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तआर्रुफ़:

“ग़ज़ल : आइना-ए-दर्द” दिल के उन गहरे जज़्बात की तर्जुमानी है जहाँ इन्सान अपने तसव्वुर, तन्हाई और हक़ीक़त के दरमियान उलझा रहता है। इस ग़ज़ल में शायर ने दर्द को आईने की तरह पेश किया है, जो कभी महबूब की यादों से रोशन होता है, तो कभी तक़दीर की आंधियों में धुँधला जाता है। हर शेर में एक नयी परत खुलती है—कभी सफ़र की नाकामी, कभी दिल की वीरानी और कभी टूटे हुए ख़्वाबों का बोझ। यह ग़ज़ल महज़ अशआर का सिलसिला नहीं, बल्कि ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव का आईना है। “कबीर” ने इस नज़्म में इन्सान के अंदरूनी शोर और बाहर की ख़ामोशी को खूबसूरती से जोड़ा है।

ग़ज़ल : आइना-ए-दर्द

मतला 

बाग़-ए-ख़याल में कभी फूलों-सा खिल गया,
फिर इक हवा चली तो मैं शाख़ों से गिर गया।


राह-ए-सफ़र में मुझको बुलंदी नहीं मिली,
हर मोड़ पर मैं अपने ही साये में घिर गया।


शाम-ए-फ़िराक़ आई तो तन्हाई बोल उठी,
मैं तेरा अक्स था, तुझे ढूँढने चला गया।


मेरे क़लम की स्याही से शोले निकल पड़े,
एहसास जब जले तो मैं शबनम में ढल गया।


हर ग़म को अपने दिल के ही दामन में बाँध कर,
मैं भी किसी की याद का पत्थर-सा बन गया।


ख़ुश्बू भी उस दरीचा-ए-उम्मीद में समा गई,
जिसको मैं छोड़ आया था जब दिल थक गया।

तूफ़ान से गुज़र के भी साहिल न मिल सका,
क़िस्मत का नक़्शा ख़ुद ही समुंदर में जल गया।

हर ख़्वाब का मक़ाम भी ताबीर बन सका,
लेकिन हक़ीक़तों से मेरा रिश्ता बदल गया।

रुख़्सत हुई तो छोड़ गई तेरी याद ही,
दिल की किताब पर वही अफ़साना लिख गया।

ग़म की सियाह रात में सूरज नहीं उगा,
बस चाँद-ए-हसरतों का धुँधला नूर रह गया।

इक ज़ख़्म-ए-दिल से और भी ज़ख़्म उभर गए,
मरहम लगा तो दर्द का दरिया ही बह गया।


आईना देखने की भी अब हिम्मत नहीं,
सूरत वही रही मगर चेहरा बदल गया।

मक़ता

“कबीर” ये किस मक़ाम पे लाया है इत्तिफ़ाक़,
मैं भी सुकूत था, मुझमें शोर भर गया।

ख़ातमा:

“आइना-ए-दर्द” अपने अशआर के ज़रिए उस रूहानी सफ़र को मुकम्मल करती है, जहाँ तन्हाई, याद और दर्द एक ही धारा में बहते नज़र आते हैं। शायर ने अपने कलाम में दर्द को महज़ दुःख नहीं, बल्कि एक तजुर्बा और तालीम बना दिया है। हर मिसरा हमें एहसास कराता है कि इन्सान के अंदर की तन्हाई भी कभी-कभी सबसे ऊँची आवाज़ बन जाती है। मक़ते तक पहुँचते-पहुँचते ग़ज़ल एक सुकूत से भरे तूफ़ान का तसव्वुर छोड़ जाती है। “कबीर” ने इस नज़्म को ऐसा आइना बनाया है जिसमें हर कोई अपना चेहरा, अपनी तन्हाई और अपने दर्द की झलक देख सकता है। यही इस ग़ज़ल की असली खूबसूरती और उसका असर है।

कठिन उर्दू शब्दों के आसान हिंदी अर्थ:

मतला = पहला शेर, बाग़-ए-ख़याल = कल्पना का बाग़, शाख़ = डाल, राह-ए-सफ़र = सफ़र का रास्ता, बुलंदी = ऊँचाई/कामयाबी, साये = परछाइयाँ, शाम-ए-फ़िराक़ = जुदाई की शाम, अक्स = परछाईं/प्रतिबिंब, स्याही = लिखने की स्याही, एहसास = भावना/अहसास, शबनम = ओस की बूँद, दामन = आँचल/सहारा, दरीचा-ए-उम्मीद = उम्मीद की खिड़की, तूफ़ान = आँधी/बवंडर, साहिल = किनारा, क़िस्मत का नक़्शा = भाग्य की योजना, ताबीर = ख़्वाब की हकीकत, रुख़्सत = विदाई/जुदाई, अफ़साना = कहानी, सियाह = काली/अंधेरी, चाँद-ए-हसरत = तमन्नाओं का चाँद, ज़ख़्म-ए-दिल = दिल का घाव, मरहम = दवा/राहत, दरिया = नदी/बहाव, आईना = शीशा/दर्पण, चेहरा = सूरत/रूप, मक़ता = आख़िरी शेर, इत्तिफ़ाक़ = संयोग/अचानक वाक़या, सुकूत = ख़ामोशी, शोर = आवाज़/हलचल।