
🖋️ तआर्रुफ़ (प्रस्तावना):
“अमल की आवाज़” सिर्फ़ एक ग़ज़ल नहीं, बल्कि सच्चाई की वो बुलंद सदा है जो समाज के हर कोने में इंसाफ़, बराबरी और जागरूकता की रोशनी फैलाती है। इस ग़ज़ल में हर शेर एक आईना है—जो भूख, ज़ुल्म, मज़हबी तंगनज़री और सियासी फ़रेब को बेनक़ाब करता है।
क़लम के ज़रिए उठती ये आवाज़ उन ख़ामोशियों को तोड़ने की कोशिश है, जिनके पीछे सदियों से मज़लूम दबाए जाते रहे। तालीम, इंसानियत और अमल को केंद्र में रखते हुए ‘क़बीर’ का यह पैग़ाम हर सोचने वाले दिल को झिंझोड़ता है।
यह ग़ज़ल पढ़ने के लिए नहीं, महसूस करने और कुछ कर गुजरने के लिए है।
ग़ज़ल: अमल की आवाज़
मतला:
हर एक दर पे दिया जले, हर हाथ में दस्तार भी हो,
न सही अगर ये मंज़र तो फिर मैदान-ए-इंकलाब भी हो।-1
जिस घर में चिराग़ न हो, न अनाज की महक सही,
उस घर की तरफ़ देखने का भी एहतिसाब भी हो।-2
शहरों की रौनक़ में गुम हैं गाँव के अंधेरे,
ये सवाल है कि हर सू ख़ामोशी का जवाब भी हो।-3
रोटी, कपड़ा, मकान तो हर शख़्स का हक़ है,
सिर्फ़ वादों में नहीं, अमल में जवाब भी हो।-4
जो छीन ले रोटी किसी भूखे मज़दूर से,
उसके ख़िलाफ़ अब अदालत का इक़दाम भी हो।-5
हर बच्चे को मिले तालीम, ये क़ौम की शान हो,
रौशन हो दिल में इल्म, और जिहालत का अंजाम भी हो।।-6
मस्जिद भी हो, मंदिर भी हो, साथ में इक स्कूल भी,
जहाँ मज़हब से पहले इंसानियत की किताब भी हो।-7
हर मज़हब का लिबास ओढ़ कर कत्ल करते हैं जो,
उनके चेहरे से उठे परदा, और हिसाब भी हो।-8
जिसके लहजे में नफ़रत हो, आँखों में गुरूर,
उसके हर लफ़्ज़ पे सुकून का हिसाब भी हो।-9
हर मज़लूम की चीख़ बन जाए कोई तूफ़ान,
ऐसी सदा उठे कि ज़ालिम बेताब भी हो।-10
सियासत जो बाँटे कौम को मज़हब के नाम पर,
उसका पर्दा फाश हो, और इंतेक़ाम भी हो।-11
बोलना सीखो वरना वक़्त बोलेगा तुमसे,
अब हर हक़ की लड़ाई में इंक़लाब भी हो।-12
सिर्फ़ नारों से नहीं बदलते हैं हालात,
अब हर सूरत में अमल की किताब भी हो।-13
जब किताबों से उठे सियासत का धुआँ,
राह-ए-इल्म में फिर कोई नक़्द-ए-हिसाब भी हो।-14
लहू जो बहा है बेगुनाहों का सड़कों पे,
उसके हर कतरे से उठता अजाब भी हो।-15
ना बाँटिए दिलों को ज़ातियों की दीवारों से,
हर आंगन में मोहब्बत का चिराग़ भी हो।-16
अब नफरतों के कारोबार पे ताले लगें,
हर मोड़ पर अमन का इक नक़्श-ए-ख़्वाब भी हो।-17
मक़्ता:
‘क़बीर’ कहता है: ये दुनिया सिर्फ़ तमाशा ना बने,
हर एक घर में रौशनी हो, हर दिल में इंकलाब भी हो।
🖋️ ख़ातमा (निष्कर्ष):
ग़ज़ल “अमल की आवाज़” अपने हर मिसरे में जुल्म के ख़िलाफ़ जंग, और इंसानियत की पैरवी करती है। इसमें सिर्फ़ शिकायत नहीं, बल्कि एक बदलाव की तजवीज़ है — जो अमल के ज़रिए मुमकिन है।
इसमें मज़लूमों की चीख़ें भी हैं और उनके लिए आवाज़ भी; इसमें बेबस बच्चों की आँखें भी हैं और तालीम की उम्मीद भी।
क़बीर की ज़बान में उठी ये ग़ज़ल उन सियासी चालों को ललकारती है, जो कौम को बाँटकर हुकूमत करना चाहती हैं।
यह कलाम तमाशबीन समाज को झिंझोड़ कर कहता है — अब ख़ामोश मत रहो, वक़्त है कुछ कर दिखाने का।हर दिल में रौशनी हो, और हर सोच में इंकलाब हो।
उर्दू शब्दों के सरल हिन्दी अर्थ:
दर = दरवाज़ा, दिया = दीपक, दस्तार = पगड़ी (सम्मान का प्रतीक), मैदान-ए-इंकलाब = क्रांति का मैदान, एहतिसाब = जवाबदेही या हिसाब, सू = दिशा, चारों ओर, रौनक़ = चमक-दमक, जवाब = उत्तर, वादे = कहे हुए शब्द, अमल = क्रियान्वयन या कार्य, इक़दाम = क़ानूनी कार्यवाही या कदम, क़ौम = देश या समुदाय, जिहालत = अज्ञानता, अंजाम = परिणाम, लिबास = वस्त्र, हिसाब = जवाबदेही, लहजा = बोलने का अंदाज़, गुरूर = घमंड, सुकून = शांति, मज़लूम = पीड़ित, ज़ालिम = अत्याचारी, सियासत = राजनीति, इंतेक़ाम = प्रतिशोध, सूरत = स्थिति या रूप, नक़्द-ए-हिसाब = गहराई से समीक्षा, अजाब = दुखद परिणाम या सज़ा, ज़ात = जाति, नक़्श-ए-ख़्वाब = सपना जैसा दृश्य, मक़्ता = ग़ज़ल का अंतिम शेर जिसमें शायर का नाम होता है, तमाशा = दिखावा या मज़ाक।