। इस ग़ज़ल में हर शेर एक सवाल भी है और एक जवाब भी, जो मौजूदा सियासी, समाजी और तहज़ीबी नाइंसाफ़ियों पर सीधा वार करता है। शायर ने अपने अश’आर में तालीम, रोज़गार, इंसानियत, मज़हबी हम-आहंगी और समाजी बराबरी जैसे बुनियादी मसाइल को शिद्दत से उठाया है। यह ग़ज़ल उन तमाम लोगों के जज़्बात को लफ़्ज़ देती है जो ख़ामोश रह कर भी अंदर से एक इंक़लाब की आग लिए बैठे हैं। यह सिर्फ शायरी नहीं, बल्कि एक समाजी दस्तावेज़ है।
ग़ज़ल: सदा–ए–इंसाफ़
मतला:
हर एक दर पे दिया जले, हर हाथ में दस्तार भी हो,
न सही अगर ये मंज़र तो फिर मैदान-ए-इंकलाब भी हो।-1
जिस घर में चिराग़ न हो, न अनाज की महक सही,
उस घर की तरफ़ देखने का भी एहतिसाब भी हो।-2
शहरों की रौनक़ में गुम हैं गाँव के अंधेरे,
ये सवाल है कि हर सू ख़ामोशी का जवाब भी हो।-3
रोटी, कपड़ा, मकान तो हर शख़्स का हक़ है,
सिर्फ़ वादों में नहीं, अमल में जवाब भी हो।-4
जो छीन ले रोटी किसी भूखे मज़दूर से,
उसके ख़िलाफ़ अब अदालत का इक़दाम भी हो।-5
हर बच्चे को मिले तालीम, यही क़ौम की शान है,
रौशन हो हर दिल से इल्म, जिहालत का नाम न हो।-6
मस्जिद भी हो, मंदिर भी हो, साथ में इक स्कूल भी,
जहाँ मज़हब से पहले इंसानियत की किताब भी हो।-7
हर मज़हब का लिबास ओढ़ कर कत्ल करते हैं जो,
उनके चेहरे से उठे परदा, और हिसाब भी हो।-8
वो जो चुप हैं ज़ुल्म पर, वो भी गुनहगार हैं,
अब हर सन्नाटे में इंक़लाब की किताब भी हो।-9
हर मज़लूम की चीख़ बन जाए कोई तूफ़ान,
ऐसी सदा उठे कि ज़ालिम बेताब भी हो।-10
मक़्ता:
‘क़बीर’ कहता है: ये दुनिया सिर्फ़ तमाशा ना बने,
हर एक घर में रौशनी हो, हर दिल में इंकलाब भी हो।-11

🔴 ख़ातमा:
“सदा-ए-इंसाफ़” की गूंज हर उस दिल तक पहुँचे जो अपने हक़ से महरूम है और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ उठने का हौसला रखता है। ग़ज़ल का हर शेर एक चेतावनी भी है और एक उम्मीद भी कि अब वक़्त आ गया है जब चुप्पी टूटे और इंसाफ़ के लिए सड़कों से सदनों तक आवाज़ उठे। शायर का मक़सद सिर्फ हुस्न-ए-बयान नहीं, बल्कि बग़ावत और बहतर समाज की तामीर है।
उर्दू शब्दों के अर्थ:
सदा-ए-इंसाफ़ – इंसाफ़ की आवाज़, बराबरी – समानता, इंसाफ़ – न्याय, इंसानियत – मानवता, शेर – कविता की दो पंक्तियाँ, सवाल – प्रश्न, जवाब – उत्तर, सियासी – राजनीतिक, समाजी – सामाजिक, तहज़ीबी – सांस्कृतिक, नाइंसाफ़ियाँ – अन्याय, अश’आर – शेरों का बहुवचन, तालीम – शिक्षा, रोज़गार – नौकरी/रोज़ी, मज़हबी – धर्म से संबंधित, हम-आहंगी – सौहार्द/मेलजोल, बुनियादी मसाइल – मूल समस्याएँ, शिद्दत – तीव्रता, जज़्बात – भावनाएँ, लफ़्ज़ – शब्द, इंक़लाब – क्रांति/बदलाव, दर – दरवाज़ा, दिया – दीपक, दस्तार – पगड़ी/इज़्ज़त का प्रतीक, मंज़र – दृश्य, मैदान-ए-इंकलाब – क्रांति का मैदान, चिराग़ – रोशनी/दीपक, एहतिसाब – जवाबदेही, रौनक़ – चमक/चहल-पहल, सू – दिशा, ख़ामोशी – चुप्पी, वादों – वादे, अमल – क्रियान्वयन/पालन, इक़दाम – कार्रवाई/कदम, इल्म – ज्ञान, जिहालत – अज्ञानता, नाम-ओ-निशान – चिन्ह या पहचान, क़ौम – समुदाय/राष्ट्र, लिबास – पोशाक/वेशभूषा, कत्ल – हत्या, हिसाब – न्याय/जवाबदेही, गुनहगार – दोषी, सन्नाटा – खामोशी, मज़लूम – पीड़ित, ज़ालिम – अत्याचारी, बेताब – बेचैन, तमाशा – नाटक/दिखावा, रौशनी – उजाला, मक़्ता – अंतिम शेर जिसमें शायर का नाम होता है।