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तआर्रुफ़:

ग़ज़ल: ज़ुल्म-ए-हुक़ूमत मानवता और इंसाफ़ की अहमियत को बयान करती है। इस ग़ज़ल में शायर ने ज़ालिमों और हुक़ूमत के अत्याचार को नफ़रत, ज़ुल्मत और सियासी चालों के माध्यम से पेश किया है। हर शेर में यह दिखाया गया है कि चाहे ताक़त और हवस कितनी भी बड़ी हो, इंसानियत, दुआओं, सब्र और हिम्मत की रौशनी हमेशा ज़ालिमों को शिकस्त देती है। शायर ने अपनी भाषा में गहराई और रूहानी असर डाला है, ताकि पाठक को इंसाफ़ और सचाई के महत्व का एहसास हो। यह ग़ज़ल न सिर्फ़ चेतावनी है बल्कि आशा और मार्गदर्शन का भी संदेश देती है।

ग़ज़ल: ज़ुल्म-ए-हुक़ूमत

मतला
ज़ालिम है तो ज़ुल्म की आदत भी होगी उसे,
दुआओं की ताक़त से शिकस्त मिलेगी उसे।

नफ़रत के अंधेरों की विरासत भी होगी उसे,
गुनाह की हर राह पे जिल्लत मिलेगी उसे।

माना कि सितम ढाने की हिम्मत भी होगी उसे,
मगर रूह की आवाज़ से हैबत मिलेगी उसे।

ज़ुल्मत के अंधेरे में रियासत भी होगी उसे,
रोशन चराग़ों से बग़ावत मिलेगी उसे।

ग़मगीन दिलों की जो तौहीन करेगा कभी,
ख़ुदा की अदालत में हक़ीक़त मिलेगी उसे।

वो सोचता है ताक़त ही बसर की रौशनी,
इंसान की आँखों से नदामत मिलेगी उसे।

ग़रूर की दीवार की शानत भी होगी उसे,
हवाओं की ठोकर से शिकस्त मिलेगी उसे।

क़त्ल-ए-इंसाफ़ की सियासत भी होगी उसे,
वक़्त की कसौटी से नसीहत मिलेगी उसे।

सियासी चालों की चालाकी भी होगी उसे,
सच्चाई और हिम्मत से शिकस्त मिलेगी उसे।

शहंशाह बनने की हवस भी होगी उसे,
वक़्त की कसौटी से नसीहत मिलेगी उसे।

मक़ता

कबीर  की दुआओं की ताक़त ही रहे रहबर,
ज़ालिम हुक़मरानों को शिकस्त मिलेगी उसे।

ख़ातिमा:

इस ग़ज़ल के माध्यम से यह स्पष्ट किया गया है कि ज़ालिमों और अन्याय करने वालों की शक्ति अस्थायी है। चाहे वह सत्ता में हों या अपनी चालाकी और हवस से दूसरों पर हावी होने की कोशिश करें, उनका अंत हमेशा इंसानियत और सचाई की ताक़त से होता है। हर शेर में यह संदेश छिपा है कि दुआएं, सब्र, हिम्मत, और रूह की आवाज़ ज़ालिमों को शिकस्त दे सकती है। मक्ता में शायर ने अपनी दुआ और मार्गदर्शन को अंतिम मिसरे में संजोया है। यह ग़ज़ल पाठकों को जागरूक करती है, उन्हें इंसाफ़ और मानवता के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है, और दिखाती है कि अच्छाई हमेशा विजयी होती है।