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सियासत और ईमान का सौदा” एक ऐसी ग़ज़ल है जो हमारे दौर की तल्ख़ हक़ीक़तों को बेनक़ाब करती है। इस ग़ज़ल में जज़्बात, तहज़ीब और दीनी एहसासात का मेल दिखाई देता है, जहाँ सियासत और ईमान की टकराहट इंसानियत की बुनियादों को झकझोरती है। आज के दौर में जब ज़मीर बिकने लगे हों और मस्जिदें भी तिजारत का अड्डा बन जाएँ, वहाँ शायर का कलम उठाना लाज़िमी हो जाता है। यह ग़ज़ल सिर्फ अल्फ़ाज़ का सिलसिला नहीं, बल्कि एक सदा है जो इंसानी रुह को झिंझोड़ती है। सियासत और ईमान का रिश्ता अगर पाक ना रहे, तो क़ौमें सिर्फ नक़्शों में रह जाती हैं। यही पैग़ाम देती है यह ग़ज़ल—हमसे, आपसे और आने वाली नस्लों से।

ग़ज़ल: “सियासत और ईमान का सौदा”

मतला:
न थे वो ख्वाब क़ायद के, न वो राह क़ुरआन की,
ये रियासत अब तिजारत बन चुकी है जान की।-1

न इंसानियत रही, न कोई उसूल बाक़ी,
हुकूमतें बन गईं सौदागर ईमान की।-2

जो कलाम-ए-हक़ था, अब नफ़रतों का ज़रिया है,
कौन सी तर्जुमा है ये अल्फ़ाज़-ए-क़ुरआन की? -3

हर सफ़्हा बोलता था वफ़ा की ज़बान में,
मगर सियासत ने क़दर न की एहतेराम की।-4

जो कौम बन न सकी अदल व इंसाफ़ पे कभी,
उसे ज़रूरत थी पहले कुछ इम्तिहान की।-5

ये सरहदें नहीं, ज़ख्म हैं बंटवारे के,
कमी नहीं रही इंसानियत की जान की।-6

बचा न रंग कोई उस हरे परचम में अब,
उड़ा दिया गया मतलब हर निशान की।-7

जहाँ से उगती है दहशत की हर नई शाख़,
वहीं से बोली लगी है अमन-ओ-अमान की।-8

नक़ाब ओढ़े हुए हैं दरिंदे तख़्तों पर,
बनी हुई है अदालत, मगर है जान की।-9

हर एक मर्कज़ से उठता है बस सियाह धुआँ,
बुझा दी गई है लौ हर दुआ-ओ-क़ुरआन की।-10
A lone traveler in a desert stands at a crossroads: one path leads to a glittering palace surrounded by skeletons, the other to a dimly lit mosque engulfed in a sandstorm. A black raven perches on a weathered signpost labeled "Bargain."
“At life’s crossroads, every choice is a bargain: gold or grace, dust or dawn.”

हुकूमतों ने किया मुल्क को गिरवी अक्सर,
यह कैसी तिजारत हुई है वफ़ा और ईमान की।-11

जनाजे उठते हैं हर रोज़ बेक़ुसूरों के,
कहाँ गईं कसमें अदल की, उस क़ुरआन की? -12

वो मुल्क जो था कभी पैग़ाम-ए-अमन,
आज पहचान बन गया हर तूफ़ान की-13

मस्जिदें अब बन गईं फ़िरक़ों का मरकज़,
गुमां तक न रही रौशनी ईमान की।-14

जो बहाते हैं ख़ून हक़ के लिबास में,
वही करते हैं बातें अमन-ओ-अमान की।-15

आईने तोड़े जिन्होंने बुज़ुर्गों के ख़्वाबों के,
अब मिसाल देते हैं तहज़ीब-ओ-ईमान की।-16

कबीर सदा यही रहे क़लम की रवानी,
ज़मीन माँगती है फिर से जुस्तजू-ए-इन्सान की।-16

ख़ात्मा:

सियासत और ईमान का सौदा” सिर्फ एक शायराना तंज़ नहीं, बल्कि हमारे दौर की एक तल्ख़ तफ़सीर है। इस ग़ज़ल में वो हर आह, हर सवाल, और हर बेचैनी दर्ज है जो एक शऊर रखने वाला दिल महसूस करता है। जब सियासत और ईमान में फ़ासला बढ़ता है, तो अदल मिटता है, इंसानियत गिरवी हो जाती है, और मज़हब सियासी औज़ार बन जाता है। इस ग़ज़ल के अशआर हमसे सिर्फ सोचने की नहीं, कुछ बदलने की भी दावत देते हैं। अब वक़्त है कि हम फिर से सियासत और ईमान के रिश्ते को सच्चाई, अदल और वफ़ा से जोड़ें—ताकि हमारी तहज़ीब फिर से निखरे, और इंसान फिर से इंसानियत में यक़ीन करे।

मुश्किल उर्दू अल्फ़ाज़ और उनके आसान हिंदी अर्थ:

सियासत = राजनीति, |ईमान = आस्था/ईमानदारी, |तल्ख़ = कड़वी, हक़ीक़त = सच्चाई, |बेनक़ाब = पर्दा हटाना, |जज़्बात = भावनाएँ, |तहज़ीब = सभ्यता, दीनी = धार्मिक, एहसासात = भाव, टकराहट = टकराव, ज़मीर = अंतरात्मा, तिजारत = व्यापार, अड्डा = ठिकाना/केंद्र, रुह = आत्मा, झिंझोड़ती = हिला देने वाली, रिश्ता = संबंध, पाक = पवित्र, क़ौमें = समुदाय/राष्ट्र, पैग़ाम = संदेश, मतला = ग़ज़ल का पहला शेर, क़ायद = नेता, रियासत = राज्य/सरकार, उसूल = सिद्धांत,

कलाम-ए-हक़ = सच्चाई की वाणी, तर्जुमा = अनुवाद, अल्फ़ाज़ = शब्द, एहतेराम = इज़्ज़त/सम्मान, इम्तिहान = परीक्षा, सरहदें = सीमाएँ, परचम = झंडा, निशान = पहचान, दहशत = डर/आतंक, शाख़ = टहनी/भाग, तख़्त = सत्ता की कुर्सी, मर्कज़ = केंद्र, सियाह = काला, दुआ-ओ-क़ुरआन = प्रार्थना और कुरआन की बातें, गिरवी = बंधक, बेक़ुसूर = निर्दोष, कसमें = वचन/शपथ, पैग़ाम-ए-अमन = शांति का संदेश, मरकज़ = केंद्र, गुमां = उम्मीद/भरोसा, हक़ = अधिकार/सच, तहज़ीब-ओ-ईमान = सभ्यता और ईमान, रवानी = प्रवाह, जुस्तजू-ए-इन्सान = इंसानियत की तलाश।