
📘 तआर्रुफ़:
“हक़ और अमल की बात” एक ऐसी ग़ज़ल है जो इस दौर के दोहरे मयार, मज़हब के दिखावे, और ख़ालिस इंसानियत के गुम होते उसूलों पर गहरा सवाल उठाती है। इसमें शाइर ने दीन, अमल, अदब, इल्म, और इंसान की बातनी सच्चाई पर शायरी के ज़रिए तब्सिरा किया है। हर शेर एक आईना है जो बाहरी नक़ाबों से हटकर भीतर की रौशनी या तारीकी को उजागर करता है। यह ग़ज़ल नसीहत भी है, खुद-एहसास का पैग़ाम भी और समाज की ख़ामोश तहज़ीब पर एक सोचने लायक दस्तक भी। “कबीर” की कलम ने इस ग़ज़ल में जो आईने सजाए हैं, उनमें हर पाठक को अपना अक्स ज़रूर नज़र आएगा।
ग़ज़ल: “हक़ और अमल की बात”
मतला:
दावा है सुन्नत-ए-हलाल पर चलने का,
मगर ग़ुस्सा किसी का हलाल नहीं होता।
हर इक बात को कह देना अदब नहीं होता,
दिलों को चीर देना कमाल नहीं होता।-1
जो खुद में न झाँके, सदा औरों को ताके,
वो शख़्स ज़िंदगी में कामयाब नहीं होता।-2
लिबास से तौबा की पहचान क्या होगी?
अगर अंदाज़ में कोई मलाल नहीं होता।-3
सजदे में सर हो मगर दिल में हो धुआँ,
तो रौशनी का वहाँ ख़याल नहीं होता।-4
इल्म का बोझ उठाने से क्या मिलेगा?
अगर उसे बरतने का सवाल नहीं होता।-5
मुहब्बत है अगर तो सब्र भी चाहिए,
हर दर्द का फ़ौरन निकाल नहीं होता।-6
ज़ुबां हो मीठी मगर नियत में हो फरेब,
तो हर लफ़्ज़ दवा का मिसाल नहीं होता।-7
जो मस्जिदों में ही बंद कर दे इंसानियत,
वो दीन का सच्चा मिसाल नहीं होता।-8
अमल हो जब तक, तब तक है इज़्ज़त,
बिना उस के कोई कमाल नहीं होता।-9
हसीन चेहरा अगर नक़ाब में हो,
तो आईना भी फिर कमाल नहीं होता।-10
वो जो गुनाह को हँसी में उड़ा दे,
उसके लिए कोई सवाल नहीं होता।-11
क़लम बिक जाए अगर ज़र के बदले,
तो फिर उस पे कोई ऐतबार नहीं होता।- 12
रख लो किताबें सरहाने जितनी चाहो,
अगर दिल न बदले तो कमाल नहीं होता।-13
जो राह के काँटे चुन ले ख़ामोशी से,
वो शख़्स कभी भी ज़वाल नहीं होता।-14
हर रोज़ इबादत से क्या हासिल,
जब तक कि सच्चा ख़याल नहीं होता।-15
जो अपने ग़म को भी चुपचाप पी जाए,
उससे बड़ा कोई जिहाद नहीं होता।-16
नमाज़ से पहले हो अगर ज़ुल्म किसी पर,
तो वो सजदा भी क़ुबूल नहीं होता।-17
मक़ता:
“कबीर” आइनों से डरने लगा है अब,
हर चेहरा अब यहाँ बेमिसाल नहीं होता।
🖋️ ख़ातमा:
“हक़ और अमल की बात” इस ग़ज़ल का अख़्तितामी असर पाठक को ख़ुद-निगाही की दावत देता है। हर शेर नसीहत नहीं, बल्कि एक दार्शनिक सवाल की तरह सामने आता है — क्या हमारी इबादत, तालीम, और तौबा वाक़ई दिल से हैं? या सिर्फ़ दिखावे और रस्मों में घुल गई हैं? “कबीर” ने अपने मक़ते में आइनों से डरने की बात कह कर उस ज़माने की निशानदेही की है जहाँ चेहरे बेमिसाल नहीं, बेमानी हो चुके हैं। यह ग़ज़ल पढ़ने के बाद पाठक सिर्फ़ वाह-वाह नहीं करता, बल्कि ख़ुद से भी कुछ सवाल करने पर मजबूर होता है। यही इस ग़ज़ल का सबसे बड़ा कमाल है — सोच जगाना, सजदा नहीं कराना।
मुश्किल अल्फ़ाज़ और उनके मअ’नी:
सुन्नत – नबी की चाल-ढाल और आदतें, हलाल – शरीअत के मुताबिक़ जायज़, अदब – तहज़ीब, शालीनता, कमाल – श्रेष्ठता, अद्वितीयता, मलाल – अफ़सोस, पछतावा, सज्दा – अल्लाह के सामने सिर झुकाना, धुआँ – दिल का मैल या ग़लत सोच, रौशनी – सच्चाई या हिदायत की चमक, इल्म – ज्ञान, तालीम, बरतना – व्यवहार में लाना, फ़ौरन – तुरंत, मुहब्बत – प्यार, प्रेम, सब्र – सहनशीलता, फरेब – धोखा, लफ़्ज़ – शब्द, मिसाल – उदाहरण, इज़्ज़त – सम्मान, नक़ाब – पर्दा, मुखौटा, बेहाल – परेशान, अस्थिर, गुनाह – पाप, अपराध, ज़र – धन, पैसा, ऐतबार – भरोसा, विश्वास, सरहाने – सिरहाने या पास, ज़वाल – पतन, गिरावट, इबादत – उपासना, पूजा, जिहाद – संघर्ष (ख़ासकर आत्म-सुधार के लिए), ज़ुल्म – अत्याचार, क़ुबूल – स्वीकार करना, आइना – दर्पण, बेमिसाल – अद्वितीय, अनुपम, ख़ुद-निगाही – आत्म-निरीक्षण, अख़्तितामी – अंतिम, निष्कर्षात्मक