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तआर्रुफ़:

ग़ज़ल “हक़ीक़त के चेहरे” इंसानी रिश्तों की तहों में छुपे झूठ, दिखावे और बनावटीपन को बेनक़ाब करती है। कबीर की कलम से निकली यह शायरी सच्चाई, शफ़्फ़ाफ़ियत और उस दिल की तलाश को बयां करती है जो नफ़ा-नुक़सान से परे हो। इस ग़ज़ल में हर शेर एक आईना है — जो दुनिया के दोहरे मिज़ाज और नक़ाब में छिपे चेहरों को दिखाता है। दोस्ती, मोहब्बत, वफ़ा और समाज के झूठे लिबासों के बीच सच्चे दिलों की जुस्तजू इस ग़ज़ल की रूह है। कबीर ने अपने तजुर्बे और तजुर्मानी को लफ़्ज़ों की शक्ल देकर एक ऐसी तस्नीफ़ पेश की है, जो हर उस शख़्स को छूती है जो आज भी दिल से रिश्तों की तलाश में है।

ग़ज़ल :”हक़ीक़त के चेहरे”

ख़ुदा से यही दुआ है इस दिल की अब,
कि दुश्मन ही रहें, मगर नक़ाब वाले न हों।

कई चेहरों पे लगे हैं अजनबी से रंग,
हमेशा साथ हों, मगर हिसाब वाले न हों।

मुलाक़ात हो मगर हो सच्चाई के साथ,
सदा मिलें वो लोग जो ख़िताब वाले न हों।

कभी तजुर्बा था कि अपनों से ग़म मिले,
अब इल्ज़ाम लगें मगर शबाब वाले न हों।

सफ़र में जो मिलें, हों दिल से हमसफ़र,
बनावटी लहजे और नक़्श-ओ-ख़्वाब वाले न हों।

हर पल यक़ीं की रोशनी में कटे,
अंधेरों से भरे नक़्श-ए-शराब वाले न हों।

जो हों, वो हो खुली किताब जैसे,
बंद दरवाज़े, चुप हिजाब वाले न हों।

वो जिएँ भी तो अपने असूलों पे जिएँ,
ज़हर उगलने वाले, अज़ाब वाले न हों।

नज़रों से गिरें न अपने ही लोग,
जो सजते हैं मगर नक़्श-ए-ख़्वाब वाले न हों।

नफ़रत की हवा न आए इस चमन में,
गुलों से भरे हों, मगर ख़राब वाले न हों।

महफ़िल में हों तो रौनक़ बढ़ाएँ,
बस बेवजह के शोर-ए-शराब वाले न हों।

सच बोलें, भले कुछ कम बोलें,
मगर चुपके वार करने वाले न हों।

हर रिश्ता बहे मोहब्बत की नदियों सा,
दिखावे से लबरेज़, सवाब वाले न हों।

जो वादे करें, तो निभाएँ भी उन्हें,
ख़ाली ख्याल और बेहिसाब वाले न हों।

ख़्वाब दिखाएँ तो हक़ीक़त भी हो साथ,
सिर्फ़ छलावे और ख्वाब वाले न हों।

दुनिया की भीड़ में न खोएँ अपने,
जो आएँ पास, मगर नक़्श-ए-बाब वाले न हों।

हमने देखे हैं हुस्न के लाखों रंग,
अब दिल में उतरें, मगर अज़ाब वाले न हों।

हर साज़िश पे अब शक होने लगा है,
जो हों, हों सच्चे, मगर नक़्श-ए-ख़राब वाले न हों।

दिल के रिश्ते हों तो दिल से ही जुड़ें,
बस सूरतों से बँधे नवाब वाले न हों।

छुपकर वार करें वो आदत न हो,
सामने हों, मगर अज़ाब वाले न हों।

नफ़ा-नुक़सान की न चले हर बात में,
मुलाक़ातें हों, मगर हिसाब वाले न हों।

हर बात में रक़्स न हो मकर का,
लबों पे हो जो, वही किताब वाले न हों।

दोस्ती में हो शफ़्फ़ाफ़ सी रौशनी,
बेशुमार मगर बेहिसाब वाले न हों।

सच की ज़ुबाँ से जो डरते न हों,
वो मिलें हमें, मगर हिजाब वाले न हों।

इबादत हो, मगर दिखावे की नहीं,
रुहानी हों, मगर नक़ाब वाले न हों।

‘कबीर ‘ यही चाहता है अब हर नज़र से,
कि अपने हों सभी, मगर अज्नबी वाले न हों।

ख़त्मा:

हक़ीक़त के चेहरे ग़ज़ल सिर्फ़ अल्फ़ाज़ की तस्नीफ़ नहीं, बल्कि आज के समाज का आईना है, जो रिश्तों में छिपे बनावटीपन, छल और झूठ को बेनक़ाब करती है। यह ग़ज़ल उन सभी नक़ाबपोश चेहरों पर सवाल उठाती है जो अपनी असली पहचान छुपाकर दिखावे के साथ ज़िन्दगी बिताते हैं। कबीर की शायरी सच्चाई, यक़ीन और रूहानियत की तलाश में भटकते उस दिल की आवाज़ है, जो असलीपन की तलाश में नकली रिश्तों से टूट चुका है। इस रचना में हर शेर एक तजुर्बा है — एक ऐसा तजुर्बा जो हर पाठक को अपना सा महसूस होता है। हक़ीक़त के चेहरे न सिर्फ़ ज़िन्दगी के दोहरे मिज़ाज को उजागर करती है, बल्कि मोहब्बत और दोस्ती की उस पाक सूरत को भी तलाशती है जो दिखावे और नफ़ा-नुक़सान से परे हो। यह ग़ज़ल एक कोशिश है नक़ाब हटाने की — और रिश्तों को फिर से सच्चाई की ज़मीन पर लाने की।

उर्दू शब्द — सरल हिंदी अर्थ:

ख़ुदा – भगवान, नक़ाब – चेहरा छुपाने वाला पर्दा, अजनबी – अनजान, हिसाब – लेन-देन, गणना, ख़िताब – उपाधि या दिखावे की पहचान, तजुर्बा – अनुभव, ग़म – दुख, इल्ज़ाम – आरोप, शबाब – जवानी या आकर्षण, हमसफ़र – साथ चलने वाला, नक़्श-ओ-ख़्वाब – दिखावे और सपनों की छवि, यक़ीं – विश्वास, नक़्श-ए-शराब – मदहोशी जैसी छवि, हिजाब – पर्दा या झिझक, अज़ाब – सज़ा या पीड़ा, नज़रों से गिरना – सम्मान खोना, चमन – बग़ीचा या संसार, ख़राब – बिगड़ा हुआ, महफ़िल – सभा या बैठक, शोर-ए-शराब – बेहूदा शोर, लबरेज़ – भरपूर या लबालब, सवाब – पुण्य, बेहिसाब – गिनती से बाहर, छलावे – धोखे, नक़्श-ए-बाब – ऊपरी छवि या आदर्श चेहरा, हुस्न – सुंदरता, साज़िश – चाल या षड्यंत्र, नक़्श-ए-ख़राब – बिगड़ी हुई छवि, नवाब – अमीरी दिखाने वाला, मकर – चालाकी या धोखेबाज़ी, रक़्स – नृत्य या उठापटक, शफ़्फ़ाफ़ – पारदर्शी, इबादत – पूजा, रुहानी – आत्मिक या आध्यात्मिक, अजनबी – पराया।